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बक्‍सर युद्ध- 1764 : ढाई सौ साल बाद

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बक्सर की लड़ाई के बारे में हमें जानना क्यों जरूरी है? बीते 22 अक्तूबर को इस लड़ाई के 250 वर्ष पूरे हो गये. 1764 में हुई इस लड़ाई को मुख्य धारा के इतिहास ने भुला दिया, जबकि इसने हिंदुस्तान की राजनीतिक, सामाजिक और आíथक पृष्ठभूमि को पूरी तरह से बदल दिया था. इस युद्ध में […]

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बक्सर की लड़ाई के बारे में हमें जानना क्यों जरूरी है? बीते 22 अक्तूबर को इस लड़ाई के 250 वर्ष पूरे हो गये. 1764 में हुई इस लड़ाई को मुख्य धारा के इतिहास ने भुला दिया, जबकि इसने हिंदुस्तान की राजनीतिक, सामाजिक और आíथक पृष्ठभूमि को पूरी तरह से बदल दिया था. इस युद्ध में एक ओर थी इस्ट इंडिया कंपनी और दूसरी ओर अवध के नवाब, बंगाल के नवाब और मुगल शाहंशाह की संयुक्त सेना. कंपनी की सेना हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में थी. अवध के नवाब शुजाउद्दौला, बंगाल के नवाब मीर कासिम और मुगल शाहंशाह शाह आलम द्वितीय की सेना थी. करीब तीन घंटे में ही इस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने लड़ाई जीत ली थी.
बक्सर युद्ध को न तो इतिहास में जगह मिली और न ही लोगों ने इसे याद रखा. इसकी बड़ी वजह हार को माना जा सकता है. लेकिन, हार के इतिहास के प्रति बेगानापन हमें अतीत के बड़े अनुभवों व उसकी जड़ों से काट देता है. किसी भी समाज का अतीत खंडों में बंटा नहीं होता है. हार और जीत का अपना महत्व है. ऐसे में बक्सर युद्ध के 250 वर्ष बाद उसे याद करने का मकसद उसके सकारात्मक पक्षों और अनछुए पहलुओं को टटोलना, उससे संवाद कायम करना है. बक्सर युद्ध की ढाई सौवीं वर्षगांठ के बहाने ग्रामीण इतिहास लेखन की धारा को मजबूत करने की कोशिशों को जगह मिलनी ही चाहिए. इसी प्रयास के तहत प्रभात खबर का यह विशेष आयोजन.
इतिहास से संवाद की कोशिश
डॉ दीपक राय
इतिहास के जानकार व साहित्यकर्मी
वर्ष 1764 की 250 वीं वर्षगांठ हमारे बीच आनंद, अह्लाद या उत्सव का कोई ‘जेनुइन’ कारण बन कर तो नहीं आयी है, लेकिन इन दिनों जब आवारा पूंजी की बेहिसाब बदचलनी के आगोश में संस्कृति, परंपराएं, प्रतिरोध और इतिहास एक ‘प्रोडक्ट’ भर रह गये हैं. सारी चीजें एक ‘सेलेबुल आइटम’ की तरह परोसी जा रही हैं, तो ऐसे में इन्हें एक तरतीब, एक क्रम, एक सोच, एक विचार से लैस करने की जरूरत है. वैज्ञानिक चेतना संपन्न एक इतिहासबोध की जरूरत है, जो इतिहास को इतिहास की तरह बरत सके.
दरअसल, जब हम 1764 की बक्सर की लड़ाई की बात करते हैं, तो प्रकारांतर से हम इतिहास से संवाद की भी कोशिश करते हैं. ठीक वैसे ही जैसे हम इतिहास में किसी भी बड़े संदर्भ के संबंध में करते हैं. अभी हालिया हमने 1857 की 150 वीं जयंती को समझने की कोशिश करते समय ठीक ऐसा ही किया था. यह पूरी कवायद औपनिवेशिक स्नेतों से बाहर निकलने की कवायद है, तो जन स्नेतों के तलाश की प्रमाणिक कोशिश भी है.
ठीक-ठीक कहें, तो 1764 आज भी अपने समग्र संदर्भो के साथ इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं है. इतिहास को लेकर कई पूर्वाग्रह दर्ज हैं हमारी चेतना में. जैसे एक पूर्वाग्रह ‘जीत’ का भी है. मसलन यह कि जहां हम जीते नहीं, वह हमारे इतिहास में भी नहीं हो. हमें उन तमाम विसंगतियों से जूझना होगा, जहां सिर्फ जीत के सहारे इतिहास बनाने की कोशिशें हो रही हैं.
1857 भी एक असफल क्रांति थी, लेकिन उसकी प्रेरणा कम नहीं है, उसका गौरव कम नहीं है. 1857 की असफल क्रांति 1947 की भूमिका लिख रही थी. क्या पता 1757 और 1764 भी 1857 के लिए ऐसी ही भूमिकाएं लिख रहे थे. 1764 की लड़ाई का राष्ट्रीय प्रभाव तो रहा, तो क्या इसका राष्ट्रीय चरित्र भी बन सकता है? लिखित-मौखिक साक्ष्यों, अभिलेखागारों तथा लोकस्मृतियों के आधर पर क्या संभव है कि हम जनता की भागीदारी चिह्न्ति करें. उस समय की गतिविधियों में जनता की आवाजाही चिह्न्ति करें और इतिहास को एक बहुवैकल्पिक आधर दे सकें.
यह तभी संभव है, जब हम इतिहास को घटनाओं के रूप में न देखें, बल्कि एक प्रक्रिया के रूप में समङों. हार और जीत से अलग उन प्रवृत्तियों की पड़ताल करें, जिनके चलते हार या जीत होती रही. इतिहास हमारी-आपकी इच्छाओं से नहीं निर्धारित होता है. उनकी अपनी गति है, अपना रास्ता है, उसमें कौन-कौन सी चीजें शामिल हैं, राजा कहां हैं? आम जन कहां हैं? इतिहास बनाने और बदलने की बेचैनियां कहां है? समाज, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, राजनीति कहां है? वित्तीय पूंजी के आक्रामक प्रसार के इस दौर में हाशिये के लोग कहां हैं?
1764 में बक्सर फतह के लगभग 10-12 वर्षो के बाद 1770 में इंगलैंड में शुरू औद्योगिक क्रांति में यांत्रिक आविष्कारों के क्षेत्र में अभूतपूर्व तेजी आयी. मसलन 1760 में जुलाहे उद्योग की शुरुआत ‘तुरी’ बना कर की गयी. 1764 में हरग्रीब्ज ने चरखी बना दी. 1768 में जेम्सवाट ने भाप का इंजन तैयार कर दिया, 1776 में क्रॉम्प्टन ने कताई मशीन बना दी और 1785 में कार्डराइट ने बिजलीवाला चरखा बनाया. यह तेजी यों ही नहीं थी, इसके पीछे भारत की लूट से आया पैसा लगा था. ज्ञात हो कि 1757 से 1815 तक लगभग 15 अरब रुपये लूट के रूप में इंगलैंड पहुंचे.
1764 के बाद भारत में विधिवत स्थापित ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने बिहार के औद्योगिक क्षेत्र को तबाह करने की साजिशें कीं. बक्सर की लड़ाई इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसने संयुक्त सेनाओं की हार और अंगरेजों की जीत से आगे जाकर लगभग पांच-छह सौ वर्षो की एक बड़ी परिधि बनायी, जिसमें मुगलों के आगमन और उनके पतन तक की कहानी लिखी गयी. 1764 हमें स्वयं को जानने का एक परिप्रेक्ष्य देता है कि उस समय की शिनाख्त और गावाहियां क्या थीं?
आज हम उन्हें संदर्भ बना कर इतिहास के प्रति एक बेहतर समझ बना सकते हैं. बात सिर्फ 1764 की नहीं है, बात इतिहास के प्रति हमारे ‘ट्रीटमेंट’ की भी है. इतिहास किसी खास वर्ग के लिए कंधे पर एक भार की तरह हो सकता है, जिसे वे एक क्षण के लिए ढोना नहीं चाहते. लेकिन, वही इतिहास किसी खास वर्ग के लिए चमकता हुआ मानपत्र हो सकता है, जिसे वह फ्रेम कराये और दीवार पर टांग ले. इतिहास राजे-महाराजों का नहीं. उनकी जीत और हार का नहीं. आम जन का इतिहास. अब तक की दुनिया का इतिहास आमजन के संघर्षो का ही तो इतिहास रहा है. अक्सर आम आदमी की जीवन में हार के ही पल आते हैं. लेकिन, वहीं से जीत की कहानियां भी निकलती हैं.
बक्सर से आया अंगरेजी राज
राजू रंजन प्रसाद
इतिहास के शिक्षक व ब्लॉग लेखक
पलासी की लड़ाई एवं बक्सर की लड़ाई-अंगरेज कंपनी और आधुनिक भारत के इतिहास की ये दो राजनीतिक लड़ाइयां काफी निर्णायक रहीं. प्लासी युद्घ की तुलना में बक्सर युद्घ के परिणाम कहीं ज्यादा असरदार थे. सच कहें, तो प्लासी में अंगरेजों को अपना रण-कौशल दिखाने का मौका भी नहीं मिला. यह बक्सर की लड़ाई ही थी, जिसने अंगरेजी तरीके से प्रशिक्षित सैनिकों की श्रेष्ठता को साबित होने का पहला अवसर प्रदान किया.
प्लासी युद्घ के बाद अंगरेज बंगाल में एक कठपुतली नवाब को बनाने में कामयाब हुए थे, लेकिन शीघ्र ही उन्हें मीर कासिम की चुनौती का सामना भी करना पड़ा था. किंतु बक्सर युद्घ ने अवध के नवाब एवं मुगल बादशाह को भी अंगरेजों की शरण में जाने को विवश कर दिया. दिल्ली के कमजोर बादशाह शाह आलम ने सन् 1764 ई़ में अंगरेजों को बक्सर की लड़ाई के बाद बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर दीवानी का अधिकार प्रदान किया. इंगलिश इस्ट इंडिया कंपनी एवं नजमुद्दौला के बीच 20 फरवरी, 1765 को हुए एकरारनामे एवं शाह आलम द्वितीय का अगस्त 1765 के दीवानी अधिकार ने अंगरेजों को बंगाल सूबे का वास्तविक मालिक बना डाला. बर्क ने लिखा है कि ‘भारतीय राजनीति में अंगरेजों का यह पहला वैधानिक प्रवेश था’. इस तरह कहा जा सकता है कि अंगरेजी शासन का इतिहास बिहार से शुरू हुआ.
इसके बाद बिहार में राजस्व एवं अन्य बकाया राशि की वसूली के लिए अंगरेजी सैन्य बल का प्रयोग होने लगा. बेतिया के जमींदार राजा जुगल किशोर को 24 जुलाई, 1765 को गवर्नर ने लिखा, ‘मीर कासिम के जमाने में आप शाही खजाने में जमींदारी से प्राप्त आय से छ:-सात लाख रुपये जमा करते थे. मुङो सूचना मिली है कि इन दिनों आप केवल कुछ लकड़ी भेज कर ही काम चला रहे हैं.
इसलिए मैं कहता हूं कि अगर आपने अविलंब सारे बकायों की अदायगी नहीं कर दी, तो आपसे निबटने के लिए शीघ्र ही अंगरेजी सेना कूच करेगी.’ रॉबर्ट बार्कर को इस काम को अंजाम देने के लिए 1766 के आरंभ में पटना से बेतिया भेजा गया. कहना न होगा कि रॉबर्ट बार्कर को बेतिया के किले को ध्वस्त करते हुए किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा. सुरक्षा कारणों से जुगल किशोर चुपचाप बेतिया छोड़ बुंदेलखंड जा चुके थे.
कंपनी सरकार ने जुगल किशोर की अनुपस्थिति में ही बेतिया राज का जिम्मा शिवहर के कृष्ण सिंह व मधुबन के अवधूत सिंह को सौंप दिया. यह प्रबंध संतोषजनक न होने से एवं एडवर्ड गोल्डिंग के सुझाव के बाद 1771 में पुन: जुगल किशोर सिंह को जमींदारी लौटा दी गयी. लेकिन, अंतत: जुगल किशोर पर राजस्व अदायगी में बरती गयी अनियमितता का हवाला देते हुए उनकी जमींदारी सीधे कंपनी के अधीन कर ली गयी. ‘कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स’ ने ‘कौंसिल’ (कलकत्ता) को चार मार्च, 1767 को लिखा कि ‘बेतिया व्यापार में निवेश के लिए हर संभव आवश्यक साधन मुहैया कराने में मददगार साबित हो सकेगा.’ बार्कर ने भी लिखा कि बेतिया व्यापार के क्षेत्र में कंपनी के लिए असीम संभावनाओं का द्वार खोलनेवाला साबित हो सकता है. इन्हीं प्राप्त सूचनाओं के आधार पर ‘कौंसिल’ ने ड्रोज नामक कंपनी के एक मुलाजिम को बेतिया में उत्पादित प्रत्येक चीज की जानकारी एकत्र करने की सख्त हिदायत दी.
हथुआ राज के जमींदार फतेह सिंह ने कंपनी सरकार को मानने से इनकार कर दिया. वह 1767 में राजस्व की वसूली करने आयी कंपनी की सेना के साथ उलझ गये. कंपनी ने हथुआ राज को एक साल के लिए अपने अधीन कर लिया और समयसीमा समाप्त होने पर फतेह सिंह के चचेरे भाई बसंत शाही को सौंप दिया. बिहार में व्याप्त राजनीतिक अस्थिरता से उत्पन्न स्थिति को 1769-70 के भीषण अकाल ने और भी भयावह बना दिया. 1770 के जनवरी में अलेक्जेंडर ने लिखा कि ‘40 से 60 लोग प्रतिदिन अन्नाभाव में मौत के शिकार हो रहे हैं.’ अप्रैल माह में स्थिति की भयावता और बढ़ गयी. उसने लिखा, ‘जिन्हें प्रत्यक्षदर्शी होने का मौका नहीं मिला है, उनके लिए यह विश्वास कर पाना सहज नहीं होगा.’ केवल पटना में एक दिन में 150 से ज्यादा लोग मरे थे.
नौ मई, 1770 को बंगाल से ‘कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स’ को भेजे गये पत्र में कहा गया कि ‘लोगों की मौत सारे वर्णन/आंकड़े पार कर चुके हैं. पूर्णिया के पर्यवेक्षक डूकारेल ने 28 अप्रैल 1770 को सूचित किया कि ‘वहां से प्रतिदिन 30-40 लोग मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं. द्वैध शासन से उत्पन्न बुराइयों को दूर करने एवं तत्कालीन व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन के ख्याल से ‘कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स’ ने हेस्टिंग्स को गवर्नर नियुक्त किया.
जीत से ज्यादा जरूरी हार का इतिहास जानना
अशोक अंशुमन
प्रोफेसर, लंगट सिंह कॉलेज, मुजफ्फरपुर
इस्ट इंडिया कंपनी एक उभरती हुई ताकत थी. उसके पास कथित रूप से आधुनिक विचार था. सेना प्रशिक्षित थी और नया आर्थिक नजरिया उसके पास था. उसकी तुलना में उस समय के हिंदुस्तानी रियासतों की हालत बदतर थी. उसके पास कोई नैतिक ताकत नहीं थी और न ही कोई नजरिया था. इसी वजह से कंपनी की तुलना में अधिक सैन्य बल होते हुए भी मुगल और अवध की सेनाओं को हार का सामना करना पड़ा. बंगाल के नवाब मीर कासिम की सेना ने जरूर अंगरेजों से मुकाबला किया था. पर जैसा कि पहले से ही तय हो गया था कि उस लड़ाई में अंगरेजों को जीत मिलेगी और ऐसा ही हुआ. यह भी सच है कि अंगरेजों को यह भरोसा नहीं था कि इतनी आसानी से हिंदुस्तान पर जीत मिल जायेगी. इसकी बड़ी वजह कंपनी के पास नयी दृष्टि का होना था. उसकी यह दृष्टि पुरानी व्यवस्था से बिल्कुल जुदा थी. दरअसल, यह दो सभ्यताओं की लड़ाई थी. मुगल ध्वस्त होती व्यवस्था के प्रतीक थे.
इतिहास की इन बातों को जानना आज भी जरूरी है. इतिहास की घटनाओं से ही हमें नयी दृष्टि मिलती है. आधुनिक काल मेंइसकी जानकारी का होना बेहद जरूरी है. मेरा तो मानना है कि जीत के इतिहास से ज्यादा जरूरी पराजय के इतिहास को जानना है. आज के समय में यह और जरूरी है. हमें अपनी आर्थिक व सैन्य स्थितियों की जानकारी होनी ही चाहिए. वैचारिक आधार का होना भी उतना ही जरूरी है. बक्सर की लड़ाई के ढाई सौ साल होने पर उसे याद किया ही जाना चाहिए. हमारे जीवन में ग्रामीण इतिहास की अपनी भूमिका है. उससे हमारा अनजान बने रहना ठीक नहीं. यह सही है कि ज्यादातर इतिहास की बातें शहर और कस्बा आधारित हैं.
आमजन के इतिहास पर काम होना बाकी
देवेंद्र चौबे
प्रोफेसर, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय
बक्सर युद्ध को लेकर मेरी दिलचस्पी तीन वजहों से रही है. पहला यह कि इस युद्ध के बाद भारतीय शासन व्यवस्था पूरी तरह कंपनीके हाथों चली गयी थी. दूसरी दिलचस्पी स्थानीयता को लेकर थी. उस युद्ध में स्थानीय लोगों की बड़ी भूमिका रही. जब अवध और मुगल सेना के पहुंचने में विलंब हो रहा था, तो दो स्थानीय नौजवानों ने वहां मौजूद सेना का नेतृत्व किया था. अब्दुल गुलाम और अब्दुल कादिर उनके नाम थे. अंगरेजों के साथ लड़ाई में दोनों मारे गये. बाद में स्थानीय लोगों ने उन दोनों शहीदों की याद में एक स्मारक बनवाया था. वह स्मारक अब भी कथकौली गांव में है. अंगरेजों ने अपनी शानदार जीत को यादगार बनाने के लिए भी स्मारक बनाया था. कंपनी के खिलाफ भारतीय भी लड़े थे. उसमें हिंदू के साथ मुसलिम भी शामिल थे.
मेरी दिलचस्पी की तीसरी बड़ी वजह भी यही है कि किस प्रकार युद्ध ने सामाजिक स्तर पर दो धार्मिक समूहों को और करीब ला दिया था. शायद यही वजह है कि बक्सर में कभी दंगा-फसाद नहीं हुआ. जहां कहीं भी युद्ध व संघर्ष होता है, उसका असर स्थानीय समाज पर पड़ता है. साझी संस्कृति व साझी विरासत के पहलू को हम इसलिए नहीं भूला सकते कि बक्सर में अंगरेजों की जीत हुई थी. हम मानते हैं कि ग्रामीण स्तर मौजूद इतिहास के लिखने का काम पूरी तरह बाकी है. मुख्यधारा के इतिहासकारों ने ज्यादातर अंगरेजी में उपलब्ध सूचनाओं-स्नेतों का ही इस्तेमाल किया. मेरी नजर में वह अधूरा इतिहास है. खासकर हिंदीपट्टी में तो यह बिल्कुल ही नहीं हुआ है.
युद्ध के बाद भारत पर राज का ख्वाब आया
प्रभाकर सिंह
एसो. प्रो., बीएनडी कॉलेज, बिहार विवि
इतिहास में बक्सर की लड़ाई से ज्यादा तवज्जो प्लासी के युद्ध को दिया गया है. प्लासी के युद्ध में इस्ट इंडिया कपंनी ने बंगाल के नवाब के सेनापति को अपनी ओर कर उन्हें हराया था. लेकिन, इस लड़ाई को जीतने के बाद भी उनके मन में हिंदुस्तान पर शासन करने का ख्याल नहीं आया था. प्लासी की लड़ाई जीतने के बाद इस्ट इंडिया कंपनी को इतना समझ में आया था कि अपने व्यापार की रक्षा वह अपनी सेना की बदौलत कर सकती है. वहीं, बक्सर की लड़ाई के समय स्थिति इसके विपरीत थी. इस लड़ाई में बंगाल के नवाब, अवध के नवाब और मुगल बादशाह की संयुक्त सेना इस्ट इंडिया कंपनी से लड़ी और हार गयी.
सैनिकों और तोपों की संख्या के मामले में इस्ट इंडिया कंपनी की तुलना में संयुक्त सेना काफी आगे थी, फिर भी सिर्फ तीन घंटे में ही मुगल शाहंशाह शाह आलम द्वितीय और अवध के नवाब ने संधि कर ली. इस युद्ध में मिली आसान जीत ने इस्ट इंडिया कंपनी में यह विश्वास भर दिया कि वह अपने बल पर हिंदुस्तान पर शासन कर सकती है. इसलिए बक्सर की लड़ाई का प्लासी के युद्ध से कही ज्यादा महत्व है. इस पर नये सिरे से काम करने की भी जरूरत है. यह जानने की जरूरत है कि आखिर क्या वजह थी कि इतनी बड़ी सेना के होने के बावजूद इस्ट इंडिया कंपनी जीत गयी. सबसे ज्यादा जरूरी इस बात का पता लगाने की है कि इस युद्ध का वहां के स्थानीय लोगों पर क्या प्रभाव पड़ा. युद्ध के पहले और बाद में इलाके की आíथक और सामाजिक स्थिति में क्या बदलाव.
गुमनाम नायकों को तलाशने की जरूरत
प्रमोदानंद दास
प्राध्यापक, इतिहास पटना विश्वविद्यालय
आमतौर पर इतिहास की अच्छी बातों को लोग याद रखते हैं. बक्सर युद्ध का मामला भी ऐसा ही है. उस युद्ध में मुगलों की हार तो हो ही गयी थी, उसी के बाद अंगरेजों का पूरे भारत पर शासन संभव हो सका था. अंगरेजों के लिहाज से यह उतना ही शुभ रहा. पर, हम भारतीयों के नजर से वह अशुभ घड़ी थी, जब मुगल व अवध की सेनाएं चंद घंटों में ही अंगरेजों से मैदान हार गयी थीं. लेकिन, सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि हम सेना होने के बावजूद अंगरेज जीत कैसे गये थे? अंगरेजों के सामने सेना बड़ी थी. साजो-सामान थे. धरती अपनी थी. फिर भी मुगल मात खा गये. इसकी बड़ी वजह एक-दूसरे की सेनाओं पर ऐतबार का न होना था.
शाह आलम और अवध के नवाब अंत-अंत तक इस बात की प्रतीक्षा करते रहे कि अंगरेजों की ओर से कोई सकारात्मक जवाब आयेगा और उनकी रियासत बच जायेगी. अकेले मीर कासिम की सेना काफी देर तक अंगरेजों से मुकाबला करती रही. बक्सर युद्ध में फतह के बाद अंगरेजों का आत्मविश्वास काफी बढ़ गया. बंगाल के नवाब, मुगल और अवध की सेनाओं के बीच एकता नहीं थी. ये सेनाएं विभाजित होकर लड़ रही थीं. इतिहास की इन बातों पर गौर करें, तो पायेंगे कि रणनीति, विश्वास, कौशल की कितनी जरूरत होती है. हम देखते हैं कि आज इन बातों की कहीं ज्यादा जरूरत बन आयी है.
निजी और सामूहिक दोनों ही स्तरों पर इसकी वकालत की जाती है. इस लिहाज से नयी जानकारियों व तथ्यों के साथ इतिहास का लिखा जाना जरूरी है. कई ऐसी घटनाएं हैं, कई ऐसे पात्र हैं, जिन पर काम होना बाकी है. सिर्फ युद्ध और लड़ाइयों के ही नहीं सामाजिक विकास में योगदान करनेवाले अनेक नायकों के बारे में हमें पता नहीं. उनके बारे में खोज करना अपने अतीत को जानने के लिए भी जरूरी है.
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