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आत्म-साधना: परमपुरुष के पास जाने नहीं देता आपके ज्ञान का अहंकार, जानें गौर करने वाली बात

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हम जानते हैं कि हिमालय पर्वत श्रृंखला उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक कितनी दूर तक फैली हुई है. प्रश्न उठता है, क्या मानव मन को मापा जा सकता है? यह कभी संभव नहीं हो पायेगा? हम बार-बार प्रयास करें.

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जब मनुष्य छोटी या बड़ी, किसी भी चीज का निर्णय करना चाहता है, तो वह कहीं-न-कहीं गलतियां कर बैठता है. स्वाभाविक है और अकारण नहीं है. मानव मस्तिष्क सीमित है और निर्णय करना असीमित दायरे में आता है. ऐसे में सही निर्णय कैसे हो सकता है ? मनुष्य जो सोचता है या जो ज्ञान वह बाहरी दुनिया से प्राप्त कर उस पर विचार करता है, उसे ‘चिंतन’ कहा जाता है, गौर करने वाली बात है कि निर्णय का पैमाना ही पर्याप्त नहीं है. हम माप कर बता सकते हैं कि नदी का तल कितना फुट गहरा है, लेकिन यदि हम उसी पैमाने से समुद्र की गहरायी नापने जायें, तो क्या यह संभव हो पायेगा? फिर भी मनुष्य हमेशा चीजों को मापने का प्रयास करता रहता है, कोई चीज भले ही बहुत बड़ी हो, पर वह माप के दायरे में आ जाये, तो हम उसे विशाल कहते हैं, क्योंकि हिमालय विशाल है, फिर भी उसे मापा जा सकता है.

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हिमालय पर्वत श्रृंखला…

हम जानते हैं कि हिमालय पर्वत श्रृंखला उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक कितनी दूर तक फैली हुई है. प्रश्न उठता है, क्या मानव मन को मापा जा सकता है? यह कभी संभव नहीं हो पायेगा? हम बार-बार प्रयास करें, फिर भी निराशा ही हाथ लगेगी, तो हम मानव मन को कहते हैं वृहत, क्योंकि मन को माप नहीं सकते और उस वृहत मन से भी मापने की कोशिश की जाये, तो भी परमपुरुष को नहीं माप सकते. निराशा ही हाथ आयेगी. इसलिए परमपुरुष को कहते हैं बृहतर, अनंत. सर्वोच्च सत्ता को मापने का असफल प्रयास करने के बाद मन यह कहकर लौट जाता है कि ‘मैं उसे मापने में असमर्थ हूं.’ इसलिए उस सर्वोच्च सत्ता, परमपुरुष या ईश्वर को मापा ही नहीं जा सकता, वह सत्ता इतना अद्भुत है कि जो भी उसके निकट जाता है, वह उसमें समा जाता है, भक्त तो बस शरण में जाने की इच्छा जताता है.

इच्छा जताने भर से…

इच्छा जताने भर से ही उसके रास्ते खुल जाते हैं, परमसत्ता का सामीप्य आनंद से भरा होता है और उसके पास जाने की प्रबल इच्छा उस परम सत्ता तक पहुंचने का मार्ग है. इसे ही आनंद मार्ग कहते हैं. इस मार्ग पर चलने वाले को वह अपनी गोद बिठा लेता है, फिर वह भक्त अपनी पहचान खो देता है और उसी में लीन हो जाता है. उस परमसत्ता को ‘विपुल’ भी कहा गया है. विपुल के रूप में उन्हें ब्रह्मा भी कहा जाता है. यदि उनमें दूसरों को अपने समान महान बनाने का गुण न होता तो हम उन्हें कभी वृहतर या ब्रह्मा नहीं कहते, इसलिए जो भक्त उन पर ध्यान करते हैं, वह उसे महान बनाने के लिए भी मजबूर हो जाते हैं.

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अपने भक्तों को महान बनाकर…

अपने भक्तों को महान बनाकर वह भी अपनी पवित्रता को कायम रखते हैं, इसीलिए भक्त उन्हें दिव्यम भी कहते हैं. इसका अर्थ दिव्य या दैवीय शक्तियों वाला. दैवीय शक्ति क्या है? हम अपने दैनिक जीवन में जिस भौतिक बल का उपयोग करते हैं, उसे ‘ऊर्जा’ के रूप में जाना जाता है, जैसे विद्युत ऊर्जा, यांत्रिक ऊर्जा वगैरह. यह ऊर्जा एक भौतिक शक्ति के अलावा और कुछ नहीं है और जब तक बुद्धि द्वारा निर्देशित न हो, स्वतंत्र रूप से यह काम नहीं कर सकती. बादलों में बनने वाली बिजली बर्बाद हो जाती है, क्योंकि मनुष्य जैसा कोई भी बौद्धिक प्राणी उसका उपयोग नहीं करता है, जबकि बिजलीघरों चाली बिजली का उपयोग आसानी से किया जाता है.

मानव बुद्धि की उपज…

इसका कारण है कि यह मानव बुद्धि की उपज है, इसीलिए हम कहते हैं कि भौतिक ऊर्जा तब तक सेवा प्रदान नहीं कर सकती जब तक कि किसी बौद्धिक शक्ति उस पर लागू नहीं होती. शारीरिक बल एक अस्थायी शक्ति है. भौतिक बल और दैवीय बल के बीच बुनियादी अंतर से जो वाकिफ नहीं है, वे अक्सर टिप्पणी करते हैं कि सब कुछ प्रकृति से आया है. लेकिन यह कैसे संभव है? प्रकृति के पास अपनी बुद्धि नहीं है, बल्कि वह केवल तरीका है जिससे भौतिक शक्ति स्वयं प्रकट हुई है. वह इकाई जो महान या बृहतर है, यही दैवीय शक्ति है, जो भौतिक शक्ति का सीधा मार्गदर्शन करती है.

(आनंदमार्ग के संस्थापक श्रीश्री आनंदमूर्ति जी के संदेशों पर आधारित लेख का संकलन)

प्रस्तुति : दिव्यचेनानंद अवधूत

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