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अजीम शहादत का नाम है भगत सिंह

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शहीदों और महान नेताओं की जयंती या पुण्यतिथि महज रस्म-अदायगी का मौका नहीं, बल्कि उनके जीवन, कार्यों एवं संदेशों के समकालीन महत्व के रेखांकन का भी अवसर होती है. जिन मूल्यों और आदर्शों के लिए भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने शहादत दी तथा डॉ राम मनोहर लोहिया आजीवन संघर्षरत रहे, उन पर आज पहले […]

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शहीदों और महान नेताओं की जयंती या पुण्यतिथि महज रस्म-अदायगी का मौका नहीं, बल्कि उनके जीवन, कार्यों एवं संदेशों के समकालीन महत्व के रेखांकन का भी अवसर होती है. जिन मूल्यों और आदर्शों के लिए भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने शहादत दी तथा डॉ राम मनोहर लोहिया आजीवन संघर्षरत रहे, उन पर आज पहले के किसी दौर से अधिक हमला है. समाजवादी सिद्धांतों के अनुगामी भगत सिंह और डॉ लोहिया ने इस धारा में अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से अप्रतिम योगदान दिया है. इस प्रस्तुति के माध्यम से हम उन्हें याद कर रहे हैं.
-उमेश कुमार, सचिव, झारखंड शोध संस्थान, देवघर
इं कलाब की कोई सूरत नहीं होती. यह तो विचारों में दहकता है. इसलिए, भगत सिंह देवघर या किसी क्षेत्र विशेष में स्थूल रूप से नहीं आकर भी, विचार-स्तर की बड़ी यात्रा कर गये. बिहार-बंगाल के युवाओं में वतन पर मर मिटने का जज्बा पैदा कर गये. भगत सिंह की इंकलाबी चेतना से यहां के युवा किस कदर प्रभावित थे, उसका पता तत्कालीन पुलिस की एक कार्रवाई से चलता है. अक्तूबर, 1927 को खुफिया विभाग के पटना मुख्यालय को खबर मिली थी कि दो क्रांतिकारी संथाल परगना जिलांतर्गत देवघर गये हैं, जिनके पास आग्नेयास्त्र पाये जा सकते हैं.
इस खबर के बाद खुफिया विभाग के एक तेज-तर्रार अधिकारी राय साहब नगेंद्रनाथ बागची को तुरंत देवघर रवाना किया गया. उन्होंने पता लगाया कि संदिग्ध युवकों में से एक जीवन कन्हाई पाल, ‘देवघर बोर्डिंग हाउस’ (राजेंद्र मित्रा बोर्डिंग हाउस, वर्तमान बैजू मंदिर, कृष्णा टाकिज के निकट) में ठहरे हुए हैं.
तफ्तीश के दौरान राय साहब नगेंद्रनाथ बागची ने जीवन कन्हाई पाल को देवघर की एक सड़क पर देखा. उन्होंने उसका पीछा किया और ‘देवघर बोर्डिंग हाउस’ तक पहुंच गये. उनके ठिकाने की शिनाख्त के बाद 19 अक्तूबर, 1927 की संध्या बागची साहब ने स्थानीय अनुमंडलाधिकारी राय बहादुर बी सरकार से एक तलाशी वारंट निर्गत कराया. दूसरे दिन यानी 20 अक्तूबर, 1927 की दोपहर में डिप्टी सुपरिटेंडेंट राय साहब राम आशीष सिंह के नेतृत्व में भारी पुलिस बल के साथ बोर्डिंग हाउस पर छापा मारा गया.
इसके पूर्व जीवन कन्हाई पाल को हिरासत में ले लिया गया. बोर्डिंग हाउस से पुलिस ने वीरेंद्रनाथ भट्टाचार्जी, सुरेंद्रनाथ भट्टाचार्जी तथा तेजेशचंद्र घोष नामक तीन क्रांतिकारियों को निम्नलिखित सामग्रियों के साथ गिरफ्तार किया- दो माउजर पिस्तौल, 82 जिंदा कारतूस, एक सांकेतिक पुस्तिका, भारी मात्रा में क्रांतिकारी साहित्य, सरकारी आचार संहिता के अनुसार, और कुछ आपत्तिजनक सामग्रियां.
इन सामग्रियों में श्री अरविंद लिखित ‘गीता’ पर लेख तथा ‘अर्ली लाइफ ऑफ डि-बैलश’ एवं ‘बांग्ला विप्लववाद’ भी. इन चीजों की बरामदगी से पुलिस-प्रशासन सकते में आ गया.
राय साहब बागची ने डीआइजी (खुफिया विभाग) के विशेष सहायक टीए डफ के पास एक टेलीग्राम पटना भेजा. टेलीग्राम पाकर डफ साहब 21 अक्तूबर को देवघर आये और बरामद सामग्रियों का निरीक्षण किया. उन्होंने सांकेतिक पुस्तिका पर विशेष ध्यान दिया, जिसमें अर्थहीन अनुक्रम में संख्याएं लिखी गयी थी. सांकेतिक पुस्तिका के 62 पृष्ठ लिखे हुए थे और बीच के कुछ पृष्ठ खाली थे. डफ साहब पुस्तिका को पटना ले गये, पर पढ़ने में असमर्थ रहे.
तब उन्होंने उसे बंगाल इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधिकारी मिस्टर राय के पास कोलकाता भेजा. बंगाल इंटेलिजेंस ब्यूरो पुस्तिका के संकेतों को पढ़ लिया. पता चला कि वह एक चातुर्यपूर्ण सांकेतिक भाषा थी, जिसमें 60 व्यक्तियों के नाम दर्ज थे और उनकी भावी इंकलाबी योजनाओं का वर्णन था. इस पुस्तिका के आधार पर 11 नवंबर, 1927 को पुलिस ने एक साथ चौदह स्थानों- जमशेदपुर, कोलकाता, 24 परगना, चटगांव, ढाका, कुमिल्ला, इलाहाबाद तथा अन्य स्थानों पर छापे मारे गये. कुल 30 छापे मारे गये और भारी मात्रा में विस्फोटक, विस्फोटक बनाने की नियमावली, क्रांतिकारी साहित्य और इंकलाब पैदा करनेवाले खत बरामद हुए. कुल 20 युवा गिरफ्तार हुए, जिन्होंने खुलासा किया कि जब काकोरी कांड (9 अगस्त, 1925) के बाद भगत सिंह का (हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन) मृत होने लगा था, तब बिहार-बंगाल के क्रांतिकारी युवाओं ने इसे नये सिरे से संगठित करने का प्रयास किया. इसमें सुरेंद्रनाथ भट्टाचार्य तथा वीरेंद्रनाथ भट्टाचार्य प्रमुख थे.
इन्होंने एसोसिएशन को तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसार, जुझारू बनाने का प्रयास किया. इसका मुख्यालय देवघर में बनाया गया. मधुसूदन छौराठ (राउत नगर के पास) एक कोठी ‘मन्मथ विला’ में एसोसिएशन गतिशील हुआ. एसोसिएशन का उद्देश्य ब्रिटिश सरकार से सशस्त्र विद्रोह कर उसे भारत छोड़ने पर विवश करना था. यह संस्था असम से पंजाब तक फैली थी. जब साल 1928 में पंजाब, संयुक्त प्रांत, आगरा और अवध, बिहार और ओड़िशा के क्रांतिकारी गुप्त संगठनों के सदस्य भगत सिंह, सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद आदि ने ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन’ का गठन किया, तब देवघर में कार्यरत संगठन को इसमें मिला लिया गया.
छापे के बाद पकड़े गये युवकों को दुमका जेल में रखा गया. जिनकी पहचान के लिए लखनऊ के ‘काकोरी कांड’ के सरकारी गवाह बनबारी लाल को यहां लाया गया. दुमका के पहचान परेड में बनवारी लाल ने निडरता से कह दिया कि वह इनमें से किसी को नहीं पहचानता और वह केवल ऐसे बहादुर इंकलाबियों के दर्शन के लिए आया था!
पुलिस के चेहरे फक्क हो गये, जबकि काराबंद कैदियों की छाती गर्व से फूल उठी. इस क्रम में ‘देवघर षड्यंत्र मुकदमा’ अस्तित्व में आया और दुमका सत्र न्यायालय में यह 2 अप्रैल, 1928 से आरंभ होकर 11 जुलाई, 1928 तक चला. खुद डॉ राजेंद्र प्रसाद क्रांतिकारियों की पैरवी के लिए देवघर और दुमका आये. पटना उच्च न्यायालय में यह मुकदमा 2 जनवरी, 1929 से 11 जनवरी, 1929 तक चला. दस युवकों को आठ वर्ष, दो को सात वर्ष, चार को पांच वर्ष और चार को तीन साल की सजा हुई. पर, इनका इंकलाब हमेशा बुलंद रहा.
जहां तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे सांप्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है. इस समय हिंदुस्तान के नेताओं में ऐसी लीद की है कि चुप ही भली. वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का बीड़ा उठाया था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज-स्वराज’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मांधता के बहाव में बह चले हैं. सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है और सांप्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे. ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है.
दूसरे सज्जन जो सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, वे अखबार वाले हैं. पत्रकारिता का व्यवसाय, जो किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था, आज बहुत ही गंदा हो गया है. ये लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर- फुटौव्वल करवाते हैं. एक दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं. ऐसे लेखक, जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शांत रहा हो, बहुत कम हैं.
अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है. यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि भारत का बनेगा क्या?
(यह लेख शहीदे आजम भगत सिंह ने 1924 में लिखा था, जो ‘किरती’ में प्रकाशित किया गया था. भगत सिंह और उनके साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज से इसे लिया गया है, जिसे लखनऊ के राहुल फाउंडेशन ने प्रकाशित किया है. उसी में से कुछ अंश, साभार)

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