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मांय माटी: मलयालम भाषा के प्रसिद्ध आदिवासी उपन्यासकार नारायण को जानिए

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महादेव टोप्पो ने पोस्ट ऑफिस में काम करते हुए भी पांच कहानी संग्रह और नौ उपन्यास लिखे. इनकी रचनाएं अंग्रेजी और फ्रेंच के अलावा कई भारतीय भाषाओं में अनुदित हुईं और कई विश्वविद्यालयों में पढ़ायी जा रही हैं. तो आइए जानते हैं मलयालम भाषा के प्रसिद्ध आदिवासी उपन्यासकार नारायण जी को...

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महादेव टोप्पो

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फेसबुक कभी-कभी अच्छा लगता है. कभी-कभी बहुत बुरा. जब आप को ऐसी सूचनाएं या जानकारियां मिलती हों जो आपके काम की हों तो आपको आनंद आता है, लेकिन फेसबुक देखते किसी प्रिय साथी के बारे कुछ दुखद समाचार मिलता है तो लगता है यह बुरा है. फेसबुक नहीं देखने से जो दुर्घटना होनी है वह टाली नहीं जा सकती. कुछ ऐसा ही हुआ 16 अगस्त की शाम को कि फेसबुक देखते केरल की हिंदी शोध छात्रा केएन श्रीलेखा के मलयालम में लिखे पोस्ट को देखते लगा. मलयालम पढ़ना नहीं आता, लेकिन वहां लगे नारायण जी के चित्र को देखकर जानने की इच्छा हुई. मुझे लगा कि संभवतः किसी बड़े पुरस्कार की घोषणा नारायण जी के नाम हुई है. लेकिन, कुछ समझूं, इसके पहले ही कोच्चि के अन्य शोध छात्र प्रत्यूष जी को फोन आया कि- सर, बुरी खबर सुना रहा हूं. और, उन्होंने बिना रुके बताया – नारायण जी नहीं रहे, मलयालम के आदिवासी साहित्यकार.

याद आया कोच्चि के श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय से जब आदिवासी सम्मेलन के लिए निमंत्रण मिला था, तो इसे स्वीकारने की एक वजह यह थी कि नारायण जी से मुलाकात करने की इच्छा. मलयालम का एक बड़ा आदिवासी साहित्यकार कैसे रहता है. मलयाली साहित्य जगत उसे कैसे देखता है. उसकी क्या स्थिति है. यह उत्सुकता बनी हुई थी. प्रायः जब भी किसी ऐसे साहित्यकार के बारे मुझे पता चलता है उन्हें पत्र लिखता हूं या मिलने का प्रयास करता हूं. या फोन नंबर मिलने से फोन करता हूं या मेल. नारायण जी से मेरी पहली मुलाकात 31 मई 2002 को दिल्ली में हुई थी, जब हम दोनों साहित्य अकादमी और रमणिका फाउंडेशन द्वारा आयोजित आदिवासी साहित्य सम्मेलन में भाग लेने दिल्ली पहुंचे थे. वहां रात्रि भोजन करते कई मित्रों से परिचय हुआ. उनमें नारायण जी भी थे. साथ में श्रीमती नारायण जी भी थीं. उन दोनों उनको हिंदी नहीं आती थी. फलतः अंगरेजी में कुछ बातें करने की कोशिश की. हमें पता चला वे मलयालम के एक महत्वपूर्ण लेखक हैं और अकेले आदिवासी साहित्यकार. अगले दिन साहित्य अकादमी के कार्यक्रम में उन्होंने अंगरेजी में ही अपनी बातें रखीं.

हम ज्यादा बातें नहीं कर रहे थे, लेकिन एक दूसरे के बारे जानकर बहुत खुश थे. वहां आया हर साहित्यकार खुश था क्योंकि दिल्ली में पहली बार देश के कोने-कोने से आये आदिवासी साहित्यकार एक दूसरे से मिल रहे थे. एक दूसरे लेखन के बारे परिचय पा रहे थे. इस आयोजन ने देश को पहली बार आदिवासी साहित्य को इतने बड़े पैमाने पर जानने का अवसर दिया था. आयोजन के बाद मैं कोलकता चला गया और नारायण जी और अन्य मित्र भी अपने अपने घर चले गये. लेकिन मेरे मन में नारायण जी के लिए एक खास जगह बन गयी. वह इसलिए कि किसी दक्षिण भारतीय भाषा में लिखनेवाले किसी आदिवासी साहित्यकार से मैं पहली बार मिल रहा था. उनके उपन्यास कोच्चरेत्ती (छोटी अरया बहन) की चर्चा सुन चुका था. यह उपन्यास लिखने के करीब दस साल बाद प्रकाशित हुआ था. प्रकाशित होते ही यह चर्चा में आया, क्योंकि किसी आदिवासी जीवन के बारे उन्हीं के कलम से लिखा साहित्य पाठक पहली बार पढ़ रहे थे. पाठकों, समीक्षकों व विद्वानों को ध्यान इस नये विषय आदिवासी-जीवन के चित्रण पर गया और इस उपन्यास को केरल साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ.

तब दिल्ली में जितने लोग थे, उनमें लक्ष्मण गायकवाड़, हरिराम मीणा और नारायण जी और पूर्वोत्तर के लेखक, सभी मेरे लिए विशेष आकर्षण के केंद्र थे. चूंकि लक्ष्मण गायकवाड़ मात्र बत्तीस साल की उम्र में किसी भी भारतीय भाषा में साहित्य अकादमी का पुरस्कार पाने वाले लेखक थे, फलतः उनकी यह उपलब्धि मुझे बहुत ही प्रेरक और सम्मानजनक लगती है. ये दोनों तब और आज भी अहिंदीभाषी क्षेत्र से बड़े आदिवासी लेखक हैं. वर्ष 2018 के जनवरी महीने में जब श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय, कालडी कोच्चि में आदिवासी साहित्य सम्मेलन में भाग लेने के लिए निमंत्रण मिला तो मैंने तुरंत हामी भर दी.

कोच्ची पहुंचते ही मैंने मेरे सहयोगी प्रत्यूष से कहा कि नारायण जी से मिलना चाहूंगा. दूसरे दिन प्रत्यूष जी ने बताया कि हम कार्यक्रम समाप्ति के अगले दिन उनसे मिल सकेंगे, तब तक वे उनसे मिलने का समय ले लेंगे. इस कार्यक्रम में अनुज लुगुन और महुआ माजी भी आमंत्रित थे. लेकिन अनुज को लौटना था अतः वे लौट गये. 20 जनवरी 2018 को प्रत्यूष, महुआ माजी और मैं उनके घर गये. नारायण जी और श्रीमती नारायण जी से मिलकर हमारी दिल्ली की यादें ताजी हो गयीं. हम देर तक बात करते रहे. उन्होंने अपनी किताबें दिखायीं तथा पुरस्कार भी दिखाये. हम सभी ने उनके साथ कई चित्र खिंचवाये. केरल शैली का मकान मुझे अच्छा लगा. अतः हमने घर से निकलकर कर भी फोटो खींचे.

उन्हें केरल साहित्य अकादमी के अलावा तोप्पिल रवि फाउंडेशन पुरस्कार प्राप्त हुआ था. उनके एक उपन्यास का कैथरीन थंकम्मा ने अंगरेजी में ‘द अरया वुमन’ शीर्षक से अनुवाद किया था जोकि ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित किया. इसे वर्ष 2011 में इकॉनॉमिस्ट क्रॉसवर्ड पुरस्कार प्रदान किया गया था. उन्होंने पोस्ट ऑफिस में काम करते हुए भी पांच कहानी संग्रह और नौ उपन्यास लिखे. इनकी रचनाएं अंग्रेजी और फ्रेंच के अलावा कई भारतीय भाषाओं में अनुदित हुईं और कई विश्वविद्यालयों में पढ़ायी जा रही हैं. उनसे ढेर सारी बातें हुईं. मैंने कई बातें नोट भी किया कि कुछ लिखूंगा, लेकिन लिख न सका. वे मलरयार आदिवासी समुदाय से थे. उनका जन्म 26 सितंबर 1940 में हुआ था और देहावसान 16 अगस्त 2022 को.

झारखंड से बाहर के साहित्यकारों से मिलकर हमेशा प्रेरणा मिलती है कि वहां की राज्य सरकारें अपनी साहित्यिक प्रतिभाओं को पहचानती हैं और उन्हें सम्मानित, पुरस्कृत करतीं हैं. फलतः वे राज्य के साहित्यिक, सांस्कृतिक दूत या शख्सियत के रूप में मान्यता मिलती है. अतः, यह देखकर दुख होता है कि झारखंड राज्य के गठन के 22 साल हो जाने के बाद भी यहां साहित्य अकादमी, कला अकादमी आदि नहीं है. इसी प्रकार साहित्य, कला, रंगमंच, सिनेमा, खेल आदि के क्षेत्र में राज्य के नाम रोशन करनेवालों को पुरस्कार या सम्मान आदि देने का कोई नियमित वार्षिक आयोजन नहीं होता. फलतः, हमारे राज्य के लेखक, कलाकार, निर्देशक आदि पड़ोसी या केंद्र सरकार से पुरस्कार, सम्मान पाने के बाद ही पहचाने जाते हैं. जैसे अगर नारायण जी को केरल साहित्य अकादमी पुरस्कृत नहीं करता तो हम उनकी कृति के बारे नहीं जानते. आशा है, साहित्य, संस्कृति, कला, नाटक, गीत-संगीत, सिनेमा से जुड़ी प्रतिभाओं की भी पहचान बनेगी, मान्यता मिलेगी. फिलहाल केरल के इस महान आदिवासी साहित्यकार नारायण जी को अंतिम जोहार जो हम जैसे अनेक लेखकों के प्रेरणा-स्रोत रहे.

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