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बंगाल पंचायत चुनाव परिणाम का संकेत

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बीजेपी निश्चित रूप से मजबूत हो रही है. एक समय में वह कहीं नहीं थी. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 18 सीटें मिलीं. वर्ष 2021 के चुनाव में वह हार गयी, लेकिन उनका वोट प्रतिशत बढ़ा. हालांकि, मजबूत होते जाने के बावजूद बीजेपी के पास अभी उतनी सांगठनिक मजबूती नहीं आ पायी है.

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पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव का नतीजा स्पष्ट हो गया है. तृणमूल कांग्रेस ने इसमें जबरदस्त जीत दर्ज की है. इसके बाद अब यह कहा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में अभी भी तृणमूल की राजनीतिक पकड़ सबसे ज्यादा है. खास तौर पर ग्रामीण इलाकों के बारे में यह कहा जा सकता है. नतीजों के आधार पर यह स्पष्ट हो गया है कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल के पास एकतरफा बहुमत है. लेकिन, वर्ष 2018 के आखिरी पंचायत चुनाव के बाद इस बार के चुनाव में अंतर सिर्फ इतना है कि पिछली बार बीजेपी कहीं नहीं थी. पिछले पंचायत चुनाव में कोई मुकाबला नहीं हुआ था. मगर, इस बार बीजेपी, कांग्रेस, वाम दलों ने मुकाबला किया और बहुत सारे उम्मीदवार उतारे. उनके उम्मीदवार बहुत कम संख्या में जीते हैं, लेकिन वोट प्रतिशत और सीटों की संख्या के हिसाब से बीजेपी दूसरे नंबर पर है.

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मगर यह मानना पड़ेगा कि वर्ष 2013, 2018 और 2023 के पंचायत चुनावों में जीत हासिल कर तृणमूल कांग्रेस ने हैट्रिक लगायी है. और, इसके बाद यह कयास लग रहे हैं कि पंचायत चुनावों में इस शानदार प्रदर्शन के बाद क्या 2024 के आम चुनाव में ममता बनर्जी का दबदबा कायम रहेगा? क्या अगले चुनाव में भी उनकी लोकप्रियता बरकरार रहेगी? क्या यह जीत ममता के नाम पर मिली जीत है? या क्या यह लोकतंत्र की जीत नहीं, हिंसा की जीत है, जैसा कि बीजेपी बता रही है. ये सारे सवाल अभी उठ रहे हैं.

इस चुनाव से सबसे बड़ी एक बात यह निकल कर आयी कि हिंसा पश्चिम बंगाल की राजनीति का डीएनए बन गया है. पश्चिम बंगाल का चुनाव और हिंसा, ये दोनों शब्द एक-दूसरे के पर्याय बन गये हैं. ऐसी स्थिति आने के पीछे मुझे लगता है कि सामाजिक-आर्थिक कारण सबसे महत्वपूर्ण हैं. पश्चिम बंगाल की गरीब आबादी अभी भी राज्य की पंचायत व्यवस्था की राजनीतिक प्रक्रिया से जुड़े रहना चाहती है. हर ग्रामीण व्यक्ति चुनाव जीत कर कोई-न-कोई पद हासिल करना चाहता है. जैसे, पंचायत सदस्य, पंचायत समिति सदस्य या जिला परिषद का सदस्य. इसकी वजह यह है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार की योजनाओं का पैसा गांवों में लगता है. ऐसे में, यदि आप पंचायत में हैं, यानी यदि आपके पास सत्ता है, तो ऐसे में उस पैसे का एक हिस्सा उनकी जेब में भी जाता है. यह एक ऐसी व्यवस्था है जो केवल पश्चिम बंगाल ही नहीं, पूरे देश में चली आ रही है. लेकिन, पश्चिम बंगाल में लोगों की इस पर निर्भरता ज्यादा बढ़ गयी है क्योंकि लोगों के पास विकल्प नहीं हैं. यदि प्रदेश में उद्योग-धंधे या पेशेवर नौकरियां होतीं, तो शायद लोगों की पंचायत पर निर्भरता कम होती. पश्चिम बंगाल में लोगों की निर्भरता पार्टी सिस्टम, यानी राजनीतिक दलों के ऊपर सबसे ज्यादा है.

यह स्थिति मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी या सीपीएम के शासन के समय से बनी है. सीपीएम ने अपने दौर में पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार की नीति को लागू किया, जो अच्छी बात है और उसकी वजह से ही जोत बंटे और बरगादार या जोतदार किसानों का जन्म हुआ. लेकिन, इसके साथ ही राज्य में एक पार्टीक्रेसी या पार्टीतंत्र या दलतंत्र शुरू हो गया. इसका मतलब यह था कि यदि तुम हमारी पार्टी के साथ रहोगे तो तुम्हें कोई हाथ भी नहीं लगा सकेगा. और, यदि हमारी पार्टी के साथ नहीं रहोगे तो मार खाओगे. मुझे याद है कि उस जमाने में एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम या आइआरडीपी के तहत जब गांवों में महिलाओं के लिए सिलाई मशीनें आती थीं, तो वह उन्हीं लोगों को मिलती थीं जो पार्टी के सदस्य होते थे. यह दलतंत्र अभी भी बरकरार है. पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव में भी यह देखा गया है. मगर, तृणमूल का वोट प्रतिशत बढ़ गया है चुनाव में 75 प्रतिशत वोट उन्हें ही मिले हैं. तिरसठ हजार मतदाताओं में हर वोटर का तीन वोट था. ऐसे में, यह कहा जाना एक बहुत ही सतही तर्क लगता है कि तृणमूल ने केवल हिंसा के दम पर चुनाव में जीत हासिल की है.

बीजेपी निश्चित रूप से मजबूत हो रही है. एक समय में वह कहीं नहीं थी. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 18 सीटें मिलीं. वर्ष 2021 के चुनाव में वह हार गयी, लेकिन उनका वोट प्रतिशत बढ़ा. हालांकि, मजबूत होते जाने के बावजूद बीजेपी के पास अभी उतनी सांगठनिक मजबूती नहीं आ पायी है कि वह ममता बनर्जी को अपदस्थ कर सकती है. यदि ऐसी स्थिति रहती, तो सदन में विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी अपने जिले मिदनापुर में पकड़ रखते. पूर्व मिदनापुर में अपने ब्लॉक में तो उन्हें जीत मिली है, मगर पूरा मिदनापुर जिला तृणमूल की झोली में चला गया. यानी जिला पंचायत में तृणमूल का शासन होगा. ऐसे में हिंसा को वजह बताने से यह कैसे हो गया कि शुभेंदु अधिकारी को अपने ब्लॉक में जीत मिल गयी. ऐसे में, हिंसा को हार-जीत की वजह बताना सही नहीं है.

हिंसा पश्चिम बंगाल की राजनीति की एक परंपरा बन चुकी है जो इस प्रदेश में कांग्रेस के जमाने से ही चली आ रही है. वही असामाजिक तत्व जो पहले कांग्रेस में थे, वे सीपीएम में आ गये, फिर तृणमूल के सत्ता में आने पर उनके साथ चले आये, और यदि कोई दूसरी पार्टी सत्ता में आती है तो फिर उनके पाले में चले जाने की कोशिश करेंगे. ये तत्व सत्ताधारी पार्टी के साथ रहना पसंद करते हैं क्योंकि इससे उनका काम-धंधा चलता है. तो, यह एक आर्थिक मुद्दा है. यह राजनीति लक्ष्य को हासिल करने का आपराधिक हिंसा का व्यवसायीकरण है. यह एक राजनीतिक संस्कृति बन गयी है.

ममता बनर्जी को भी पता है कि बीजेपी टक्कर दे रही है. मतगणना के दिन राज्य सरकार की ओर से ऐसी रिपोर्ट कि असम से कुछ लोगों ने आकर हिंसा की कोशिश की. तो हिंसा-प्रतिहिंसा का सिलसिला जारी है. इस चुुनाव के बाद ममता फिर नंबर वन हो गयी हैं. मगर, लोकसभा चुुनाव में इसका कोई असर होगा या नहीं यह बड़ा सवाल है, क्योंकि वह चुनाव मोदी जी का चुनाव होगा. ममता का चुनाव वर्ष 2026 का विधानसभा चुनाव है. मगर, यह बात भी सही है कि मतदाता समान हैं. जिन्होंने पंचायत चुनाव में मत दिया, वही 2024 में भी मतदान करेंगे. लेकिन, अभी आम चुनाव में समय है. उससे पहले क्या मुद्दे उठेंगे, मोदी-शाह की रणनीति क्या रहेगी, और ममता उसका प्रतिकार कैसे करेंगी, विपक्ष की राजनीति में भी हलचल होगी. इन बातों के स्पष्ट होने के बाद ही 2024 के चुनाव की तस्वीर स्पष्ट हो पायेगी.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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