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Joram Movie Review: दिल को छू जाने वाले इस सर्वाइवल ड्रामा में मनोज बाजपेयी का है शानदार अभिनय, पढ़ें रिव्यू

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जोरम की कहानी की शुरुआत पेड़ पर झूले में झूलती वानो ( तनिष्ठा चटर्जी) और ज़मीन पर बैठे बाला ( मनोज बाजपेयी) के पलाश के फूलों पर एक गीत के गाते हुए होती है और दूसरे ही पल यह जोड़ी कंकरीट के जंगल यानी शहर में एक कंस्ट्रक्शन साईट पर दिखती है.

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फ़िल्म – जोरम

निर्माता- जी स्टूडियोज

निर्देशक- देवाशीष मखीजा

कलाकार- मनोज बाजपेयी,मोहम्मद जीशान अय्यूब, स्मिता तांबे, मेघा माथुर, तनिष्ठा चटर्जी और अन्य

प्लेटफार्म- सिनेमाघर

रेटिंग- तीन

देबाशीष मखीजा द्वारा लिखित और निर्देशित ड्रामा फ़िल्म भोंसले के लिए अभिनेता मनोज बाजपेयी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. निर्देशक और अभिनेता की यह जोड़ी जोरम फ़िल्म से एक बार फिर साथ वापस आयी है. एक बार फिर इस जोड़ी ने इस तरह का सिनेमा गढ़ा है ,जो दिल छूने के साथ- साथ सोचने को भी मज़बूर करती है.

कहानी है सर्वाइवल की

फ़िल्म की कहानी की शुरुआत पेड़ पर झूले में झूलती वानो ( तनिष्ठा चटर्जी) और ज़मीन पर बैठे बाला ( मनोज बाजपेयी) के पलाश के फूलों पर एक गीत के गाते हुए होती है और दूसरे ही पल यह जोड़ी कंकरीट के जंगल यानी शहर में एक कंस्ट्रक्शन साईट पर दिखती है. दोनों मज़दूरी करके ज़िंदगी में ख़ुशी जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. एक राजनेता फूलो कर्मा (स्मिता तांबे) अपनी राजनीति चमकाने के लिए कंस्ट्रक्शन साइट के मज़दूरों को कुछ बांटने के लिये वहां पर पहुंचती हैं और वह बाला को देख बाला नये नाम दशरू से बुलाती है लेकिन बाला इसे मानने से इंकार कर देता है. कहानी आगे बढ़ती है. एक रात वह मज़दूरी करके घर पहुंचता है और पाता है कि उसकी पत्नी वानो की हत्या हो गई है और अपनी तीन साल की बच्ची ज़ोरम को लेकर वहाँ से झारखंड भागता है. बाला पर उसकी पत्नी की हत्या का शक है. उसके पीछे पुलिस के साथ – साथ राजनेता फुलो कर्मा भी है. क्यों वह बाला के जान के पीछे हैं. बाला की असली पहचान क्या दशरू की है. उसका अतीत क्या माओवादी का है. इन सब सवालों के जवाब फ़िल्म की आगे कहानी कहती है.

फ़िल्म की खूबियां और खामियां

कौन सी वर्दी जायज है और कौन सी वर्दी नाजायज़. ये पता करने में सौ साल और लग जाएंगे. एक आदिवासी का यह संवाद है ,जो दोनों पक्षों को समझता है. पहले माओवादियों के और दूसरे पुलिस जो उनका विरोध कर रहे हैं. इसी में मूल रूप से फ़िल्म का सार है. फ़िल्म नक्सलवादियों के साथ -साथ पर्यावरण को पहुंचाये जाये नुक़सान की भी कहानी है. झारखंड जैसे कई जगहों पर विकास के नाम पर जिस तरह से प्रकृति और उसमें बसे जनजातियों का शोषण हुआ है. यह फ़िल्म इस मुद्दे को भी उठाती है. जो कहीं ना कहीं दिल को छूने के साथ- साथ सोचने को भी मजबूर करता है. कई मुद्दों को ख़ुद में समेटे हुए यह फ़िल्म बदले की भी कहानी है. फ़िल्म का गीत संगीत औसत है. बैकग्राउंड म्यूजिक प्रभावी है. सिनेमेटोग्राफी कहानी को और मज़बूती देती है. दृश्यों का संयोजन दिल को छू जाते है. हर फ्रेम बहुत कुछ कहने के साथ- साथ सवाल भी सामने लेकर आता है. संवाद इनको और मज़बूती देते है. ख़ामियों की बात करें तो मनोज बाजपेयी और सिस्टम के बीच चूहे-बिल्ली की दौड़ रोमांच लाती है, वहीं इसके पीछे का संघर्ष शुरू से ही एक ही स्तर पर रह गया है. जिस वजह से वह फ़िल्म कुछ समय के बाद खिंचती हुई लगती है.

मनोज बाजपेयी का एक और यादगार परफॉरमेंस

अभिनय की बात करें तो मनोज बाजपेयी ने एक बार फिर इस बात को साबित किया है कि किरदारों में रच बस जाने के हुनर उन्हें खूब आता है. फ़िल्म के हर फ्रेम में उन्होंने दसरू के दर्द और उसकी छटपटाहट को बखूबी सामने लाया है. मोहम्मद जीशान अयूब ने भी अपने किरदार में छाप छोड़ी है. फुलो कर्मा के किरदार में स्मिता तांबे बहुत प्रभावित करती हैं. उसके बोलने के तरीके से लेकर बॉडी लैंग्वेज तक सभी में वह सटीक रही हैं. मेघा माथुर भी प्रभावित करती हैं. तनिष्ठा कम स्क्रीन टाइम में भी याद रह जाती हैं. बाक़ी के किरदारों ने भी अपने किरदारों के साथ बखूबी न्याय किया है.

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