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फ़िल्म – अकेली

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निर्देशक -प्रणय मेश्राम

निर्माता – दशमी प्रोडक्शन

कलाकार – नुसरत भरुचा, निशांत दहिया,पीलू, त्साही हलेवी, अमित बोट्रोस और अन्य

प्लेटफार्म – सिनेमाघर

रेटिंग – ढाई

आपदा के समय विदेशी जमीं पर अपनों को बचाने के लिए भारत की तरफ से कई अभियान चलाए गए हैं. उनपर एयरलिफ्ट से लेकर टाइगर ज़िंदा है तक कई फिल्में भी समय समय पर बनती रही हैं. इवैक्यूएशन ड्रामा की अगली कड़ी अकेली है, लेकिन यह फिल्म एक लड़की के अकेले खुद को अपने दम पर बचाने के संघर्ष और हिम्मत की कहानी है. जो एक यादगार थ्रिलर फिल्म बनते-बनते रह गयी, क्योंकि फिल्म की कहानी और स्क्रीनप्ले कमज़ोर है. मौजूदा दौर में लगभग हर ओटीटी प्लेटफार्मस आतंकवाद पर आधारित सीरीज और फिल्मों से पड़ा हुआ है, ऐसे में अकेली कुछ ऐसा परदे पर अलहदा नहीं कर पायी है, जो एक यादगार अनुभव साबित हो.

एक लड़की के जज्बे की है कहानी

फिल्म की कहानी ज्योति (नुसरत भरुचा) की है. उसके परिवार में उसकी माँ (पीलू)और एक भतीजी है. जिनकी जिम्मेदारी उसके ऊपर आ गयी है, क्योंकि केदारनाथ की त्रासदी में उसने अपने भाई और भाभी को खो दिया है. वह इंस्युरेन्स का केस भी हार चुकी है. इसी बीच ज्योति जो एक एयरलाइन में काम करती है, अपनी नौकरी से भी हाथ धो बैठती है. उसे ना चाहते हुए भी नौकरी के लिए भारत छोड़ इराक जाना पड़ता है और वहां अचानक से शुरू हुए सिविल वॉर में ना सिर्फ वह फंस जाती है, बल्किआईएसआई के गिरफ्त में भी आ जाती है. किस तरह से वह आईएसआई को चकमा देकर इराक से भारत पहुंचती है. यह फिल्म उसकी इसी जर्नी की कहानी है.

फ़िल्म की खूबियां और खामियां

फ़िल्म की खूबियों और खामियों की बात करें तो यह एक वुमन सेंट्रिक फिल्म है. आमतौर पर इस जॉनर की फिल्मों का चेहरा नायक बनते रहे हैं , लेकिन इस बार महिला पात्र कहानी का आधार है , जिसके लिए इस फिल्म की टीम बधाई की पात्र है. यह फिल्म एक महिला के हौंसले और जज्बे की कहानी कहता है कि वह अकेली होकर भी बेहद मजबूत और सशक्त है.फिल्म की शुरुआत से उम्मीद बनती है कि यह एक रोमांचक कहानी होगी. फिल्म आंतकवादियों के लिए सेक्स स्लेव के तौर पर युवतियों के अपहरण के मुद्दे को भी सामने लेकर आती है और इस्लाम में सिया और सुन्नी के भेद को भी कहानी में जगह देती है.फिल्म में एक थ्रिलर कहानी के सारे पहलू भी मौजूद थे, लेकिन फिल्म की कहानी कमज़ोर रह गयी और यह फिल्म के विषय के साथ न्याय नहीं कर पायी है. फिल्म के अच्छे पहलुओं में इसकी सिनेमेटोग्राफी है. जो कहानी के साथ बखूबी न्याय करता है. खामियों की बात तो कहानी की शुरुआत ही फ़्लैशबैक से होती है, लेकिन फिर फ़्लैशबैक एक और फ़्लैशबैक कहीं ना कहीं थोड़ा अटपटा सा लगता है. जिस तरह से ज्योति का किरदार अकेले ही बिना किसी मदद, किसी प्लान के आईएसआई के खूंखार आंतकियों को शिकस्त दे देती है, वो इस रियलिस्टिक टच वाली फ़िल्म को मुम्बइया मसाला फ़िल्म बना गया है. जहां एक हीरो या हीरोइन पूरे आंतकी संगठन के लिए काफी है. यह बात भी समझ से परे लगती है कि हवाई अड्डे में ज्योति ने बुरखा क्यों नहीं पहना था,जबकि उसे मालूम था कि पूरा हवाई अड्डा आईएसआई के कब्जे में है.फ़िल्म का क्लाइमेक्स भी कमज़ोर है. आसानी से सिर्फ एक दो स्विच से पूरे हवाई अड्डे की बिजली गुल होना भी कमजोर पहलू है. ज्योति क्लाईमेक्स में बुरी तरह से घायल दिखायी गयी है, लेकिन फ्लाइट तक पहुंचने में आतंकियों को खून की एक बूँद भी कहीं दिखती नहीं है. फ़िल्म के कमज़ोर पहलुओं में इसका संगीत भी है. फिल्म में इराक की भाषा का इस्तेमाल ज़्यादा हुआ है. यह पहलु भी फिल्म से जुड़ाव को कम कर गया है.

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नुसरत की कोशिश रही है अच्छी

अभिनय की बात करें तो यह फ़िल्म अभिनेत्री नुसरत भरुचा की फ़िल्म है, जो कहीं ना कहीं इंडस्ट्री में उनके नाम पर बढ़ते भरोसे की भी बात करता है कि वह अपने कंधे पर किसी फ़िल्म को संभाल सकती है. उनकी कोशिश अच्छी रही है, हां थोड़ा लुक के ज़रिये भी उन्हें अपने किरदार को दर्शाने की ज़रूरत थी. हमेशा बने हुए बाल और हाई हील वाली सैंडल पहने उनका लुक थोड़ा अखरता है. निशांत दहिया अच्छे रहे हैं तो इजराइली एक्टर्स त्साही हलेवी, अमित बोट्रोस ने अपने किरदार में छाप छोड़ी है. पीलू विद्यार्थी औसत रही हैं.

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