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अंतर्राष्ट्रीय शायर वसीम बरेलवी बोले- देशभक्ति को कर्म में उतारने की जरूरत, बड़ी कुर्बानी के बाद मिली है आजादी

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उर्द के मशहूर अंतर्राष्ट्रीय शायर प्रो. वसीम बरेलवी ने स्वतंत्रा दिवस की पूर्व संध्या पर "प्रभात खबर" से खास बातचीत की. इस दौरान उन्होंने कहा कि 15 अगस्त और 26 जनवरी राष्ट्रीय पर्व हैं. इसमें हम खुशियां मनाने के साथ अपना आंकलन जरूर करें.

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Independence Day 2023: उर्दू के मशहूर अंतर्राष्ट्रीय शायर प्रो. वसीम बरेलवी ने स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर “प्रभात खबर” से खास बातचीत की. इस दौरान उन्होंने कहा कि 15 अगस्त और 26 जनवरी राष्ट्रीय पर्व हैं. इसमें हम खुशियां मनाने के साथ ही खुद का आंकलन जरूर करें.

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हमने क्या खोया और क्या पाया है. यह जरूर सोचें. दुनिया में हिंदुस्तान की तरह कोई देश नहीं है, इसको और कैसे बेहतर बनाएं, इसके लिए सभी के प्रयास की जरूरत बताई. शायर वसीम बरेलवी को फिराक गोरखपुरी अवार्ड से लेकर देश-दुनिया भर में तमाम पुुरस्कारों से नवाजा जा चुका है. इसके साथ ही साहित्यक कोटे से विधान परिषद के सदस्य भी बने थे.

युवाओं को चरित्र निर्माण के लिए किया प्रेरित

अंतर्राष्ट्रीय शायर वसीम बरेलवी ने कहा कि देशभक्ति को लेकर इतनी बातचीत किसी भी दूसरे देश में नहीं की जाती, जितनी हिंदुस्तान में होती है. उन्होंने आगे कहा कि हकीकत यह है कि देशभक्ति कोई चर्चा की चीज नहीं है, यह कर्म में उतारने की चीज है. इसे अपनी तरह से बयान करना और वचन से साबित करना होता है. उन्होंने युवाओं को चरित्र निर्माण के लिए प्रेरित किया. इसके साथ ही मां-बाप (अभिभावक) को बच्चों के चरित्र निर्माण की सलाह दी.

याद करें बुजुर्गों की कुर्बानियां

प्रो.वसीम बरेलवी ने कहा कि अंग्रेजों की दमनकारी हुकूमत से मुक्ति दिलाने में हमारे बुजुर्गों ने कुर्बानियां दी हैं. इसमें भी कोई संदेह नहीं कि उसके बाद अपने जीवन के तमाम क्षेत्रों में हमने कई अविस्मरणीय गौरवशाली लम्हे हासिल किए हैं. मगर, अब हम खुद से यह भी पूछें कि चरित्र के मोर्चे पर हमने क्या हासिल किया है?

हिंदुस्तान महसूस करने की चीज

हिंदुस्तान में तमाम जाति धर्म के लोग रहते हैं. यहां तमाम भाषाएं बोली जाती हैं. हिंदुस्तान में प्रजातंत्र (लोकतंत्र) पैदाइशी है. यहां 15-15 गांवों पर एक मुखिया लोग खुद चुनते थे. उससे ही फैसले कराते थे. मगर, वह मुखिया बेदाग छवि का होता था. उस पर कोई ऊंगली नहीं उठा सकता था.

बुजुर्गों ने जिया सादा जीवन, लेकिन विचार बड़े थे

हमारे बुजुर्गों ने सादा जीवन जिया. वह सादा कपड़े, सादा खाना खाते थे, लेकिन उसूल वाले थे. चारपाई पर सो जाते थे. हिंदुस्तानियों ने अपने पूर्वजों से विरासत में जो बेजोड़ सांस्कृतिक चरित्र पाया है. उसे आगे भी बनाए रखने और आगे बढ़ाने की जरूरत है. मगर, क्या हम इसमें कमायब हैं? यह जरूर सोचें.

समाज की जिम्मेदारियां

उन्होंने कहा कि खरीदारी के लिए दुकानों पर जाइए, तो आपको मिलावटी खाने की चीजें, सिंथेटिक दूध, खतरनाक छिड़कावों वाली सब्जियां और न जाने क्या-क्या मिलेगा. मगर, इसका विरोध करने एक इंसान का काम नहीं है, समाज की जिम्मेदारी है.

हम ईमानदारी से जियें, ये भी राष्ट्र भक्ति

हर इंसान को ईमानदारी से जीना चाहिए. हम ईमानदारी से जीते हैं, तो ये भी राष्ट्रभक्ति है. देश के नौजवानों को प्रेरित किया जाए. हिंदुस्तान के कल को संवारा जाए और इस घृणित परिस्थिति को ललकारा जाए. इसकी शुरुआत अपने घर से ही की जाए. अपने बड़ों से पूछना चाहिए कि वे ईमानदारी से कितना कमाते हैं और बेईमानी से कितना खर्च करते हैं.

बच्चे करेंगे बगावत, तब खुलेगी पिताओं की नींद

प्रो.वसीम बरेलवी ने कहा कि पिताओं की नींद केवल तभी खुलेगी जब उनके बच्चे नापाक की कमाई के खिलाफ बगावत करेंगे. मैं विनम्रता, मगर सख्ती से मानता हूं कि चरित्र निर्माण अभियान आज वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है.

गुलाम भारत में पैदा हुआ, लेकिन आजाद भारत में आया होश

प्रोफ़ेसर वसीम बरेलवी ने कहा कि मेरा जन्म गुलाम भारत में हुआ था. मगर, मुझे होश आजादी के बाद ही आया था. इसके बाद ही सोचने समझने की क्षमता आई. उन्होंने आगे कहा कि देश की आजादी के दिन शहर में काफी खुशियां थी. बच्चे खेलकूद रहे थे. टोलियां निकल रही थीं, हर तरफ जश्न मनाया जा रहा था. 15 अगस्त को स्कूल में भी मिठाई मिली थी.

लेकिन यह है दर्द

प्रोफेसर वसीम बरेलवी का कहना है कि 14 अगस्त 1947 को अपने नाना के घर थे. उनके यहां रेडियो पर पाकिस्तान बनने की खबर आई थी. इस खबर से सभी लोग अफसोस में आ गए थे, और यह दर्द आज भी है.

भूल जाएंगे लोग नफरत को

उन्होंने कहा कि हर इंसान को अच्छे बुरे का एहसास है, अपनी ईगो (अहम) को छोड़ देना चाहिए. खुद एक दूसरे की तरफ बढ़े. इससे लोग नफरत के बारे में सोचना ही भूल जाएंगे. वह देश और भाईचारे की बातें बताते-बताते भावुक हो गए.

ये सुनाया कलाम

“शाम तक सुबह की नज़रों से उतर जाते हैं, इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं. फिर वही तल्ख़ी-ए-हालात मुक़द्दर ठहरी, नशे कैसे भी हों कुछ दिन में उतर जाते हैं. एक जुदाई का वो लम्हा कि जो मरता ही नहीं, लोग कहते थे कि सब वक़्त गुज़र जाते हैं, घर की गिरती हुई दीवारें ही मुझसे अच्छी. रास्ता चलते हुए लोग ठहर जाते हैं, हम तो बे-नाम इरादों के मुसाफ़िर हैं ‘वसीम’, कुछ पता हो तो बताएं कि किधर जाते हैं.”

रिपोर्ट मुहम्मद साजिद, बरेली

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