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उत्पीड़ित समाज को संगठित कर शिवराम से बने दिशोम गुरु, इस आंदोलन की सफलता ने तैयार कर दी जमीन

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अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध में पीड़ित जनजातीय समाज को एकजुट कर अपने क्षेत्र गोला, पेटरवार व बोकारो इलाके में सातवें दशक में शिवराम मांझी (पहले का नाम) काफी लोकप्रिय हुए.

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दक्षिण बिहार के सर्वाधिक उत्पीड़ित जनजातीय समुदाय के भाग्य विधाता के रूप में सातवें दशक में उभरे शिबू सोरेन आज जब अपने 79 वें वसंत में प्रवेश कर गये हैं, तो उनके संघर्ष और सवाल, सपने और चिंता एक बार फिर प्रासंगिक हो उठे हैं. शिबू सोरेन की अपनी माटी व समुदाय के प्रति अटूट प्रेम, क्रांतिकारी विचार व सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ लोगों को संगठित करने की अद्भुत क्षमता के कारण वह गुरुजी बन कर उभरे.

अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध में पीड़ित जनजातीय समाज को एकजुट कर अपने क्षेत्र गोला, पेटरवार व बोकारो इलाके में सातवें दशक में शिवराम मांझी (पहले का नाम) काफी लोकप्रिय हुए. उस समय आदिवासियों की जमीन औने-पौने दाम में लेकर उन्हें भूमिहीन बना दिया जाता था या बंधुआ मजदूर बना कर रखा जाता था. गुरुजी ने ऐसे पीड़ित समुदाय को एकजुट कर अपने हक के प्रति जागरूक किया. धनकटनी आंदोलन चलाया. इस मुहिम की सफलता ने ही जैसे उनके आगामी आंदोलन की जमीन तैयार कर दी.

रात्रि पाठशाला से समानांतर सरकार तक : बाद के दिनों में धनबाद के प्रतिष्ठित अधिवक्ता और समाजसेवी के रूप में लोकप्रिय बिनोद बिहारी महतो व मजदूर नेता के रूप में उभरे एके राय ने शिबू सोरेन के इसी पोटेंशियल पार्ट का रचनात्मक इस्तेमाल किया. हजारीबाग जेल में बिनोद बिहारी महतो से तथा झरिया कोयलांचल में एके राय से उनकी मुलाकात ने उनके व्यक्तित्व को और विस्तार दिया. हजारीबाग जेल से उन्हें धनबाद लाया गया. यह घटना गुरुजी के जीवन का टर्निंग प्वाइंट रहा.

गुरुजी ने उसके बाद टुंडी के पोखरिया में आश्रम बना कर रात्रि पाठशाला चलाते हुए समानांतर सरकार भी बनायी. लोगों को सामूहिक खेती के लिए प्रेरित किया. महुआ शराब व हड़िया के खिलाफ लोगों को जागरूक किया.

पोखरिया बन गयी थी धुरी : महाजनों व सूदखोरों के खिलाफ सारी रणनीति पोखरिया के शिबू आश्रम में बनायी जाती थी. पुलिस के अलावा गांव की प्रतिक्रियावादी ताकतों की आंखों की वह किरकिरी बन चुके थे. लोकप्रियता के कारण प्रशासन और जमींदार उनका कुछ नहीं बिगाड़ सके.

आदिवासी समाज में वह ईश्वर प्रदत्त शक्तिशाली पुरुष के रूप में ख्यात हो चुके थे. उनका पैर छूने के लिए आदिवासी समाज के लोगों में होड़ मच जाती थी. इधर, सिंदरी से विधायक बने एके राय, बिनोद बाबू व शिबू सोरेन की तिकड़ी ने गांवों में साहूकार-जमींदार के साथ-साथ कोलियरी क्षेत्र में प्रबंधन-माफिया व सत्ता के गठजोड़ के खिलाफ लोगों को गोलबंद किया.

शिथिल हुई मांग को किया तेज, बनाया झामुमो

जयपाल सिंह मुंडा की झारखंड पार्टी के 1964 में कांग्रेस में विलय के बाद अलग झारखंड प्रांत की मांग शिथिल हो चुकी थी. तीनों दिग्गजों ने मिल कर उस मांग को पुनर्जीवित किया. इसके लिए चार फरवरी 1973 को धनबाद के गोल्फ ग्राउंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया. बिनोद बिहारी महतो संस्थापक अध्यक्ष और शिबू सोरेन महासचिव बनाये गये. झामुमो बनने के बाद आदिवासियों के अलावा अन्य जाति के लोग भी झामुमो से जुड़ने लगे और उनकी मांग का समर्थन किया. फिर आपात काल के बाद बिहार विधानसभा का चुनाव आया. गुरुजी 1977 में टुंडी से लड़े, पर जनसंघ के सत्यनारायण दुदानी के हाथों हार गये. इसके बाद वह 1980 में हुए लोकसभा चुनाव में दुमका से चुनाव लड़े और जीते भी.

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