27.1 C
Ranchi
Friday, February 7, 2025 | 04:22 pm
27.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

दिल्ली में 5 फरवरी को मतदान, 8 फरवरी को आएगा रिजल्ट, चुनाव आयोग ने कहा- प्रचार में भाषा का ख्याल रखें

Delhi Assembly Election 2025 Date : दिल्ली में मतदान की तारीखों का ऐलान चुनाव आयोग ने कर दिया है. यहां एक ही चरण में मतदान होंगे.

आसाराम बापू आएंगे जेल से बाहर, नहीं मिल पाएंगे भक्तों से, जानें सुप्रीम कोर्ट ने किस ग्राउंड पर दी जमानत

Asaram Bapu Gets Bail : स्वयंभू संत आसाराम बापू जेल से बाहर आएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत दी है.

Oscars 2025: बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप, लेकिन ऑस्कर में हिट हुई कंगुवा, इन 2 फिल्मों को भी नॉमिनेशन में मिली जगह

Oscar 2025: ऑस्कर में जाना हर फिल्म का सपना होता है. ऐसे में कंगुवा, आदुजीविथम और गर्ल्स विल बी गर्ल्स ने बड़ी उपलब्धि हासिल करते हुए ऑस्कर 2025 के नॉमिनेशन में अपनी जगह बना ली है.
Advertisement

कांग्रेस महाधिवेशन में स्पष्टता का अभाव

Advertisement

अभी जो देश की राजनीतिक स्थिति है, उससे यह साफ जाहिर होता है कि कांग्रेस अपने बूते पर तो सरकार नहीं बना सकती है. देश में छोटी-बड़ी 23-24 पार्टियां हैं, जिन्हें कांग्रेस को साधना है और बड़े गठबंधन बनाने की कोशिश करनी है.

Audio Book

ऑडियो सुनें

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आयोजित हुआ कांग्रेस का महाधिवेशन निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण आयोजन था. एक तो यह कई वर्ष बाद हो रहा था तथा बहुत समय के बाद कांग्रेस का अध्यक्ष गांधी-नेहरू परिवार से बाहर का व्यक्ति है, तो स्वाभाविक रूप से सबकी निगाहें इस अधिवेशन पर थीं. ऐसी अपेक्षा थी कि 2024 के आम चुनाव के संबंध में कांग्रेस कोई ठोस रणनीति भी इस अधिवेशन में तैयार करेगी. लेकिन इस तरह की अपेक्षाएं पूरी नहीं हुईं. एक तो कांग्रेस पार्टी के भीतर लोकतंत्र का मामला था. मल्लिकार्जुन खरगे के अध्यक्ष चुने जाने के बाद कार्यसमिति के चुनाव की आशा की जा रही थी. चुनाव कराने के बजाय उन्होंने इसके सदस्यों की संख्या बढ़ा दी. इससे हमें पार्टी की सांगठनिक समस्याओं का समाधान होता नहीं दिख रहा है. पार्टी में बहुत से लोगों की महत्वाकांक्षा है, असंतुष्ट धड़े जी-23 के लोग हैं, कई युवा नेता हैं, उनके लिए यह निर्णय सही नहीं कहा जा सकता है. कांग्रेस का इतिहास रहा है कि ऊपरी कमेटियों में महिलाओं, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों आदि वर्गों का प्रतिनिधित्व रहता है. उसे कैसे सुनिश्चित किया जायेगा, यह देखा जाना है. अगर ऐसा नहीं होगा, तो उसका गलत संदेश लोगों के बीच जायेगा.

- Advertisement -

कांग्रेस कार्यसमिति का काम होता है राजनीतिक रणनीति बनाना. इसकी बैठकें ऐसे माहौल में होनी चाहिए, जहां कोई ठोस निर्णय हो सके. कांग्रेस का इतिहास हमें बताता है कि कार्यसमिति में जितने अधिक लोग होते हैं, निर्णय लेने की प्रक्रिया उतनी ही बाधित होती है. अभी 36 लोग इस समिति में हैं. हो सकता है कि खरगे इसमें मनोनीत और आमंत्रित सदस्यों को जोड़ें और यह संख्या 50 तक पहुंच जाये. ऐसी स्थिति में एक खतरा रहता है कि लोग साफगोई से अपनी बात नहीं रख पाते हैं. आखिर में तय यह होता है कि फैसला आलाकमान लेगा. आलाकमान की इस संस्कृति से कांग्रेस को बहुत नुकसान हुआ है और अभी भी हो रहा है. रायपुर अधिवेशन को लेकर दूसरी महत्वपूर्ण उत्सुकता यह थी कि पार्टी भविष्य में सरकार बनाने की दिशा में क्या पहल करती है. अभी जो देश की राजनीतिक स्थिति है, उससे यह साफ जाहिर होता है कि कांग्रेस अपने बूते पर तो सरकार नहीं बना सकती है. देश में छोटी-बड़ी 23-24 पार्टियां हैं, जिन्हें कांग्रेस को साधना है और बड़े गठबंधन बनाने की कोशिश करनी है. अब समस्या यह है कि कांग्रेस अपनी पुरानी सोच के मुताबिक गठबंधन का नेता होने से कम पर तैयार होती नहीं दिखती. पार्टी में ऐसी सोच है कि गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस करे और जीत के बाद राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाया जाये. यह बात अनेक क्षेत्रीय क्षत्रपों को स्वीकार नहीं है.

अधिवेशन में कांग्रेस ने यही कहा कि वह समान विचारधारा के दलों के साथ रहेगी, पर वहां से अन्य दलों को ऐसा संदेश नहीं गया, जिससे लगे कि कांग्रेस में लचीलापन है. अब दिल्ली को ही देखें. आम आदमी पार्टी के महत्वपूर्ण नेता मनीष सिसोदिया को सीबीआई ने गिरफ्तार किया है. इस मामले में कांग्रेस सीबीआई की ही पक्षधर दिखती है, सिसोदिया की नहीं. ऐसे कई उदाहरण दिये जा सकते हैं. जब विपक्ष में एकता का अभाव होगा, तो अच्छे गठबंधन की संभावना धूमिल हो जाती है. मेघालय विधानसभा चुनाव के प्रचार में जब राहुल गांधी गये, तो वे भाजपा और सत्तारूढ़ गठबंधन की अपेक्षा तृणमूल कांग्रेस पर अधिक आक्रामक दिखे. इससे पता चलता है कि विपक्ष बिखरा हुआ है. विपक्ष को जोड़ने का मुख्य दायित्व बड़ी पार्टी होने के नाते कांग्रेस का है. लेकिन कांग्रेस अपनी इस भूमिका को निभाती नजर नहीं आती. अधिवेशन की बात करें, तो वहां व्यवस्था बहुत अच्छी थी और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और राज्य कांग्रेस इकाई ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी थी. लेकिन कांग्रेस के कार्यकर्ता, जो सम्मेलन में प्रतिनिधि होते हैं, वे आसानी से बड़े नेताओं से नहीं मिल सके और न ही आपस में ठीक से विचार-विमर्श कर सके.

अधिवेशन में वैचारिक स्पष्टता पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए था. याद करें कि कुछ समय पहले उदयपुर में पार्टी ने एक चिंतन शिविर का आयोजन भी किया था. उस शिविर में यह चर्चा हुई थी कि कांग्रेस धार्मिक आयोजनों में सक्रियता से भाग लेगी क्योंकि भाजपा ने प्रारंभ से ही अपने को आस्था से जोड़ते हुए जनता के सामने रखा है. पार्टी में बहुत से लोगों का यह मत था कि कांग्रेस को भी इस प्रतिस्पर्धा में शामिल होना चाहिए. लेकिन कुछ प्रतिनिधियों ने इस तरह के विचारों का विरोध किया था. ऐसे में वह मामला अधूरा रह गया था. अधिवेशन के राजनीतिक प्रस्ताव में इस संबंध में स्पष्टता से कुछ नहीं कहा गया है. राहुल गांधी ने अपने भाषण में कहा कि कांग्रेस नफरत के खिलाफ है. पर नफरत के खिलाफ तो सभी पार्टियां हैं. भाजपा भी इस तरह के दावे कर सकती है. पंडित नेहरू का मानना था कि राजनीति में धर्म का समावेश नहीं होना चाहिए. लेकिन महात्मा गांधी समेत कई कांग्रेसी नेता मानते थे कि सही धार्मिकता के बिना राजनीति नहीं चल सकती है. यह टकराव कांग्रेस के भीतर चलता रहा है और आज कांग्रेस में बहुत से ऐसे लोग हैं, जो धर्म और राजनीति के मिश्रण के पक्षधर हैं.

बड़े औद्योगिक घरानों के बारे में जो राहुल गांधी कहते रहे हैं, उसे उन्होंने रायपुर में भी दोहराया. लेकिन विडंबना यह है कि कांग्रेस की राज्य सरकारें भी उन्हीं उद्योगपतियों के साथ काम कर रही हैं और केंद्र सरकार जैसी आर्थिक नीतियों को ही अपना रही हैं. अधिवेशन के आर्थिक प्रस्तावों में कांग्रेस कोई वैकल्पिक आर्थिक नीति या दृष्टि को देश के सामने नहीं रख सकी है. यह उल्लेखनीय है कि अधिवेशन में सामाजिक न्याय तथा निजी क्षेत्र एवं न्यायपालिका में आरक्षण देने जैसे विषयों पर खूब चर्चा हुई. पुरानी पेंशन नीति को लागू करने की बात कही गयी. लेकिन कांग्रेस यह नहीं कह रही है कि अगर वह सत्ता में आती है, तो न्यायपालिका में आरक्षण लागू करेगी, बल्कि वह यह कह रही है कि इस पर चर्चा की जायेगी. वाजपेयी सरकार के दौर में तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायण ने इस संबंध में एक प्रस्ताव सरकार को भेजा था. पर सरकार ने चुप्पी साध ली और कांग्रेस ने भी खुलकर समर्थन नहीं किया क्योंकि पार्टी के भीतर इस पर अलग-अलग मत हैं. जिस तरह से पुरानी पेंशन नीति को लेकर कांग्रेस में स्पष्टता और मुखरता है, वह आरक्षण जैसे मुद्दों को लेकर नहीं हैं. कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस अधिवेशन में जो पैनापन होना चाहिए था, वह नजर नहीं आया.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

ट्रेंडिंग टॉपिक्स

Advertisement
Advertisement
Advertisement

Word Of The Day

Sample word
Sample pronunciation
Sample definition
ऐप पर पढें