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Mauni Amavasya 2023: मौन-साधना से आंतरिक शक्तियों का होता है जागरण

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Mauni Amavasya 2023: हर साल माघ मास के कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि को मौनी अमावस्या मनायी जाती है. धर्म ग्रंथों में इस तिथि पर स्नान और दान का विशेष महत्व बताया गया है. यह तिथि द्वापर युग की प्रारंभ तिथि भी मानी गयी है

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सलिल पांडेय, धर्म व अध्यात्म विशेषज्ञ : हर साल माघ मास के कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि को मौनी अमावस्या मनायी जाती है. धर्म ग्रंथों में इस तिथि पर स्नान और दान का विशेष महत्व बताया गया है. यह तिथि द्वापर युग की प्रारंभ तिथि भी मानी गयी है. वहीं त्रिकालदर्शी ऋषियों-मुनियों ने प्राकृतिक शक्ति और ऊर्जा संचय की दृष्टि से अमावस्या तिथि को सर्वाधिक उपयोगी मानकर इसकी महत्ता पर विशेष जोर दिया है.

वाधिदेव महादेव का तीसरा नेत्र इसीलिए जागृत है, क्योंकि वे समाधि लगाते हैं. जब साधक लौकिक नेत्र बंद करता है, तो पारलौकिक नेत्र स्वतः जागृत होने लगता है. इसीलिए पद्मपुराण के उत्तर खंड तथा नारदपुराण के उत्तरभाग सहित अन्य पुराणों में माघ महीने की महिमा विविध कथाओं के माध्यम से वर्णित है. इस महीने में ऊषाकाल यानी ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करना विविध पापों से मुक्ति का उपाय बताया गया है. पद्मपुराण में ‘माघमास के स्नान तथा व्रत से सुव्रत को दिव्यलोक की प्राप्ति’ नामक अध्याय में एक धर्मात्मा तथा ज्ञानी महापुरुष द्वारा किये गये अधम कार्यों से लगे पाप से मिली मुक्ति और दिव्यलोक की प्राप्ति की कथा कही गयी है. वास्तव में मनुष्य के सर्वाधिक बड़े पाप पर जब ऋषियों ने दृष्टि डाली, तो उन्हें काम, क्रोध, मद, मोह, आलस्य, ईर्ष्या-द्वेष ही ज्यादे बड़े पाप प्रतीत हुए. इन पापों में फंसकर ही मनुष्य अधम से अधम श्रेणी कार्य कर बैठता है.

सृष्टि की शुरुआत ब्रह्मा के मानस पुत्र मनु-शतरूपा से हुई. इस चिंतन पर गहराई से दृष्टि डाली जाये, तो मनुष्य अपने मन के अनुसार जीवन जीता है. कहा भी गया है- ‘जैसा मन वैसा तन’. यह शरीर मन और इंद्रियों द्वारा संचालित होता है. ऋषियों ने माघ महीने में तीर्थ नदियों में सूर्योदय पूर्व स्नान पर इसलिए जोर दिया कि यह काल चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से भी तन-मन के लिए सर्वाधिक उपयोगी माना गया है. माघ महीने में उत्तरायण होते सूर्य की किरणें धरती पर सीधे नहीं, बल्कि तिरछे आती हैं. किरणों के तिरछे आने से सूर्य की पराबैंगनी किरणें ओजोन परत से छनकर आती हैं, जो अत्यंत लाभदायी होती हैं. ये किरणें प्रवाहित होने वाले जल में पड़ने से जल में औषधीय तत्व की उत्पत्ति होती है.

माघ माह के कृष्णपक्ष की अमावस्या तिथि द्वापर युग की प्रारंभ तिथि मानी गयी है. द्वापर युग के महानायक योगेश्वर कृष्ण हैं. त्रेता के आराध्य भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण में यह अंतर है कि वे जब गोपिकाओं संग वंशी बजाते हैं, तो जीवन के माधुर्य पक्ष पर भी बल देते हैं और द्वंदात्मक जीवन रूपी महाभारत में युद्ध के लिए शंखनाद भी करते हैं. यह युद्ध विजातीय प्रवृत्तियों के खिलाफ सजग होने का भाव विकसित करने के लिए किया गया है. गीता में त्रिगुणात्मक प्रवृत्तियों सत-रज-तम से ऊपर उठकर स्थितिप्रज्ञ तक पहुंचने का उपदेश भी श्री कृष्ण ने दिया है. स्थितिप्रज्ञ और मौनव्रत में तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि दोनों में कोई अंतर नहीं है. मन केवल चुप होकर कुछ न बोलने से नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि मन को प्रभावित करने वाले पांचों ज्ञानेंद्रियों को युद्ध के लिए तैयार करना भी चाहिए. आंखें रूप के खिलाफ, जिह्वा स्वाद के खिलाफ, कान शब्द के खिलाफ, नासिका गंध के खिलाफ तथा त्वचा स्पर्श के खिलाफ क्रांति करे, आंदोलन करे तो वही वास्तविक मौन है.

मौनी अमावस्या से स्पष्ट है कि यह पर्व वाह्य जगत से अंतर्जगत की ओर ले जाने वाला पर्व है. इंद्रियां यदि मौन होती हैं तभी मन भी मौन रहता है. मन पर विराम न रहने पर चाहकर भी मौन नहीं रहा जा सकता. एकांत में बहकर भी मौन रहना कठिन है. इस पर्व पर तीन शब्दों पर गौर करने की जरूरत है- पहला मन, दूसरा मौन, तीसरा मनन. मन दो अक्षरों का, मौन ढाई और मनन तीन अक्षरों का शब्द है. कर्मेंद्रियों और ज्ञानेंद्रियों के इन दो पाटों के बीच संचालित शरीर को साधना के जरिये बाह्य प्रभावों से मुक्त करने का प्रयास करना चाहिए तभी ढाई अक्षर के मौन की मंजिल हासिल होगी. मन को साधते ही जब मनन की प्रक्रिया शुरू होने लगती है और तब अंतर्जगत में अमृत वर्षा भी होने लगती है, जो बाह्य जगत के किसी भी पदार्थ की प्राप्ति से बढ़ कर है.

मौन का वैज्ञानिक महत्व यह है कि मनुष्य का शरीर शून्य में प्रवाहित तरंगीय शक्ति को संचित करने लगता है, जैसे स्विच ऑफ करने से यंत्रों की बैटरी जल्दी चार्ज हो जाती है. मानव शरीर वायु में प्रवाहित तरंगों से, जल में समाहित औषधीय गुणों से, सूर्य किरणों से उत्तम स्वास्थ्य, धरती से उत्पन्न खाद्य पदार्थों से पोषक-तत्व, अंतरिक्ष से निकलती ऊर्जा तेजी से आत्मसात करने लगता है.

मौन साधना की महत्ता समझ कर ही विद्वानों ने कहा कि बोलना एक कला है, तो मौन उससे भी उत्तम कला है. मौन की शक्ति का उदाहरण त्रेतायुग में भी देखने को मिलता है. मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम को राजा दशरथ ने वनवास जब दिया तो अयोध्या की जनता व्याकुल हो गयी. सुध-बुध खो बैठी. इस स्थिति में अंसतुलित जनता कुछ बोल न सकी. मौनव्रत धारण कर लिया. जनता के मौन से इतनी ऊर्जा निकली कि चक्रवर्ती सम्राट राजा दशरथ उस शक्ति को झेल नहीं सके और उन्हें प्राण त्यागना पड़ गया. इसी मौन की शक्ति को मार्कण्डेय ऋषि ने भी समझा. मौन की महत्ता का उदाहरण प्रथम देव श्री गणेश जी से भी मिलता है. वेदव्यास जी ने जब पुराणों की रचना का मन बनाया तो कुछ न बोलने की शर्त रखी गयी. आशय निकलता है कि किसी बड़ी उपलब्धि के लिए वाचाल नहीं, बल्कि मौन होकर कार्य किया जाना चाहिए. मौन एकाग्रता के भाव को विकसित करता है. इस वर्णन के अध्ययन करने से सिद्ध होता है कि हमारी ज्ञानेंद्रियों के सातों द्वारों से सकारात्मक भाव का प्रवेश मन में होता है.

आज ही पुण्य स्नान और दान

शनिवार, 21 जनवरी को प्रातः 5:08 बजे तक चतुर्दशी तिथि है. इसके बाद अमावस्या तिथि 5:09 बजे से शुरू होगी. इसी समय से स्नान तथा दान शुरू करना पुण्यदायी होगा. अमावस्या तिथि पूर्वजों के स्मरण तथा श्रद्धांजलि की तिथि होती है. इस तिथि को दान करना चाहिए. दान के लिए श्रेष्ठ पात्र की तलाश करनी चाहिए. आलसी, मद्यपायी, गलत कर्मों में लिप्त लोगों को दान से बचना चाहिए. हर अमावस्या को कम से कम किसी एक उचित पात्र व्यक्ति को दिन भर भोजन का अनाज आदि देने से पितृदेवता प्रसन्न होते हैं. इस दान का प्रचार नहीं करना चाहिए. इस तिथि को संभव हो तो कोई वस्तु या खाद्य पदार्थ अन्य किसी से ग्रहण नहीं किया जाना चाहिए. स्कन्दपुराण के प्रभास खंड के अनुसार, अमावस्या को दूसरे का अन्न खाने से एक माह का पुण्य नष्ट हो जाता है. सक्षम व्यक्ति खिलाये, स्वतः न खाये. अमावस्या को दूसरों का खाने से पितरों को पीड़ा होती है. इस तिथि को पितृगण अपनी पीढ़ी को देखने आते हैं, इसलिए सत्-आचरण करना चाहिए.

धर्मग्रंथों में पापो से मुक्ति

इस माघ के सुहावने महीने में कल्पवास का विधान जल से किया गया है. पुराणों में कहा गया है कि एक कल्पवास करने से सात पीढ़ियों का उद्धार होता है. सारे धर्मग्रंथों में पाप से मुक्ति और स्वर्ग की प्राप्ति का जो उल्लेख है, वह किसी अदृश्य लोक का नहीं, बल्कि वाह्य जगत के विकारों का बड़े भाग्य से मिले मानुष तन को प्रभावित करने से निकलता है. कुप्रवृत्तियों के दुष्प्रभाव से लड़कर ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मन को नरक मार्ग में जाने से रोकने पर मन-मस्तिष्क में उल्लास और परम आनंद की अनुभूति होती है. गोस्वामी तुलसीदास ‘दीनदयाल विरद सँभारी, हरहु नाथ मम संकट भारी’ चौपाई में किसी अदृश्य दीनदयाल नहीं, बल्कि पांच अक्षरों के रूप में पंच ज्ञानेंद्रियों में ही भगवत-सत्ता दर्शन करते प्रतीत होते हैं और काम-क्रोध, मोह-लोभ रूपी संकट से बचने का सरल उपाय और समाधान बताते दिखाई पड़ते हैं.

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