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वेश बदल कर भागे थे इंदर सिंह नामधारी, 17 महीने जेल में कटे

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इंदर सिंह नामधारी बताते हैं कि इमरजेंसी के दौरान 17 महीने मैंने जेल में बिताये . इंदिरा की हुकूमत ने राजनीतिक विरोधियों को एक नये कानून मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट (मीसा) के तहत बंदी बनाया था.

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इंदर सिंह नामधारी
झारखंड विधानसभा के पूर्व स्पीकर

पचास साल पहले जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए आंदोलन में गजब का उत्साह था. इंमरजेंसी के दौर में रातोंरात विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जाता था. सेंसरशिप का हवाला दे कर अखबारों का भी मुंह बंद करा दिया गया था. इमरजेंसी के दौरान मेरी भी गिरफ्तारी को लेकर पुलिस लगातार छापेमारी कर रही थी. इसी क्रम में पुलिस मेरे घर पहुंची. जैसी ही पुलिस के पहुंचने की भनक मुझे लगी, तो वह वेश बदल कर भाग निकले. गिरफ्तारी से बचने के लिए मैं कोलकाता, दिल्ली, हरियाणा और चंडीगढ़ में रिश्तेदारों के घर छुपा रहा. दिल्ली वापस आकर कैलाशपति मिश्र से मिला. उस वक्त श्री मिश्र हमारे परिवार की कोठी में रह रहे थे. उनके साथ कोलकाता में रहा. दो-तीन माह के बाद जब यह लगा कि पुलिस दबिश कम पड़ रही है, तो मैं किसी तरह छुपते-छुपाते डालटनगंज पहुंचा.

इस दौरान ज्यादातर भूमिगत रहे, लेकिन इसके बाद भी पुलिस उनके पीछे पड़ी रही. सितंबर की एक शाम एक स्कूल में अपने भतीजे के साथ फुटबॉल खेलने चले गये. इसी दौरान कुछ ही देर में पुलिस वहां पहुंच गयी. चारों तरफ से घेर लिया और मुझे गिरफ्तार कर डालटनगंज जेल में डाल दिया. इमरजेंसी के दौरान 17 महीने मैंने जेल में बिताये . इंदिरा की हुकूमत ने राजनीतिक विरोधियों को एक नये कानून मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट (मीसा) के तहत बंदी बनाया था. यह ऐसा अंधा कानून था, जिसमें वकील पैरवी नहीं कर सकते थे.

कहते हैं न कि हर बुराई के पीछे कुछ अच्छाई छुपी होती है. जेल के दौरान जब मेरी मेडिकल जांच हुई, तब मुझे पता चला कि मैं मधुमेह से पीड़ित हूं. इसके बाद खान-पान में संयम बरतने लगा. जेल में अनिश्चितकाल के लिए रहने की अफवाहें तब परेशान करती थीं. इस दौरान कई लोग तो बीस सूत्री कार्यक्रम का समर्थन करके जेल से निकल गये.
इस दौरान उनके गुरुजी भी जब जेल में उनसे मिलने आये, तो उन पर भी बीस सूत्री कार्यक्रम का समर्थन करने का दवाब बना, क्योंकि इसके समर्थन करने के बाद 24 घंटे के भीतर जेल से बाहर आने की गुंजाइश थी, लेकिन मैंने ऐसा करने से इनकार कर दिया क्योंकि यह कदम से सीधे तौर पर पार्टी के साथ विश्वासघात होता. आपातकाल के दिनों में सभी अधिकारी दमनमनकारी नहीं थे. सरकार के दवाब के बाद भी मानवीय आधार पर राजनीतिक बंदियों की मदद भी करते थे. तब के तत्कालीन जेल अधीक्षक बीएल दास जेपी के प्रबल समर्थक थे. इसके कारण उन्हें सरकार को कोप सहना पड़ा. उन्हें सस्पेंड कर दिया गया, लेकिन 1977 में इमरजेंसी हटने के बाद नयी सरकार ने उनके निलंबन को वापस ले लिया था.

आंदोलन के मुद्दे अब भी कायम

हम सोये वतन को जगाने चले हैं-मुरदा वतन को जिलाने चले हैं. वर्ष 1974 में जेपी आंदोलन के दौरान यह गीत छात्र नौजवान गाया करते थे. हम इस गीत का जिक्र इसलिए कर रहे हैं कि मेरी समझ से छात्रों के उस आंदाेलन के जो मुद्दे थे, वे खत्म नहीं हुए हैं. आज भी वे सवाल जिंदा हैं, जिन्हें लोकनायक ने उठाया था.
मेरा मानना है कि सत्ता भी परिवर्तन का बड़ा हथियार है. आंदोलन के बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी. बिहार में कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने. गरीबों के बहुत सारे काम हुए. किसानों के लगान फ्री, महिलाओं को स्नातक की शिक्षा फ्री जैसी आम लोगों से जुड़ी योजनाएं लागू की गयीं. इसी आंदोलन की उपज लालू प्रसाद के हाथों में बिहार की बागडोर आयी, तो गरीब व कमजोर लोगों को जुबान मिली.

हालांकि यह भी उतना ही सच है कि जेपी ने जिस संपूर्ण क्रांति का नारा दिया था, उस हिसाब से परिवर्तन नहीं हुआ. जेपी आंदोलन से हम बहुत करीब से जुड़े रहे थे. कई बार जेल भी जाना पड़ा. आंदोलन के उस सफर में साथ देने वाले कई दोस्त अब इस दुनिया में नहीं हैं, पर कई अब भी साथ हैं. हम पटना के चांदमारी रोड और यारपुर के जोगिया टोली इलाके में रहते थे. नौजवान थे. मुहल्ले के लड़कों ने आंदोलन में जाने का फैसला लिया. मुझे लोग नेता कह कर बुलाते थे. मुझे बड़े नेताओं से मिलने की जिम्मेवारी सौंपी गयी. हमलोगों ने 18 मार्च को चांदमारी रोड पर एक टेंट लगाया. उसमें स्वत:स्फूर्त लोग जुटने लगे. बड़ी संख्या में महिलाएं आने लगीं. उनके लिए अलग से टेंट लगा. उन दिनों शिवानंद तिवारी छात्र आंदोलन के उभरते नेता थे.

वह भी हमारे टेंट में आये. धीरे-धीरे हमारी पहचान बढ़ती गयी. इसी बीच जेपी से मिलना हुआ. पांच जून को गांधी मैदान में जेपी का प्रसिद्ध भाषण हुआ. रैली हुई. इसके बाद कई कार्यक्रम घोषित हुए. जेल भरो अभियान हुआ. हमलोग भी पकड़ाये. हमलोगों को फुलवारी जेल भेजा गया. फुलवारी जेल स्वीकार नहीं किया, तो बक्सर जेल भेजा गया. उसे भी स्वीकार नहीं किया. हमलोग बाहर आ गये. कुछ अखबारों में खबर छप गयी कि पकड़े गये लोग पुलिस हिरासत से भाग गये. जेपी को जब इस बात की खबर मिली, तो वह नाराज हुए. उनकी सलाह पर सभी लोग स्वत: फुलवारी शरीफ जेल गये. इसके बाद एक बार भवेश चंद्र प्रसाद के आवास पर गुप्त बैठक तय हुई. उन दिनों रामविलास पासवान भी हमारे साथ थे. हम, पासवान जी, नरेंद्र सिंह समेत छह लोग भवेश चंद्र प्रसाद के आवास पर गये. इस बैठक की जानकारी पुलिस को मिल गयी. हमलोग जैसे ही पहुंचे, पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. हमसे नाम पूछा गया. हमने मोहन मिश्रा बता दिया. उन दिनों हमलोग भूमिगत रूप से एक अखबार ‘हमारा संघर्ष’ निकालते थे. उसकी प्रति हमारे हाथ में थी, लेकिन जैसे ही मुझे लगा कि हम पकड़ लिये गये हैं, हमने अखबार की प्रति को किनारे कहीं रख दिया, जिसे पुलिस देख नहीं सकी. इसके बावजूद पुलिस हमलोगों को वहां से लेकर कदमकुंआ थाने लायी. रात भर वहीं रखा गया.

संपूर्ण क्रांति के मुद्दे आज भी प्रासंगिक

पचास साल पहले बिहार में एक छात्र आंदोलन हुआ. भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी का खात्मा और शिक्षा नीति में परिवर्तन इस आंदोलन की मुख्य मांगें थीं. आंदोलन में 18 मार्च, 1974 को छात्रों द्वारा बिहार विधानसभा के घेराव के दौरान व्यापक हिंसा हो गयी, तो छात्र नेताओं ने जयप्रकाश नारायण से आंदोलन को दिशा देने के लिए नेतृत्व संभालने का अनुरोध किया. जेपी के नेतृत्व में बिहार का छात्र आंदोलन देश का जन आंदोलन बन गया.
वर्ष 2024 का आरंभ होते ही उस आंदोलन के 50 वर्ष पूरे हो गये. आंदोलन की शुरुआती तिथि के रूप में 18 मार्च,1974 मशहूर है, परंतु इसका प्रयत्न तीन वर्ष पहले आरंभ हो गया था. 1971 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को प्रचंड बहुमत मिला था. इसके तुरंत बाद पाकिस्तान का विखंडन होकर बंगलादेश बना, तो उनकी लोकप्रियता सातवें आसमान पर पहुंच गयी. नेता प्रतिपक्ष स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी ने तो उन्हें दुर्गा की उपाधि दे डाली, पर व्यवस्था की जकड़न के सामने दो वर्ष के भीतर ही इंदिरा सरकार की लोकप्रियता काफूर हो गयी.

5 जून, 1974 की विशाल जनसभा में जेपी ने उद्घोष किया कि आंदोलन का दीर्घकालीन लक्ष्य है संपूर्ण क्रांति. उसी दिन जेपी को लोकनायक की उपाधि से विभूषित किया गया. तत्कालीन सत्ताधीशों ने आंदोलन को राजनीति प्रेरित और जेपी को सीआइए एजेंट घोषित करने का दुस्साहस किया, तो जेपी ने आह्वान किया कि संपूर्ण क्रांति का लक्ष्य व्यवस्था परिवर्तन है. आंदोलन को कुचलने के इरादे से 25 जून, 1975 की आधी रात को देश में आपातकाल लगा दिया गया. जेपी समेत आंदोलन के समर्थकों को िगरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया. अखबारों पर सेंसर लगा दिया गया.
आपातकाल विरोधी जनसमर्थन के भय से केंद्र सरकार ने संसद की अवधि एक वर्ष बढ़ा दी. 1976 में होने वाला लोकसभा चुनाव नहीं हुआ. इस बीच जेपी के नेतृत्व एवं जनमत के दबाव में आंदोलन समर्थक चार राष्ट्रीय दलों को- जनसंघ, लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी और कांग्रेस संगठन ने विलय कर जनता पार्टी बनायी.

आपातकाल के साये में हुए लोकसभा चुनाव में सत्ता और विपक्ष की स्थिति – रावण रथी विरथ रघुबीरा जैसी थी, पर जनता ने आंदोलन के गर्भ से उपजी जनता पार्टी के उम्मीदवारों को, चाहे वे जेल के भीतर हांे या बाहर, वोट भी किया और नोट भी दिया. पहली बार केंद्र में कांग्रेस सरकार अपदस्थ हुई. स्वयं इंदिरा गांधी चुनाव हार गयीं. सत्ता परिवर्तन हो गया, पर सत्ता परिवर्तन के पहले पड़ाव पर ही व्यवस्था परिवर्तन का आंदोलन बिखर गया. जेपी नहीं रहे, तो सत्ता पर से नैतिक अंकुश भी नहीं रहा. बाकी कसर जेपी आंदोलन के दौरान उभरे छात्र-युवा नेताओं ने अपने राजनीतिक आचरण से पूरी कर दी. सत्ता के पड़ाव पर व्यवस्था परिवर्तन की मुहिम को दफन कर दिया. जनता पार्टी पुनः पूर्ववर्ती घटक दलों में बिखर गयी. नतीजा हुआ कि 1974 के बाद कई बार स्थिति बदतर हुई, पर वैसा आंदोलन नहीं खड़ा हुआ. जेपी आंदोलन के रूप में विख्यात 1974 के छात्र-युवा आंदोलन की स्वर्ण जयंती वर्ष में संपूर्ण क्रांति के मुद्दे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं.

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