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मांय माटी: प्रकृति, प्रेम और स्नेह का पर्व ‘करम’

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झारखंडी जिंदगी में करम का महत्व है. यह पर्व प्रकृति की सुंदरता, प्रेम, उसके साथ मानव जीवन का सहजीविता और साहचर्य का पर्व है. इंसान प्रकृति के साथ रहता है. दुनिया में ऐसी कोई जगह नहीं जहां इंसान के साथ प्रकृति नहीं है. उपवास और विर्सजन के दौरान करमगीत और नृत्य से अखरा गुलजार रहता है.

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Karam Puja 2022: कृति, प्रेम और सनेह का पर्व ‘करम’ झारखंडी जनजीवन के विभिन्न कर्मकांडों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखता है. झारखंडी जिंदगी में करम का महत्व है, इसे वही समझ सकता है, जो प्रकृति को जानता और समझता है. यह पर्व प्रकृति की सुंदरता, प्रेम, उसके साथ मानव जीवन का सहजीविता और साहचर्य का पर्व है. इंसान प्रकृति के साथ रहता है. दुनिया में ऐसी कोई जगह नहीं जहां इंसान के साथ प्रकृति नहीं है. उपवास और विर्सजन के दौरान करमगीत और नृत्य से अखरा गुलजार रहता है. मांदर, ढोल, ढांक, नगाड़ा, झांझ और ठेचका से संपूर्ण क्षेत्र गूंजता रहता है.

अधिकतर क्षेत्रों में एक सप्ताह पहले से नाच-गान आरंभ होता है. करम के गीतों में अनेक प्रकार की अभिव्यक्तियां चित्रित होती हैं. झारखंड प्रदेश के अलावा झारखंडी समुदाय कोड़ा-राजी कमाने हेतु जहां-जहां गये हैं, वहां-वहां ‘करम’ भी उनके साथ-साथ गया है. परब का साथ छूटा नहीं है. असम, ओड़िशा, पश्चिम बंगाल के चाय-बागान, अंडमान और छतीसगढ़ में जहां-जहां आज झारखंड के लोग बसे हैं ‘करम पर्व’ की धूम है. भादो का महीना और एकादशी का दिन पवित्र माना जाता है. ऐसे शुभ दिन में गांव में सुख, शांति और संपन्नता के लिए गांव का पाहन अखरा में करम की डाली गाड़ता है.

करम की डाली संदेश देती है- श्रम करने की, ईष्या-द्वेष को तिलांजलि देकर भाईचारे का जीवन जीने तथा अच्छी फसल पैदा करने की. आदिवासी जनजातियां और सदान दोनों ही सफल जीवन के लिए इसे संबल मानते हैं. यह पर्व ऐसे समय होता है जब संपूर्ण क्षेत्र में धान की रोपनी का काम समाप्त हो चुका होता है और वह धान पल्लवित होकर लहलहाने लगता है. किसान यह देखकर झूम उठता है.

करम त्योहार में करम गोसाई, करम राजा की पूजा की जाती है. करम गोसाईं की स्तुति में विशेष गीत गाए जाते हैं. खास करम गीत छोटानागपुर की लाखों नारियां अपनी अनन्य भक्ति श्रद्धा करम गोसाईं के पवित्र चरणों में अर्पित करती हैं. पुरुष भी करम पर्व उत्साह से मनाते हैं. लोग इसे आज महोत्सव के रूप में मनाने लगे हैं. पूरे आदिवासी और सदान समुदाय करम राजा की अगुवाई में उमंग-उत्साह से लग जाते हैं. जानकारी के मुताबिक यह पर्व झारखंड प्रदेश के अलावा बांग्ला देश, पाकिस्तान, नेपाल, इंगलैंड, मारीशस और अमेरिका में बसे झारखंडियों द्वारा पूरे रीति-रिवाज और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. इस मौके पर उनकी अपार खुशियां देख लगता है कि उनके लिए स्वर्ग का द्वार ही खुल गया. क्या आदिवासी, क्या सदान, सभी जाति व धर्म के लोग इस ‘करम पर्व’ में झूम उठते हैं.

‘करम पर्व’ को झारखंड के आदिवासी और मूलवासी सदान लोग भादो शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन बड़े धूम-धाम के साथ मनाते हैं. भादो के महीने में चारों ओर खेती की हरियाली सबका मन मोह लेती है. मौसम काफी सुहाना होता हैं. प्रकृति वर्षा बुनी से नहा-धोवा के, सज-धज-संवर के पूरे वातावरण को ताजगी और उमंग से भर देती हैं. झारखंडी जनसमुदाय भी ऐसे ही हुलास से प्रकृति का स्वागत और पूजा-अर्चना कर के उसके प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित करते हैं. करम पर्व सिर्फ आडंबर या दिखावा का पर्व नहीं है. यह पर्व तो झारखंडी जीवन-दर्शन और संस्कृति का मूल मर्म है. करम प्रकृति को बचाने, उसे समृद्ध करने और जिंदगी को प्रवाह देने वाला पर्व है.

मुख्यधारा का समाज इसे नहीं जानता, इसलिए वे लोग आज ‘ग्लोबल वार्मिंग’ जैसी समस्या से जूझ रहे हैं. हमारेपूर्वजों ने शुरू से ही पर्यावरण की सुरक्षा के लिए अपने सभी धर्म के साथ पेड़-पौधों को जोड़, उसकी पूजा कर, उसे बचाते आ रहे हैं. हमें इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि प्रकृति है तो जीवन है. करम त्योहार मनुष्य और प्रकृति से संबंध को मजबूत करता है साथ ही गांव और समाज के संबंध को भी. एक गांव में करम गड़ाता है, इसमें अगल-बगल कई गांवों के लोग शामिल होते हैं.पहले करम के मौसम में पूरा इलाका बांसुरी की सुरीली तान से गूंज उठता था.

अखड़ा में मांदर के गूंज के बीच महिलाओं के जुड़ों में सफेद बगुला के पंख से बना-कलगा के साथ जावा फूल पूरे महौल को खुशियों में सराबोर कर देता था. लेकिन दुखद बात यह है कि विकास की आंधी इन तमाम मूल्यों को अपने आगोश में समेटता जा रहा है. आज जब हम करमा मना रहे हैं, तब हमें यह चिंतन करना होगा कि औद्योगिकीकरण के इस दौर में करमा के अस्तित्व को किस तरह से बचाया जाए, नहीं तो एक ऐसा समय आएगा, जब जंगल-झाड़, नदी-नाला, गांव-अखड़ा, खेत-खलिहान कुछ नहीं बचेगा, तब हमारा यह करमा त्योहार लोक गीतों- लोककथाओं में ही जीवित रहेगा.

डॉ बीरेंद्र कुमार महतो, (असिस्टेंट प्रोफेसर, यूनिवर्सिटी डिपार्टमेंट आफ टीआरएल, रांची यूनिवर्सिटी, रांची

महादेव टोप्पो, (कवि व लेखक), डॉ.कृष्णा गोप, (संस्थापक/अध्यक्ष- खोरठा डहर)

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