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महिलाओं को संपत्ति में हिस्सा देना न्यायोचित

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दुनियाभर में शोध से यह सिद्ध हो चुका है कि जिन महिलाओं के पास अपनी संपत्ति होती है, उनका आत्मविश्वास अधिक होता है. ऐसी महिलाएं अपने तथा अपने परिवार के बारे में निर्णय कर सकती हैं और अपनी संतानों में भी वही आत्मविश्वास प्रतिरोपित करती हैं. यह आत्मविश्वास उनकी घरेलू हिंसा से भी रक्षा करता है.

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मद्रास हाइकोर्ट ने पिछले महीने महिलाओं के अधिकार से संबंधित एक निर्णय सुनाया, जिसकी काफी चर्चा है. अदालत ने पति-पत्नी के एक मुकदमे में यह फैसला सुनाया कि यदि कोई पत्नी किसी परिवार में घर के दैनिक कार्य को करते हुए संपत्ति अर्जित करने में योगदान करती है, तो वह भी संपत्ति में बराबर की हिस्सेदार होती है यानी अदालत ने यह माना है कि पत्नी के सहयोग के बगैर पति का सफलतापूर्वक कार्य कर सकना लगभग असंभव है. यह एक न्यायोचित निर्णय है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए. हालांकि, पति-पत्नी से जुड़े मामलों में इस तरह के फैसलों को लेकर कुछ व्यावहारिक समस्याएं आ सकती हैं. जैसे, यदि पति-पत्नी का वैवाहिक जीवन सौहार्दपूर्ण हो और पति की मृत्यु के बाद पति के घरवाले पत्नी को अधिकार नहीं देते हैं, तब तो पत्नी के बराबरी के हक की बात न्यायोचित है, परंतु वैवाहिक विवाद की स्थिति में, जब परिवार में मनमुटाव और तनाव हो, तो वहां पत्नी की ओर से मानसिक सहयोग मिलने को लेकर सवाल उठ सकते हैं. वैसी परिस्थिति में यदि पति तनाव के बीच आय या संपत्ति अर्जित करता है, तो उसमें आधी संपत्ति पत्नी को सौंप देना एक मुश्किल काम हो सकता है.

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यह एक वस्तुस्थिति है कि पितृसत्तात्मक समाज में लड़कियां अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही हैं, लेकिन किसी भी सामाजिक व्यवस्था में न्याय और लैंगिक समानता को स्थापित करने के लिए,जब भी कोई कानून बदलता है, तो वह समाज को त्वरित गति से प्रभावित नहीं कर पाता. खास तौर पर उस व्यवस्था में, जिसकी जड़ें बहुत गहरी हैं. दरअसल, सामाजिक व्यवस्था यह चली आ रही है कि बेटी परायी संपत्ति है और माता-पिता कन्याधन देकर बेटी को विदा कर देते हैं. इस व्यवस्था के तहत माता-पिता मान लेते हैं कि बेटी को उसका हिस्सा विवाह के समय दे दिया गया है. ऐसे में, वास्तविकता यह है कि कानून होने के बावजूद, बेटियों को सहजता से उनके अधिकार नहीं दिये जाते. हालांकि, वैदिक संस्कृति में महिलाओं को समान अधिकार मिले थे. पिछली कुछ सहस्राब्दियों में यह व्यवस्था परिवर्तित हुई. ऐसे में, सदियों पुरानी परिस्थितियों को यकायक परिवर्तित नहीं किया जा सकता. अगर आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए, तो 10 प्रतिशत परिवार खोजने भी मुश्किल होंगे, जहां बेटियों को जमीन व घर में बराबरी के अधिकार मिलते हों. ग्रामीण अंचलों में, जहां भारत की आधी से ज्यादा आबादी बसती है, वहां बेटियों को संपत्ति में बराबर का हिस्सा नहीं मिलता. इसकी वजह यह सोच है कि बेटी को यदि हक दिया गया, तो विवाह के बाद वह जमीन दूसरे परिवार में चली जायेगी. आम तौर पर संपत्ति के बंटवारे की चर्चाओं में ध्यान केवल मकानों पर जाता है, पर यह कानून कृषि भूमि पर भी लागू होता है.

पत्नी का पति की संपत्ति पर अधिकार और बेटी का पिता की संपत्ति पर अधिकार बिल्कुल होना चाहिए, परंतु इस विमर्श में बेटियों के अधिकारों की बात तो होती है, मगर उनके दायित्वों की चर्चा नहीं होती. सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से और वर्ष 2007 के बुजुर्गों के सेवा के अधिनियम के तहत तथा न्यायपालिका के निर्णयों में भी ये लगातार कहा जाता रहा है कि बेटे का यह कर्तव्य है कि वह हर परिस्थिति में अपने माता-पिता कीे सेवा करेगा, मगर यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि क्या बेटियां विवाह के पश्चात भी अपने माता-पिता का उसी प्रकार से ध्यान रखती हैं, जैसा कि बेटे रखते हैं. यह एक दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति है, जिससे संपत्ति में लैंगिक समानता के मुद्दे की लगातार चर्चा के बाद भी इस दिशा में किये जा रहे प्रयास सफल नहीं हो रहे. दरअसल, ये निर्णय पुरुषों को सहमति में लिए बिना लिये जा रहे हैं, जिससे दोनों पक्षों के बीच एक विद्रोहात्मक स्थिति उत्पन्न हो गयी है. ऐसे में पैतृक संपत्ति का बंटवारा होता है, तो बेटे की यह अपेक्षा होती है कि चूंकि वह अपने माता-पिता का वृद्धावस्था में ध्यान रखेगा, तो उसका अधिकार अधिक होना चाहिए. वहीं, बेटियों के सामने समस्या यह आ जाती है कि वह यदि अपने माता-पिता का ध्यान रखेगी, तो ससुराल पक्ष का क्या होगा.

यह मुद्दा केवल संपत्ति के बंटवारे का नहीं है. यह एक सामाजिक विषय है. लैंगिक समानता के नाम पर केवल स्त्रियों के अधिकारों की बात करने से समाज बिखर सकता है और विद्रोहात्मक स्थिति उत्पन्न हो सकती है, लेकिन महिला सशक्तीकरण के लिए बेटियों को संपत्ति में अधिकार दिया जाना बहुत आवश्यक है. दुनियाभर में शोध से यह सिद्ध हो चुका है कि जिन महिलाओं के पास अपनी संपत्ति होती है, उनका आत्मविश्वास अधिक होता है. ऐसी महिलाएं अपने तथा अपने परिवार के बारे में निर्णय कर सकती हैं और अपनी संतानों में भी वही आत्मविश्वास प्रतिरोपित करती हैं. यह आत्मविश्वास उनकी घरेलू हिंसा से भी रक्षा करता है. आदर्श स्थिति यह है कि माता-पिता यदि अपनी बेटियों का भविष्य सुरक्षित करना चाहते हैं, तो वे उन्हें बेटों के ही समान न्यायोचित अधिकार दे दें. इससे स्त्रीधन देने की परंपरा स्वयं ही कम होती चली जायेगी. (बातचीत पर आधारित).

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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