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अनैतिक राजनीति में भविष्य के संकेत

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अरविंद मोहन वरिष्ठ पत्रकार बुधवार शाम से गुरुवार सवा दस बजे तक बिहार की राजनीति और शासन में जो कुछ हुआ वह प्रदेश और देश की राजनीति के हिसाब से बहुत महत्वपूर्ण तो है ही, देश के लगभग सभी बड़े दलों और नेताओं के राजनैतिक भविष्य को सीधे प्रभावित करने वाला है. और अब तो […]

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अरविंद मोहन
वरिष्ठ पत्रकार
बुधवार शाम से गुरुवार सवा दस बजे तक बिहार की राजनीति और शासन में जो कुछ हुआ वह प्रदेश और देश की राजनीति के हिसाब से बहुत महत्वपूर्ण तो है ही, देश के लगभग सभी बड़े दलों और नेताओं के राजनैतिक भविष्य को सीधे प्रभावित करने वाला है. और अब तो राहुल गांधी ने भी सार्वजनिक तौर पर स्वीकार कर लिया है कि उन्हें इस घटनाक्रम का अंदाजा तीन चार महीने से था. नीतीश कुमार और भाजपा के नेताओं ने तो राज्यपाल की पटना में उपस्थिति से लेकर भाजपा विधायकों के भोजन तक का इंतजाम कर लिया था. सो यह स्वाभाविक सवाल बनता है कि राहुल या कांग्रेस ने यह जानकर क्या किया. शायद उनके वश में ज्यादा कुछ था नहीं क्योंकि अगर वीरभद्र समेत कांग्रेस के कई लोग एफआइआर होने के बावजूद अगर पद पर है तो वह किस मुंह से तेजस्वी से इस्तीफा मांगती.
पर, लालू जी के वश में था कि वह नीतीश अर्थात छोटे भाई की जिद या रणनीति जानकर तेजस्वी को कुछ समय के लिये सरकार से हटा लेते और संगठन के काम में लगा लेते. इससे नीतीश भी ज्यादा कुछ करने की स्थिति में न होते और भाजपा की मुहिम भी बेमानी हो जाती. भाजपा का खेल सफल रहा और नरेंद्र मोदी या सुशील मोदी में से किसे ज्यादा बड़ा श्रेय दिया जाए यह बहस हो सकती है. पर, यह नीतीश की राजनीति के ढलान की शुरुआत हो सकती है. नरेंद्र मोदी और अमित शाह वाजपेयी-आडवाणी नहीं हैं, जो बड़ी पार्टी होकर भी भाजपा को आपकी सेवा में लगाये रखेंगे.
इस खेल में नैतिकता और सिद्धांत की बात करना बेमानी है क्योंकि उसमें हर प्रमुख नेता का आचरण राजनीति की मर्यादा को कम करने वाला ही है. नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार बाकी सब बातों को पीछे करके इमेज की राजनीति करना चाहते हैं.
मोदी जी ने उसी से कांग्रेस और भाजपा विरोधी सबको ही नहीं आडवाणी समेत भाजपा के अपने प्रतिद्वंद्वियों को पीट दिया है. नीतीश कुमार ने भी छवि के सारे ही जूनियर पार्टनर होकर भी भाजपा को ही नहीं इस बार लालू यादव को भी पीछे बैठने के लिये मजबूर किया. पर कम समय में ही उनको यह एहसास हो गया कि वे देश तो क्या प्रदेश की राजनीति भी अपने मनमुताबिक नहीं चला सकते. असल में मोदी और नीतीश का फर्क भी यह है. मोदी के पीछे संघ और संगठन की ताकत है. नीतीश कुमार ने इतने लंबे राजनैतिक कैरियर में न संगठन बनाया, न उसका आदर किया है.
सत्रह साल भाजपा और चार साल राजद के सहारे सरकार चलाकर वे काफी हद तक परजीवी जैसे बन गये. राजद से असंतुष्ट हुए तो उन्हें भाजपा का सहारा लेने के अलावा कुछ और नहीं सूझा. भाजपा को अपना संभावित प्रतिद्वंद्वी इतनी कम कीमत में मिल जाए तो उसके लिये तो यह जीत ही जीत है. नीतीश का इस्तेमाल 2019 के चुनाव में ही नहीं गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ विधान सभा चुनावों में पटेल और कुर्मी वोटों को लुभाने के लिये होगा. यह काम विपक्ष उत्तरप्रदेश में नहीं करा पाया और इसके लिये नीतीश दुखी भी थे.
पर व्यावहारिक राजनीति का एक दूसरा हिसाब सामान्य अंकगणित का भी काम करता है. यह हिसाब सामाजिक समूहों और वोटों के जोड़-घटाव का है. और अगर नरेंद्र मोदी ने 2014 मेँ इमेज की राजनीति से पुराने सारे समीकरण ध्वस्त कर दिये और क्षेत्रीय दलों की राजनीति तथा गठबंधन राजनीति के युग का अंत कर दिया तो उसके ठीक बाद हुए बिहार विधान सभा चुनाव में सारा जोर लगाकर भी वे लालू-नीतीश के एक होने से बने सामान्य अंकगणित को पलट नहीं पाए और बुरी तरह हारे थे.
और आज नीतीश अगर पाला बदल चुके हैं तो यह लालू यादव के लिये एक अवसर हो सकता है. राजद के काफी लोग लालू परिवार की राजनीति से दुखी रहे हैं तो जदयू के काफी लोग भाजपा से दोस्ती नहीं पचा सकते. संभव है जदयू के कई लोग उससे अलग हों. नीतीश अगर भाजपा के साथ जाने की जगह महागठबंधन में ही हिसाब लगवाते तो संभव था राजद बिखर जाता. अब लालू जी एक संकट से बचे हैं तो आगे उनके लिये कई विकल्प होंगे-बशर्ते वे सावधानी से अपने पत्ते चलें.
तब लालू यादव के लिये खेल आसान हो जाएगा. लालू ने बहुत परिवारवाद किया है, भ्रष्टाचार के भी आरोप लगते रहे हैं, लेकिन उन्होने हर बड़े अवसर पर सही राजनैतिक फैसला किया है. इस बार भी अगर वे अगले दस दिन अपनी पार्टी को एक रख पाये तो आगे की राजनीति उनके एकदम अनुकूल हो जाएगी. क्योंकि फिर यादव मुसलमान ही नहीं, दलितों और सेकुलर मतों का एक बड़ा हिस्सा राजद, कांग्रेस और बसपा जैसे संभावित दूसरे गठबंधन की ओर आसानी से आ जाएगा. नीतीश ने आरजेडी को तोड़ने और भाजपा के बाहरी सहयोग से सरकार चलाने जैसे हठकंडे भी न अपनाकर उनका काम आसान कर दिया है. पर नीतीश न सधे, तब मायावती और कांग्रेस सध जाएंगे, यह सवाल भी अपनी जगह है.

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