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जॉर्ज फर्नांडिस एक बेमिसाल नेता

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प्रो आनंद कुमार समाजशास्त्री जॉर्ज फर्नांडिस का जाना मजदूर आंदोलन की एक परंपरा का अंत है और गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति के शिखर पुरुष का अवसान भी है. जॉर्ज फर्नांडिस ने भारतीय राजनीति में मुंबई नगर पालिका के सभासद से भारतीय संसद के रक्षा मंत्री जैसे वरिष्ठतम सार्वजनिक संवैधानिक पदों का जिस मर्यादा के साथ निर्माण […]

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प्रो आनंद कुमार
समाजशास्त्री
जॉर्ज फर्नांडिस का जाना मजदूर आंदोलन की एक परंपरा का अंत है और गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति के शिखर पुरुष का अवसान भी है. जॉर्ज फर्नांडिस ने भारतीय राजनीति में मुंबई नगर पालिका के सभासद से भारतीय संसद के रक्षा मंत्री जैसे वरिष्ठतम सार्वजनिक संवैधानिक पदों का जिस मर्यादा के साथ निर्माण किया, उसमें समाजवाद और संसदवाद का अद्भुत समन्वय है.
उन्होंने अपनी राजनीति की शुरुआत समाजवादी आंदोलन के साथ की और आपातकाल में उन्होंने शौर्य और पराक्रम का बेमिसाल उदाहरण पेश किया. आपातकाल को खत्म करने में अगर जेपी के सिद्धांतनिष्ठ नेतृत्व का असाधारण योगदान था, तो दूसरी तरफ जॉर्ज फर्नांडिस द्वारा भूमिगत ताना-बाना बनाकर देश के अलग-अलग हिस्सों में लोकतंत्र की प्रबलता को बढ़ाते रहने का भी योगदान था.
उनकी राजनीति में जमीनी ताकतों का हमेशा बुनियादी महत्व था, इसीलिए कर्नाटक में जन्मे और औद्योगिक महानगरी मुंबई में राजनीति का सच साधने के साथ ही बांका और मुजफ्फरपुर जैसे दूसरे छोर के नायक के रूप में भी जनता ने उन्हें बार-बार स्वीकार किया.
यह बेहद अफसोस की बात है कि जब गैर-कांग्रेसवाद की शक्तियों को उनके संयोजन में भारतीय राजसत्ता को नयी दिशा देने का अवसर मिला, तो उनके शरीर ने उनका साथ छोड़ दिया.
एक दुर्घटना से प्रभावित उनके मस्तिष्क की शक्तियां लगभग नष्ट हो गयीं, और पिछले कुछ वर्षों से उनका शरीर तो हमारे बीच में था, लेकिन उनकी सोच और उनका नेतृत्व नहीं रहा. आज अगर जॉर्ज फर्नांडिस के भारतीय राजनीति में, विशेषकर समाजवादी आंदोलन में, और गैर-कांग्रेसवादी ताकतों के समन्वय में योगदान को समेटा जाये, तो हम उनको एक ही शब्द में श्रद्धांजलि दे सकते हैं- बेमिसाल.
एक ईसाई का पूरी राष्ट्रीय राजनीति में मजदूरों की ताकत के साथ ऊंचाई तक पहुंचना और फिर भारत के सभी गैर-कांग्रेसी नेताओं की आंख का तारा बनना कोई साधारण बात नहीं है. कुछ बात ऐसी थी उनमें, जिसके कारण जेपी और लोहिया से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी के सहज-सहयोगी और विश्ववासपात्र बने.
अपनी राजनीतिक मजबूरियों के बावजूद उन्हाेंने विचार-निर्माण की दिशा में ‘प्रतिपक्ष’ और ‘द अदर साइड’ जैसी पत्रिकाओं के जरिये भारतीय बुद्धिजीवियों से लेकर सार्वजनिक कार्यकर्ताओं को विचार के महत्व को समझाने का काम किया. वे सिर्फ भारत के ही लोकप्रिय जननेता नहीं थे, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया में और एक मायने में तो विश्व के मजदूर आंदोलन और समाजवादी आंदोलन में भी, उनकी असाधारण प्रतिष्ठा थी.
आपातकाल में जॉर्ज फर्नांडिस की जान का खतरा आया, तो अंतरराष्ट्रीय मजदूर आंदोलन और समाजवादी आंदोलन दोनों ने एक स्वर में जॉर्ज फर्नांडिस के साथ किसी भी तरह का अत्याचार न करने की इंदिरा-शासन को चेतावनी दी थी. यह जरूर विडंबना रही कि अपने सार्वजनिक जीवन में फर्नांडिस के निकटतम साथी निजी और सार्वजनिक कारणों से उनसे छूटते गये. आनेवाला समय खासतौर पर जनआंदोलनों के साथ जुड़े लाेग और संगठन फर्नांडिस की राजनीति की शक्ति आैर सीमाओं से सबक लेंगे, इसमें कोई शक नहीं है.
जॉर्ज फर्नांडिस ने गैर-कांग्रेसवाद को सामाजिक संस्करण के रूप में पेश करने की कोशिश की थी, जिसमें उन्होंने मंडल आयोग को एक सैद्धांतिक आधार देने का प्रयास किया. लेकिन, जल्द ही उनकी मंडलवादी शक्तियों की गैर-समाजवादी प्रवृत्तियों के कारण मोहभंग भी हुआ.
फिर उन्होंने समता पार्टी का निर्माण किया. जब समता पार्टी का प्रयोग सीमित संभावनाओं वाला लगा, तो उन्होंने एक व्यापक दायरा बनाने के लिए आडवाणी जी के साथ सहयोग करके भाजपा के साथ संयुक्त मोर्चा बनाया. इसकी आलोचना हुई, लेकिन भाजपा के साथ समता पार्टी के सहयोग को एक अवसर दिया और वे स्वयं कांग्रेस के खिलाफ नये राष्ट्रीय गठबंधन के संयोजक बने, जिसने अटल जी के प्रधानमंत्री बनने का मार्ग प्रशस्त किया.
बिहार की राजनीति में उनके प्रयोगों का अंतर्विरोध बार-बार सामने आया, जिससे लालू प्रसाद यादव से लेकर शरद यादव और नीतीश कुमार तक उनके निकट अनुयायी बाद में उनकी प्रतिद्वंद्वी और प्रतिस्पर्धी भी बने. जॉर्ज फर्नांडिस की राजनीति का यह अनूठा वक्त था कि बहुत बार उनके अपने बसाये घर से उनको निष्कासित किया गया, जिसमें भाजपा से लेकर जदयू तक लंबा सिलसिला है.

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