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झारखंड के पास अकूत खनिज संपदा, फिर छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड से पीछे क्यों?

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अकूत खनिज संपदा होने के बावजूद अस्थिर सरकारों, राजनीतिक प्रयोगों और अदूरदर्शिता के साथ परंपरागत पुरातन पंथी तदर्थवाद ने झारखंड की गति न सिर्फ धीमी कर दी बल्कि छोटी-छोटी समस्याओं में उलझा कर इसे एक ऐसा राज्य बना दिया.

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झारखंड राज्य बनने के समय अनेक पत्रकारों, अर्थशास्त्रियों और अन्य विशेषज्ञों ने कहा था कि झारखंड बहुत बड़ी संभावनाओं वाला राज्य बनेगा और अति उत्साह में रूर घाटी के समकक्ष बताया गया था. यह भी कहा गया था कि यह सबसे समृद्ध राज्य होगा.

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एक साथ अस्तित्व में आये राज्यों से पीछे है झारखंड

अकूत खनिज संपदा होने के बावजूद अस्थिर सरकारों, राजनीतिक प्रयोगों और अदूरदर्शिता के साथ परंपरागत पुरातन पंथी तदर्थवाद ने झारखंड की गति न सिर्फ धीमी कर दी बल्कि छोटी-छोटी समस्याओं में उलझा कर इसे एक ऐसा राज्य बना दिया. इसके साथ अस्तित्व में आये राज्यों से झारखंड न सिर्फ पीछे है बल्कि अकूत धन संपदा के बाद भी एक गरीब राज्य के रूप में जाना जाता है.

विकास योजनाओं को शहर केंद्रित रखा गया

नीतिगत मामलों की बात करें तो सबसे बड़ी भूल जो राजनेताओं और नीति निर्धारकों से हुई वह यह कि सारी विकास योजनाओं को शहर केंद्रित रखा गया जिस कारण छोटे कस्बों से लेकर राजधानी रांची तक भीड़ बढ़ती गई और साथ ही समस्याएं भी! कहीं भूगर्भ जल नीचे चला गया तो कहीं ट्रैफिक जाम की इतनी बड़ी-बड़ी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं कि सरकार के हाथ पैर फूल रहे हैं. वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में रिंग रोड, बाइपास जैसे उपाय किए जा रहे हैं लेकिन मौलिक विचार अभी तक किसी ने नहीं किया.

विकास को शहर केंद्रित न कर आसपास के क्षेत्रों तक बढ़ाना चाहिए

जब स्थान सीमित हो और आवश्यकताएं बहुत हों तो विकास को शहर केंद्रित न कर आसपास के क्षेत्रों तक बढ़ा देना चाहिए. इसका सटीक उदाहरण दिल्ली एनसीआर, नोएडा और गुरुग्राम है. बेंगलुरु, मुंबई जैसे महानगर भी अच्छी यातायात व्यवस्था के कारण डेढ़ 200 किलोमीटर तक से अपने कामकाजी लोगों को आने-जाने की सुविधाएं देते हैं और मुख्य शहर के ऊपर दबाव कम होता जा रहा है, साथ ही ग्रामीण क्षेत्र भी विकसित हो रहे हैं जिससे उनकी भी अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही है और छोटे उद्योग धंधों या व्यवसाय से एक बड़ा उद्योग स्थापित हो रहा है.

झारखंड की बड़ी समस्या यातायात

झारखंड की बड़ी समस्या यातायात की है अभी तो राजधानी रांची में कुछ फ्लाईओवर बनने शुरू हुए हैं जिन्हें आज से 20 साल पहले बनना चाहिए था इसी प्रकार पटना में मेट्रो शुरू होने जा रहा है , जयपुर में शुरू हो चुका लगभग सभी राजधानियों ने इस पर विचार किया लेकिन झारखंड कभी मोनोरेल तो कभी कुछ इस तरह के प्रयोगों से ना सिर्फ जनता के पैसे बर्बाद करता रहा बल्कि समय भी गंवाता गया. यदि दिल्ली एनसीआर से सीख लेकर झारखंड में मेट्रो शुरू कर दिया जाता और राजधानी रांची को डाल्टेनगंज, बोकारो, जमशेदपुर, धनबाद, चाईबासा और कोडरमा जैसे शहरों से धीरे-धीरे फेज वाइज जोड़ दिया जाता तो जैसे नोएडा और गुरुग्राम तेजी से विकसित हुए उसी प्रकार एक विकास की नई रोशनी चारों तरफ बढ़ सकती थी, लेकिन किसी ने इस पर विचार तक नहीं किया.

रांची में बढ़ रहा अनावश्यक दबाव

इसी प्रकार नये सरकारी कार्यालय मुख्य शहरों में ही बनाए जा रहे हैं जिससे भूमि भवन की रजिस्ट्री इलाज और अन्य सरकारी कामकाज के लिए अनावश्यक रूप से शहरों के ऊपर दबाव बढ़ता जा रहा है. होना यह चाहिए था कि राजधानी रांची हो या कोई भी झारखंड का शहर उसे व्यवहारिक दृष्टिकोण के आधार पर धीरे-धीरे मुख्य शहर से बाहर की तरह विकसित करना चाहिए था जहां सरकारी कार्यालय खुलते वहां अपने आप शहरीकरण हो जाता, बाजार अपने आप विकसित हो जाते सरकारों को सिर्फ यातायात बिजली और सुरक्षा जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करानी थी.

बड़े-बड़े जलाशयों की साफ-सफाई पर देना होगा ध्यान

पेयजल और अग्निशमन जैसी सुविधाओं के नवीनीकरण पर तो कार्य हुए, पाइपलाइन बिछाई लेकिन दशकों पहले से जो जलापूर्ति के बड़े-बड़े स्त्रोत डैम आदि थे उनको कभी साफ तक करने की जहमत नहीं उठाई. इसकी वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में दूरदराज से पानी लाने जैसी व्यवस्था विकसित करनी चाहिए थी और दबाव कम करने के लिए जहां पानी हो वहीं पर शहरों को धीरे-धीरे विकसित करना चाहिए था, इन उपायों से बाहर से आने वाली बड़ी कंपनियां जो लाखों करोड़ों रुपए निवेश करने की इच्छा रखती है उन्हें भी सुविधा होती लेकिन यह सब करने के बजाय स्थानीय राजनीति में उलझ कर लगभग सभी सरकारें छोटे-छोटे मुद्दों पर ही केंद्रित रहीं.

नोट – सुनील सिंह बादल के विचार

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