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अस्तित्व के साथ अखंड की यात्रा है ‘ओंकार’

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सभ्यता के विकास के साथ ऋषियों ने तप और साधना से जाना कि इस अस्तित्व का एक स्वर है. इस स्वर की ध्वनि ‘ओंकार’ है. यह ओंकार ही ओम है. यह ऐसी ध्वनि है, जो सृष्टि के आरंभ से गूंज रही है. बिना किसी चोट के, बिना किसी अघात के यह ध्वनि निकल रही है. यह अनाहत नाद है.

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डॉ. मयंक मुरारी, आध्यात्मिक लेखक

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इस जगत में हरेक तत्व की अपनी ध्वनि है. अपने स्वर हैं. नदियों का स्वर कलकल, वृक्ष की सरसराहट, हवा का झोंका, संगीत का घर्षण, व्यक्ति की भाषा है. इसी तर्ज पर सभ्यता के विकास से मानव ने ईश्वर का भी नामाकरण कर दिया. विभिन्न नामों से उनको पुकारा गया. यही नहीं, सृष्टि के हरेक तत्व, वस्तु और जीव का नाम भी मानव के द्वारा दिया गया, इसलिए हमने ईश्वर का भी एक नाम दिया. लेकिन वह हमारा दिया नाम है, हमारा स्वर है. इसमें अस्तित्व की कोई सुगंध नहीं है. इसमें उस परमात्मा की कोई रजामंदी नहीं है. बस हम मान कर चलते हैं कि वह ईश्वर है, वह राम है, वह ब्रह्म है, गॉड है.

सभ्यता के विकास के साथ ऋषियों ने तप और साधना से जाना कि इस अस्तित्व का एक स्वर है. इस स्वर की ध्वनि ‘ओंकार’ है. यह ऐसी ध्वनि है, जो सृष्टि के आरंभ से गूंज रही है. बिना किसी चोट के. बिना किसी अघात के यह ध्वनि निकल रही है. यह अनाहत नाद है. हमारी हर आवाज मिट जाती है, क्योंकि वह चोट से उत्पन्न होती है. वे घर्षण हैं- हमारे कंठ, तालु, जीभ, दांत और मूर्द्धा का. घर्षण की अपनी एक समय-सीमा होती है. वह मिट जाती है. भारतीय मनीषा ने कहा कि ओंकार यानी ‘ओम’ एक ऐसी ध्वनि है, जो पैदा नहीं हुई, यह सृष्टि के जन्म से निकल रही है. यह अस्तित्व के साथ एकाकार है.

भारतीय आत्म-साधना का लक्ष्य इसी ओंकार को सुनना है. ध्यान का अर्थ ओंकार के साथ एकाकार होना है. जीवन का अर्थ है- अस्तित्व के साथ संयुक्त हो जाना. साधना के बाद कहा गया कि यह अस्तित्व ध्वनि का ही घनीभूत रूप है और इसकी प्रकृति ओम घ्वनि की तरह है. भारतीय दर्शन में अंतर्यात्रा के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया. दूसरी ओर, पाश्चात्य दर्शन ने बाह्यजगत की यात्रा की. उन्होंने कहा कि सृष्टि पदार्थ का जोड़ है. पदार्थ का निर्माण अणु-परमाणु से हुआ है. विज्ञान कहता है, पदार्थ और उसका सूक्ष्मतम रूप विद्युत है. योग कहता है, चेतना और उसका सूक्ष्मतम रूप ध्वनि है. योग की खोज में ध्वनि चैतन्य है, लेकिन विज्ञान में पदार्थ जड़ है और विद्युत भी जड़ है. इस कारण हमने कहा कि ध्वनि का अंतिम रूप ओंकार है. यह ओंकार ही ओम है, आमीन है. यह विराट है. इसकी विराटता से अंग्रेजी में शब्द बना ओमनीपोटेंट, ओमनीसेंट और ओमनीप्रेजेंट. अस्तित्व में ओम सर्वत्र है, सर्वव्यापक है और सर्वशक्तिशाली है. यह सर्वकाल में है. ओम वह ध्वनि, वह विद्युत ही ईश्वर है.

यह ध्वनि हमारे भीतर गूंजायमान है. अस्तित्व के साथ अखंड रूप से जुड़ा हुआ है. यह जब भीतर गूंजता है, तो आत्मा है. बाहर लोक-परलोक में गूंजता है, तो विराट बन जाता है. जीवन में इस विराट की खोज सभ्यता के शुरुआत से जारी है. अंदर की यात्रा से सब इस विराट की यात्रा पर जाते हैं. नाम अलग-अलग, रास्ते अलग-अलग, पाथेय एक. अस्तित्व के साथ अखंड की यात्रा है. सब वहीं पहुंचते हैं. इसलिए भारतीय मनीषा ने कहा कि ‘एक सत्य विप्र बहुधा बदंति।’ किसी ने उसे निर्वाण कहा, कोई मुक्ति, कोई कैवल्य, कोई कुछ और. कोई कृष्ण का मार्ग अपनाया, कोई बुद्ध का, कोई ईसा और मूसा का, कोई मुहम्मद का, कोई कबीर और नानक का. जितने जीव, उतने रास्ते हैं.

हरेक रास्ते के अंत में वह सदा मौजूद है. हरेक की खोज का तरीका अलग होगा, चाहे जितने पुराने रास्ते का अवलोकन करें, अनुसरण करें. नानकदेव जी का अमूल्य वचन है- ‘एक ओंकार सतनाम’. एक वही, एक ओंकार ही सत्य है. वह सत है, यानी वह आज है, कल था, और आने वाले कल में भी रहेगा. बस उसी का अस्तित्व है, बाकि सबकुछ को खत्म हो जाना है. कोई वस्तु हो, ध्वनि हो या नाम हो. वैदिक ऋषियों ने इसी को ‘ओम तत् सत्’ कहा. अर्थात् वह भगवान ही जीवनी शक्ति का वाहक है और यह जीवनी शक्ति ओम के रूप में सृष्टि में विद्यमान है.

वैदिक ऋचाएं ओम से शुरू होती हैं, जिसका तात्पर्य है कि हमारा सारा ज्ञान, सारे स्वर और हमारे अनुभूति का आरंभ ही ओम ध्वनि है. ऋषियों ने ऋचाएं सुनीं, बोला नहीं. इस कारण वैदिक ग्रंथ को श्रुति भी कहा गया. इस आंतरिक ध्वनि या विद्युत ऊर्जा के कारण ही हम बोल पाते हैं, श्वास लेते हैं, चलते हैं. यह ओंकार की ध्वनि सदैव हमारी अंदर की गहराई से आ रही है. यह जागने का इशारा है. वह ईश्वर इसके माध्यम से संदेश देता है कि जागने का समय आ गया है.

बुद्ध ने भी सात साल तक साधना के बाद अपनी देशना में कहा कि वह सदैव अंदर बैठा है. हम बाहर भागते हैं. अपने अंदर उसकी खोज करो. यशोधरा के सवाल पर महात्मा बुद्ध ने यही बात कही कि परमतत्व की खेाज के लिए घर छोड़ना अनिवार्य नहीं था. हमारे स्वर में हर पल उनकी ही ध्वनि प्रस्फुटित हो रही है. लेकिन भीतर इतने शब्द, इतनी ध्वनियों का शोरगुल है कि हमारा मन अंतर की आवाज सुन ही नहीं पाता है और हम सदा भटकते रहते हैं.

तीन अक्षर में पूरे भारतीय दर्शन का समाया है मर्म

श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन को बताते हैं कि वह वेदों में ओंकार हैं. उस समय तीन वेद थे- ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद. ऐसे में वेद के सारे दर्शन, ज्ञान, विचार एक तरफ और भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- वेद में केवल ओम. तीन अक्षर में पूरे भारतीय दर्शन का मर्म समाया है. ओम यानी अ, उ और म. ईश्वरीय ऊर्जा जो विद्युत या ध्वनि रूप में है, उसका ओंकार बीज रूप है. इस बीज से ही सारे स्वर, सारी ध्वनियां निकलती हैं. इस बीज से वेद निकलते हैं और इस बीज से दर्शन निकलता है. यही सबकुछ है.

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