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पंकज त्रिपाठी जी ने अपना वादा नहीं निभाया… जानिए ऐसा क्यों कहा आजमगढ़ फिल्म के निर्देशक कमलेश मिश्रा ने

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राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता फिल्मकार कमलेश मिश्रा ने अपनी स्ट्रगल जर्नी को लेकर कहा, मंजिल से महत्वपूर्ण यात्रा होती है, तो यात्रा करते हुए कठिनाइयों को भी स्वीकारना होगा. अच्छा वक्त भी रहा है. मेरी कलम को बड़ों का आशीर्वाद भी मिलता रहा है.

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राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता फिल्मकार कमलेश मिश्रा की फिल्म आजमगढ़ इन-दिनों ओटीटी प्लेटफार्म पर स्ट्रीम हो रही है. वह इस फिल्म के निर्देशक, लेखक और सह निर्माता हैं. आंतकवाद के मुद्दे पर बनी इस फिल्म, इसकी मेकिंग और जुड़े विवाद पर उर्मिला कोरी के साथ हुई बातचीत…

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आपकी फिल्म आजमगढ़ को किस तरह का रिस्पांस आपको मिला है?

मेनस्ट्रीम मीडिया ने इस फिल्म पर बहुत छापा नहीं है, लेकिन सोशल मीडिया के जरिए दर्शकों का अच्छा रिस्पांस फ़िल्म को लेकर देखने को मिल रहा है. फ़िल्म के क्लाइमैक्स की तारीफ हो रही है. कुछ लोगों को कुछ चीज़ें पसंद नहीं आयी हैं, तो अगली बार कोशिश और अच्छा करने की रहेगी कि उन गलतियों को ना दोहराया जाए.

पंकज त्रिपाठी इस फिल्म का हिस्सा कैसे बने?

2007 के आसपास की बात है. उस वक़्त मैं एक फ़िल्म परिंदा बना रहा था. किसी ने मुझे ओमकारा फ़िल्म की एक क्लिप दिखायी, जिसमें पंकज त्रिपाठी का दस सेकेंड का कुछ किरदार था. मुझे उनमें स्पार्क नजर आया. उनको ढूंढा, मालूम हुआ कि ये भी मेरी तरह बिहार के गोपालगंज से हैं. जब मुलाक़ात हुई, तो एक और कनेक्शन हमारे बीच निकल आया. मालूम पड़ा कि उनके दादाजी मेरे टीचर रहे हैं. मैंने उन्हें कहा कि मैं अपनी फ़िल्म में आपको एक महत्वपूर्ण भूमिका देना चाहता हूं. यह सुनकर वह एकदम से उछल पड़े थे, क्योंकि उस वक्त उनकी कोई पहचान नहीं थी. यह 2007 की बात होगी. वह फ़िल्म बन नहीं पायी लेकिन हमारी दोस्ती हो गयी. आजमगढ़ की स्क्रिप्ट जब मैंने लिखी, तो मैंने उन्हें अशरफ का किरदार ऑफर किया, जो खलनायक है. उन्हें कहानी और किरदार पसंद आया, जिसके बाद वह फिल्म से जुड़ गए.

फोकस टीवी नया ओटीटी प्लेटफार्म है, क्या किसी पॉपुलर ओटीटी प्लेटफार्म को आपने अप्रोच नहीं किया था क्योंकि इससे फिल्म ज्यादा लोगों तक पहुंच पाती थी?

हमारी फिल्म को बनने में थोड़ा ज्यादा समय लग गया. नए लोग थे, तो फाइनेंस की दिक्कत हुई.2011 में इस फिल्म की शूटिंग शुरू हुई थी. और फिल्म को बनने में 2015 हो गया. हम उस साल ही रिलीज कर देते थे, लेकिन उसके बाद तीन साल मुझे पंकज जी का इंतजार डबिंग के लिए करना पड़ा. उन्होंने वादा किया था कि डबिंग कर दूंगा,लेकिन आज कल करते-करते तीन साल निकल गए.उन्होंने अपना वादा नहीं निभाया बल्कि 2019 के जनवरी में उन्होंने मुझे साफ कह दिया कि मैं इस फिल्म से अब किसी और तरह से जुड़ना नहीं चाहता हूं. मैंने उसको सहज भाव से स्वीकार किया,क्योंकि उनको सफलता मिलनी शुरू हो गयी थी, लेकिन उसका नुकसान ये हुआ कि किसी भी बड़े प्लेटफार्म ने इस फिल्म को रिलीज करने को मना कर दिया, क्योंकि वह फिल्म से तभी जुड़ते थे, अगर फिल्म का प्रमोशन पंकज जी करते थे.ये वजह रही कि मैं इसे नए ओटीटी पर रिलीज करने को मजबूर हुआ.

पंकज त्रिपाठी की डबिंग फिर किस आर्टिस्ट से आपने करवायी?

अगर हम किसी और एक्टर से डबिंग करवाते तो शायद फंस सकते थे. वो बोल सकते थे कि हमारी इजाजत के बिना आपने हमारी डबिंग किसी और एक्टर से कैसे करवा ली.सिंक साउंड में फिल्म की शूटिंग हुई है. पंकज जी की आवाज ठीक ठाक रिकॉर्ड हुई थी, तो हमने उसका वैसे ही इस्तेमाल कर लिया, बाकी कलाकारों की डबिंग करवायी.

खबरें है कि पहले आप इस फिल्म को लघु फिल्म के तौर पर बनायी थी, बाद में फिल्म की लम्बाई बढ़ाई गयी है ?

आजमगढ़ पहले दिन से ही फीचर फिल्म के तौर पर बनने वाली थी. पहले इसका नाम जिहाद था, लेकिन वो टाइटल हमें नहीं मिला. हमने फिर आजमगढ़ ही रखा. हमारी फिल्म शुरुआत से ही 80 से 90 मिनट की थी. मैंने उसे बढ़ाया नहीं है.पंकज जी सहित सभी आर्टिस्ट ने इस फिल्म को फीचर के तौर पर ही पढ़ा था. फिल्म सेंसर हुई फीचर श्रेणी में ही.सेंसर जब हुई थी, तो मैंने खुद पंकज जी को इसकी खबर मैसेज पर दिया था और उन्होने शुक्रिया लिखा था. 2011 में यह फिल्म फ्लोर पर गयी है. उस वक्त तो शॉर्ट फिल्मों को लेकर लोगों को क्रेज भी नहीं था, तो मैं शॉर्ट फिल्म क्यों बनाऊंगा.

गोपालगंज से बॉलीवुड की जर्नी कैसे एक हुई?

मैं गोपालगंज से हूं. बिहार से ग्रेजुएशन करने के बाद दिल्ली सिविल सर्विसेज की तैयारी के लिए गया, दो बार इंटरव्यू तक पहुंचा, लेकिन नहीं हो पाया. उसी बीच मेरा रुझान पत्रकारिता से हो गया. मैंने प्रिंट पत्रकारिता से अपनी शुरुआत की. उसके बाद टेलीविजन न्यूज़ का दौर शुरू हो गया. आंखों देखी एक शो था, जिसे मैंने कुछ सालों संभाला. मुझे न्यूज चैनल का हो हल्ला जम नहीं रहा था, तो मैं न्यूज में ना जाकर फीचर में चला गया. मैंने किरण बेदी के साथ मिलकर साहसिक महिलाओं पर एक शो बनाया, जिसे वो एंकर करती थी. उसी दौरान टेलीविजन के कुछ शो मैंने असिस्टट किए. मुझे लगा मैं फिक्शन कर सकता हूं. उसके बाद मैंने मुंबई आने का फैसला किया. 2007 में मैं फिर मुंबई आ गया. पंकज त्रिपाठी के साथ वाली परिंदा फिल्म नहीं बनी. एक शॉर्ट फिल्म किताब बनायी. 100 से ज्यादा इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में वह फिल्म गयी और तीस से पैंतीस अवार्ड को भी जीता, जिससे मेरा हौंसला बढ़ा कि मेरे क्राफ्ट को लोग स्वीकार करेंगे. उसके बाद मधुबनी मेरी डॉक्यूमेंट्री फिल्म मधुबनी द स्टेशन ऑफ़ कलर्स को नेशनल अवार्ड मिला. उसके बाद फिल्म आजमगढ़ हुई. फिलहाल दो और फिल्मों पर काम कर रहा हूं. एक फिल्म का नाम एक पैर का जूता है और दूसरी किरण 12 वीं पास है.

2007 से आप इंडस्ट्री में काम कर रहे हैं पहली फिल्म बनाने के काफी वक्त लग गया क्या कभी हताश भी हुए?

मंजिल से महत्वपूर्ण यात्रा होती है, तो यात्रा करते हुए कठिनाइयों को भी स्वीकारना होगा. अच्छा वक्त भी रहा है. मेरी कलम को बड़ों का आशीर्वाद भी मिलता रहा है. परम आदरणीय अटल बिहारी जी ने मेरी डॉक्यूमेंट्री फिल्म रहिमन पानी को देखकर कहा था कि इससे अच्छी स्क्रिप्ट और फिल्म मैंने अपनी लाइफ में नहीं देखी है. मुझे सम्मानित भी किया था. बेटी बचाओ स्लोगन मैंने ही लिखा है, पहले सेव द गर्ल चाइल्ड आता था. मुझे उसका हिंदी अनुवाद करने को कहा गया था, लेकिन मैंने साफ कह दिया कि अनुवाद से वह भाव नहीं आएगा. किसी की लड़की की चिंता किसी को नहीं होगी अपनी बेटी की सभी को होगी इसलिए लड़की से अच्छा है कि हम बेटी बचाओ लिखें. कईयों को पसंद नहीं आया था, लेकिन जब कैंपेन शुरू हुआ, तो बहुत हिट हो गया.

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