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झारखंड की कला का दस्तावेज

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झारखंड की कला परंपरा को एक ही पुस्तक में मणिमाला की मोती की तरह पिरो कर लिखी गयी यह उम्दा पुस्तक हाल ही में सामने आयी हैं

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दीपक सवाल:

झारखंड में दीवारों पर बनी लोक कलाकृतियों की अपनी ही प्रामाणिकता और आकर्षण है. ये हमारे विविधतापूर्ण सांस्कृतिक इतिहास की मूल्यवान थाती हैं. झारखंड में लोक कला का विकास परंपरागत विश्वासों, रहस्यात्मक और अतीत के संस्कारों पर आधारित था. यहां लोक कला के माध्यम से जो कार्य हुआ, विज्ञान और दर्शन की दृष्टि से उसकी तुलना नहीं की जा सकती. ये कला सिर्फ अमूल्य धरोहर ही नहीं, वरन समृद्ध परंपरा संपन्न सभ्यता एवं जीवंत संस्कृति के इतिवृत हैं. सदियों से रचे-बसे, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सहज परंपरागत ढंग से हस्तांतरित होने वाली इन कलाओं में लोक मानस के हर्ष उल्लास, आशा-आकांक्षा, कुंठा-संत्रास आदि मनोभावों की कल्पनात्मक सरस अभिव्यक्ति मिलती है. अभिव्यक्ति के स्तर पर जनजातीय समाज जिन विषयों को अभिव्यक्त करती है वे सहजता को दर्शाती है. आजादी के बाद के वर्षों में यहां कला में निःसंदेह और निखार आया है, लेकिन उसने जो खोया है वह भी कम नहीं है.

पचहतर वर्षों में इनकी आत्मा पर कृत्रिमता का प्रहार हुआ है. इस प्रहार से कुछ कलाओं को जरूर अच्छी खासी ख्याति मिली है, लेकिन कुछ लोक कलाएं बहुत पीछे छूट गयी. कई कलाएं तो लुप्त हो गयीं और कई विकृत हो गयीं. पर गांव के लोग उनको अब भी प्यार से बचाये हुए हैं, क्योंकि वे मात्र सुख और सौंदर्य की वस्तुएं नहीं, बल्कि वे धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक ज्ञान, सामाजिक सरोकार से संबद्ध हर वस्तु के प्रसार के माध्यम भी हैं. कला की विभिन्न वस्तुओं में मानवीय भावनाओं का संपूर्ण सप्तक अभिव्यक्त होता है. पालने से लेकर चिता तक के चित्र और हैं. विवाह और वैवाहिक जीवन के चित्र और मोटिफ मिलते हैं. कला में इन विषयों को मिथकों, इतिहास, दंतकथाओं और लोककथाओं से लिया गया है, जो लोगों को प्रेरणात्मक संदेश देती है.

इन परंपरागत शैलियों की ही नहीं, अनुकृतियों की भी देश-विदेश के कला बाजार में भारी मांग है. आज झारखंड में कई नयी कला शैली भी उभर कर सामने आ रही. मनोज कुमार कपरदार की पुस्तक ‘झारखंड की आदिवासी कला परंपरा’ उसी को तलाश करने का एक सार्थक प्रयास है. इस पुस्तक में लेखक ने झारखंड में विकसित हो रही नई कला शैली स्ट्रा आर्ट, मंडवा कला, जनी शिकार पेंटिंग, टोटका कला जैसी कला की चर्चा की है, वहीं विलुप्त हो चुकी कोल भित्ति चित्र की चर्चा भी है. लेखक मनोज कुमार कपरदार की पुस्तक झारखंड की आदिवासी कला परंपरा पढ़ने से यह भ्रम टूट जाता हैं कि इस क्षेत्र के निवासी सदा से पिछड़े रहे हैं. झारखंड की कला परंपरा को एक ही पुस्तक में मणिमाला की मोती की तरह पिरो कर लिखी गयी यह उम्दा पुस्तक हाल ही में सामने आयी हैं. झारखंड की कला परंपराओं पर लिखी गयी यह पहली पुस्तक सही मायने में झारखंड के कला का एक दस्तावेज बन गया है.

प्रभात प्रकाशन, नयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित 142 पृष्ठों की इस पुस्तक के मध्यम से लेखक मनोज कुमार कपरदार ने झारखंड की कला शैली की रेखाओं और उखड़ती परंपराओं के संसार को जीवंत करने का प्रयास किया है. श्री कपरदार जमीन से जुड़े हुए एक चिंतनशील और विचारक लेखक और कला समीक्षक हैं, जो अपनी रचनाओं के माध्यम से झारखंड की कला संस्कृति को बनाये बचाये रखने का स्वप्न देखते रहे हैं. इस पुस्तक में झारखंड की चौंतीस पारंपरिक कला पर गंभीर चर्चा हैं, जो कलाविदों, कला पारखियों, कलाकारों, कला संग्राहकों और कला के विद्यार्थियों को प्रभावित करेगी. निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि मनोज कुमार कपरदार की यह पुस्तक अपने पीछे एक अनुगूंज छोड़ती है .

पुस्तक का नाम

झारखंड की आदिवासी कला परंपरा

प्रकाशक

प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली

मूल्य : 250 रुपये

पृष्ठ: 142

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