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EXCLUSIVE: बनारसी साड़ी को लगी नोटबंदी और कोरोना की काली नजर, पीएम मोदी के बनारस में क्यों रो रहे बुनकर

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UP Chunav 2022, Ground Report : नारों में बदलती काशी में हो रहे विधानसभा चुनावों में बुनकरों के मुद्दे पूरी तरह से गायब हैं. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बारे में जब हमने बुनकरों से पूछा तो मदनपूरा इलाके रहने वाले बुनकरों ने बताया कि हम कमजोर लोग की कौन सुनता है.

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UP Chunav 2022: ‘जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा’- बनारस संत कबीरदास की नगरी है. कबीरदास अपनी जिंदगी बसर करने के लिए बुनाई का काम करते थे. वैसे तो कबीरदास को गये हुए कई दशक बीत गए पर बुनकरों की जिंदगी अभी भी रोटी कपड़ा और मकान की बुनियादी जरूरतों से जूझ रही है. महंगी से महंगी साड़ी बुनने में अपनी हड्डियां गलाने वाले मजदूरों को उनके पसीने भर की भी कमाई नहीं मिलती. वहीं उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान बनारस के तमाम मुद्दों के बीच बुनकरों की समस्याएं पूरी तरह से गायब है. ऐसे में प्रभात खबर की टीम पहुंची बनारसी साड़ी बनाने वाले बुनकरों के पास और जाना उनका हाल. देखिए हमारी स्पेशल रिपोर्ट

“आज पूरे हिंदुस्तान भर में कोई महिला ऐसी नहीं होगी… जिसके कान में ‘बनारसी साड़ी’ ये शब्द न पड़ा हो. हमारे पूर्वजों ने इस काम को जिस साधना के साथ किया, जिस पवित्रता के साथ किया…कि हर मां अपनी बेटी की शादी जो जीवन का सबसे अमूल्य अवसर होता है, उसके मन का एक सपना रहता है कि बेटी को शादी में बनारसी साड़ी पहनाए. यह कितनी बड़ी विरासत हमारे पास है. न हमें कोई मार्केटिंग करने की जरूरत है … आप कल्पना कर सकते हैं कि भारत की सवा सौ करोड़ जनसंख्या है. आने वाले कुछ वर्षों में कम से कम 20 करोड़ से ज्यादा बेटियों की शादी होगी. मतलब 20 करोड़ साड़ी का मार्केट है….आपने कभी सोचा है कि इतना बड़ा मार्केट आपके लिए वेट कर रहा है…” ये शब्द हैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जो उन्होंने 13 नवंबर 2014 को ट्रेड फैसिलिटी सेंटर की घोषणा पर दिए थे. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बनारस के सांसद बनने के बाद लगा बुनकरों की समस्या खत्म हो जाएगी पर जमीन पर ऐसा हो ना सका.

बनारस के मदनपुरा की तंग गलियों में करघों की कड़कती आवाज़ के बीच कबीर अपने काम में व्यस्त हैं. वह बचपन से ईंट-सीमेंट से बने उसी तीन मंज़िला घर में बुनाई का काम करते रहे हैं जो कई पीढ़ियों का गवाह है, क्योंकि उनके परिवार में बनारसी साड़ी बुनने की परंपरा रही है. उनसे बात करने पर पता चला कि राहत योजनाएं यहां छलावा से अधिक कुछ नहीं हैं, आज भी यहां 250 से 350 रुपए मजदूरी पर बुनकर 12 घंटे खट रहा है. कईयों ने बुनकरी से तौबा कर दूसरा काम-धंधा अपना लिया है.

नारों में बदलती काशी में हो रहे विधानसभा चुनावों में बुनकरों के मुद्दे पूरी तरह से गायब हैं. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बारें में जब हमने बुनकरों से पूछा तो मदनपूरा इलाकें रहने वाले बुनकरों ने बताया कि हम कमजोर लोग की कौन सुनता है. वहीं यहां के बुनकरों ने बताया कि काम आगे से आ ही नहीं रहा है तो हमें कहां से मिलेगा. उन्होंने यह भी बताया 30-40 साल पहले जो हाल था वहीं हाल हमारा अभी भी है.

2014 को पहले दौरे पर बड़ा लालपुर में ट्रेड फैसिलिटी सेंटर व टेक्सटाइल सेंटर की सौगात से बनारस के विकास को गति देने की शुरुआत की थी. पर इस सेंटर का असर बुनकरों के जिंदगी पर कुछ भी होता हुआ नहीं दिखता है. एक अनुमान के मुताबिक पिछले वर्ष तक इस उद्योग से बनारस में 6 लाख लोग जुड़े थे, जिसमें बड़ी संख्या मुस्लिमों की थी. वहीं साल 2007 के सर्वे के मुताबिक़ बनारस में तकरीबन 5,255 छोटी बड़ी इकाइयां थीं. इनमें तक़रीबन 20 लाख लोग काम करते थे. इनके जरिए करीब 7500 करोड़ का कारोबार होता था. इनमें से करीब 2300 इकाइयां पूरी तरह बंद हो चुकी हैं और बाकी बची भी बंद होने की कगार पर हैं.

बुनकरों ने यह भी बताया कि पहले नोटबंदी और फिर कोरोना ने हमारी कमर तोड़ दी. लाकॉडाउन ने के बाद कई बुनकर यहां से दूसरे प्रदेशों में काम ढूढने चले गए और कई सूरत के बड़े कपड़े कारखानों में काम करने लगे. इसका असर यह हुआ कि बेहद सस्ती सूरत की साड़ी ने करीब-करीब पूरे बाजार पर ही कब्जा जमा लिया.सूरत की नकली बनारसी साड़ी की बढ़ती मांग के चलते पहले से ही बनारसी बुनकर भुखमरी के कगार पर पहुंच गए. आज हालत यह है कि बनारस के बाजार में ही 90 फीसदी सूरत की नकली बनारसी साड़ी भरी पड़ी है.

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