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EXCLUSIVE: डायन प्रथा के खिलाफ कानून बनाने वाला दूसरा राज्य है झारखंड, ऐसे शुरू हुई थी मुहिम

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Prabhat Khabar EXCLUSIVE: झारखंड गठन के बाद प्रदेश में डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम बन गया. इसमें प्रेमचंद ने अहम भूमिका निभायी. महिलाओं पर अत्याचार के लिए डायन शब्द का एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया. प्रेमचंद से प्रभात खबर के सीनियर रिपोर्टर संजीव भारद्वाज की एक्सक्लूसिव बातचीत यहां पढ़ें.

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Prabhat Khabar EXCLUSIVE: बात 1991 की है. एक स्थानीय अखबार में खबर छपी थी- ‘डायन के नाम पर एक महिला पर जानलेवा हमला, बचाव में उतरे उसके पुत्र और पति की हत्या’. इस खबर से मैं और मेरी संस्था के सदस्य चौंक गये. किसी जीवित महिला पर इस तरह का भी आरोप लगाया जा सकता है. यह अत्याचार का अनोखा ढंग था. हमारी संस्था ने इस घटनाक्रम की विस्तृत छानबीन करने का निर्णय लिया. पता चला कि आरोपी जमशेदपुर के साकची जेल में बंद है. मैं संस्था के सचिव और एक सदस्य के साथ जेल गया.

हमने डायन का सेंदरा किया, हमारा परिवार और समाज अब सुरक्षित

जेल अधीक्षक के चैंबर में आरोपियों से हमारी भेंट करायी गयी. आरोपियों के चेहरे पर अफसोस नहीं, गर्व का भाव था. हमने डायन का सेंदरा किया है. अब हमारा परिवार और समाज सुरक्षित है. पर महिला तो अभी जिंदा है, मैंने कहा. अरे आप नहीं समझेंगे, उसका खून जमीन पर गिरा है. इससे उसकी शैतानी शक्तियां समाप्त हो गयी हैं और दो बलि भी हुई है न. ये बातें गैर-सरकारी संस्था फ्लैक के प्रेमचंद ने प्रभात खबर के साथ खास बातचीत में कहीं. प्रेमचंद ने हमारे वरिष्ठ संवाददाता संजीव भारद्वाज को जो कुछ भी बताया, उसको हम यहां उन्हीं के शब्दों में पब्लिश कर रहे हैं.

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अब हमारी संस्था के सामने महिला पर अत्याचार नये आयाम में उपस्थित था. हमने इस विषय पर और छानबीन करने का निर्णय लिया. कुछ और घटनाओं की जानकारी हुई. विस्तृत विश्लेषण करने पर पता चला कि यह मिथकों पर आधारित सामाजिक व मानसिक समस्या है और समाज पूरी शिद्दत से डायन के अस्तित्व पर विश्वास करता है. समाज का प्रबुद्ध वर्ग भी इस कुरीति पर आश्चर्यजनक रूप से चुप्पी साधे हुए है.

लंबे संघर्ष की तैयारी की योजना पर काम शुरू

आम जनों के अलावा पढ़ा-लिखा वर्ग का एक बड़ा भाग भी इस अंधविश्वासी कुरीतियों पर आश्चर्यजनक रूप से विश्वास करता है. अब तक हमें यह अहसास हो चुका था कि हमारा पाला एक अदृश्य शत्रु से पड़ा है. हमने अपनी संस्था के 12 वर्ष के अनुभव के आधार पर एक लंबे संघर्ष की तैयारी के लिए योजना बनाना आरंभ किया.

‘डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम- 1995’ मसौदा किया तैयार

पहली बात, हमने निश्चय किया कि युवा कार्यकर्ताओं को नुक्कड़ नाटक का प्रशिक्षण दिया जाये. नुक्कड़ नाटक का विषय ‘डायन प्रथा’ और उससे संबंधित ‘अत्याचार’ को दर्शाना हो. दूसरी बात यह कि एक प्रतिषेधात्मक कानून का मसौदा तैयार किया जाये और उसे व्यापक स्तर पर प्रसारित-प्रचारित किया जाये, ताकि समाज को, शासन-प्रशासन को डायन प्रथा की भयावहता की जानकारी मिल सके.

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हमारी संस्था के सचिव ने जो विधि के शिक्षक के अतिरिक्त एक वरिष्ठ अधिवक्ता भी थे, एक मसौदा तैयार किया. नाम रखा गया ‘डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम- 1995’. इसी बीच हमें पता चला कि गम्हरिया में एक महिला को डायन के नाम पर बुरी तरह प्रताड़ित किया गया है. हमारे कार्यकर्ताओं ने उनका पता लगाया और संरक्षित कर कार्यालय में लाये. उस महिला का नाम छोटनी महतो था. उसे बाद में डायन प्रथा के खिलाफ आंदोलन में संस्था ने अपना चेहरा बनाया. केंद्र सरकार ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया है.

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फ्लैक को जागरूकता अभियान चलाने की मिली जिम्मेदारी

वर्ष 1995 में ही एक दिल दहला देने वाली बहुत ही शर्मनाक घटना घटी. पश्चिमी सिंहभूम के कुचाई प्रखंड में डायन के नाम पर एक ही परिवार के 6 सदस्यों की निर्मम हत्या कर दी गयी. उस परिवार में एक युवती किसी तरह बच गयी, जबकि उसके साथ भी सामूहिक दुर्व्यवहार किया गया था. इससे शासन-प्रशासन की नींद हराम हो गयी. कुचाई की घटना के 10 दिन बाद मेरे एक पत्रकार मित्र मेरे घर आये और कहा कि पश्चिमी सिंहभूम के उपायुक्त अमित खरे मुझसे मिलना चाहते हैं. वे इस समय अपने कैंप कार्यालय में हैं.

महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के खिलाफ जागरूकता अभियान

मैं आदित्यपुर गया. वहां हमारी लंबी बातचीत हुई. जिला प्रशासन ने महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा के खिलाफ व्यापक जागरूकता अभियान चलाने की योजना बनायी थी, जिसमें फ्लैक यानी मेरी संस्था को सक्रिय भागीदारी का दायित्व सौंपा गया. मेरे कार्यकर्ताओं की टीम ने गांव-गांव जाकर जागरूकता अभियान चलाया. जिला प्रशासन के साथ हमारा समन्यव ठीक-ठाक रहा.

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हमारी संस्था ने जागरूकता के व्यापक दृष्टिकोण को सामने रखकर ‌डायन के नाम पर प्रताड़ित महिलाओं का एक सम्मेलन आयोजित करने का निश्चय किया. जमशेदपुर स्थित टीसीसी में यह ऐतिहासिक सम्मेलन वर्ष 1996 में हुआ. इससे पहले डायन प्रथा को दृष्टिगत रखते हुए देश में कोई भी सम्मेलन कभी भी नहीं हुआ था.‌ इस सम्मेलन में 21 भुक्तभोगी महिलाएं शामिल हुईं. उन्हें सम्मेलन तक लाने में जिला प्रशासन ने पर्याप्त मदद की. इसमें पश्चिमी सिंहभूम के उपायुक्त अमित खरे और पूर्वी सिंहभूम के उपायुक्त डॉ संजय कुमार, जमशेदपुर के नगर प्रशासक सुमन दुबे के अलावा दर्जनों मीडियाकर्मी और सामाजिक संगठनों के लोग उपस्थित हुए. पीड़ितों ने खुल कर अपनी पीड़ा का विस्तृत वर्णन किया. मीडिया ने इसे विस्तार से प्रचारित किया. पूरे देश को इस समस्या की जानकारी हुई. संस्था ने सम्मेलन में डायन प्रतिषेध अधिनियम की आवश्यकता पर बल दिया.

रांची और पटना में सम्मेलन करने की बनायी योजना

हमने रांची में और पटना में इस तरह के सम्मेलन की योजना बनायी. इसी बीच हमें एक नये व्यवधान से रू-ब-रू होना पड़ा. जमशेदपुर के सम्मेलन और डायन प्रतिषेध कानून की आवश्यकता को मीडिया ने जोरदार ढंग से उठाया, तो कुछ क्षेत्रीय नेताओं ने इसके खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की. उनका कहना था कि इससे हमारी संस्कृति प्रभावित होगी और हमारे लोग पुलिस की ज्यादती के शिकार होने लगेंगे. हमने उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश की. प्रस्तावित कानून की विभिन्न धाराओं में दिये जाने वाले दंड को न्यूनतम रखने का प्रावधान किया. उन लोगों के साथ मिलकर स्पष्ट करने का प्रयास किया. परंतु हम उन्हें पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर पाये.

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1997 में रांची में सम्मेलन, विषय था- महिलाओं के विरुद्ध अत्याचार

अब यह निश्चित हो गया कि कानून बनवाने की दिशा में हमें अतिरिक्त सावधानी बरतनी होगी. हमने ऐसा ही किया. मार्च 1997 में रांची के सम्मेलन में हमने विषय रखा- ‘महिलाओं के विरुद्ध अत्याचार’. इसमें भी 20 पीड़ित महिलाएं शामिल हुईं. छुटनी महतो को इस अभियान के चेहरे के रूप में हमने प्रस्तुत किया. इस सम्मेलन में वरिष्ठ अधिकारी टी नंदकुमार के अतिरिक्त दर्जनों वरिष्ठ पत्रकार और बुद्धिजीवियों के साथ 15 स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रतिनिधि शामिल हुए. जस्टिस एमएल वीसा ने इस दो दिवसीय कार्यशाला का उद्घाटन किया था. सम्मेलन में कानून बनवाने पर बल दिया गया.

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इसी वर्ष हमने एक टेली फिल्म बनायी. नाम था- ‌‘आखिर कब तक’. इसे पटना के गिरीश रंजन ने निर्देशित किया था. वर्ष 1997 में ही तीन और महत्वपूर्ण कदम उठाये गये थे. बीरबास पंचायत के गोराडीह में संस्था ने अपना ग्रामीण कैंप छुटनी महतो के घर में तैयार किया. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह हुई कि हमारे इस अभियान में ‘प्रभात खबर’ ने संस्था की महत्वपूर्ण कार्ययोजना ‘ऑपरेशन अंधविश्वास’ में एक साझेदार के रूप में शामिल होने का निर्णय लिया. ऑपरेशन अंधविश्वास का उद्घाटन पश्चिमी सिंहभूम के उपायुक्त जी राहटे ने किया. पीड़ित महिलाओं के स्वावलंबन हेतु एक प्रशिक्षण केंद्र के लिए कोलाबीरा में जिला प्रशासन ने हमें एक सामुदायिक भवन भी प्रदान किया. इस तरह हमारा अभियान धीरे-धीरे आगे बढ़ता रहा.

कानून बनवाने का लिया निर्णय

जुलाई 1997 में संस्था ने तय किया कि कानून बनवाने के लिए यह आवश्यक है कि अब हमें राजधानी में अपना अभियान व्यापक स्तर पर चलाना चाहिए, क्योंकि यह विधायिका के कार्यक्षेत्र की बात है. संस्था ने इसकी पूरी जिम्मेदारी मुझे सौंप दी. मैंने सितंबर से पटना में कैंप करने का निश्चय किया. पटना में मैंने अपने कुछ पत्रकार मित्रों के अतिरिक्त जेपी आंदोलन के मित्रों से इस संबंध में विमर्श किया और आगे की रणनीति बनायी. सर्वप्रथम मैं डॉ सचिन नारायण से मिला. वे एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट में प्राध्यापक थे. विद्वान आदमी थे और प्रशासकीय क्षेत्रों में उनकी अच्छी पैठ थी. वे आइएएस अकादमी मसूरी से भी जुड़े हुए थे. मैं उनके साथ बहुत से लोगों से मिला, जिसमें विधानपरिषद के अध्यक्ष डॉ जाबिर हुसैन भी थे. यह मुलाकात हमारे अभियान के लिए भविष्य में बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुई.

मीडिया के मित्रों ने अहम नेताओं से मुलाकात करायी

इसके अतिरिक्त हमारे मीडिया के मित्रों ने भी मेरी मुलाकात सत्तारूढ़ दल के और विपक्ष के महत्वपूर्ण लोगों से करायी. मेरी संस्था ने 10 नवंबर 1997 को पटना में ‘डायन प्रथा और समाज’ विषय पर दो दिवसीय सम्मेलन आयोजित किया. इसमें पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस सरवर अली मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हुए. इससे पहले हमने प्रस्तावित कानून की प्रतियां सभी दलों के अध्यक्षों को और प्रमुख नेताओं को भेंटकर सौंप दी थी. इसमें एक युवा नेता इंदु भारतीय ने मुझे सक्रिय सहयोग किया. सम्मेलन एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट में आयोजित किया गया था और इसमें 25 पीड़ितों के अतिरिक्त दर्जनों लोग शामिल हुए थे. सम्मेलन अप्रत्याशित रूप से सफल रहा. तीन दिन तक सभी अखबारों ने इस मामले को गंभीरता से और प्रमुखता से प्रकाशित किया.

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हमारा पटना का सम्मेलन अपने उद्देश्य में सफल रहा. राजधानी का शासन-प्रशासन अब डायन प्रथा की कुरीतियों से अवगत था. अब जरूरत थी, सरकारी तंत्र और विधायिका को सक्रिय करने की. इसके लिए मैं डॉ नारायण के साथ पुनः डॉ जाबिर हुसैन के पास गया. मैंने उनसे डायन समस्या और उसके सामाजिक राजनीतिक प्रभाव के विषय में विस्तार से चर्चा की. किन कारणों से और किन क्षेत्रों से विरोध अपेक्षित होने की संभावना है, यह भी बताया. उन्होंने पूरे ध्यान से सुना और आश्वस्त किया. आपने अपनी सामाजिक जिम्मेदारी पूरी की, अब हमलोग यानी विधायिका अपनी भागीदारी निभायेगी. और सच में उन्होंने अपनी जिम्मेदारी निभायी. बिहार विधानसभा और विधान परिषद के सत्र में दिनांक 25 अप्रैल 1999 को पहले विधानसभा और फिर विधान परिषद में ‘डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम-1999’ अपने मूल स्वरूप में अर्थात् जो हमारी संस्था ने प्रस्तुत किया था, सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया.

राज्यपाल ने बिल को वापस लौटा दिया

इस बिल को 12 मई 1999 को स्वीकृति के लिए राजभवन भेजा गया. राज्यपाल वी लाल एक विधिवेत्ता थे और वे पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस भी रहे थे. उन्होंने अपनी आपत्तियां दर्ज कीं और विचारार्थ सरकार के पास वापस भेज दी. वे आपत्तियां थीं, अंधविश्वास और अपराध को ठीक से परिभाषित नहीं किया गया. इसके सामाजिक प्रभाव को ठीक से रेखांकित नहीं किया गया. बात अगस्त माह की है. मुझे सचिवालय से एएनपी सिन्हा का फोन आया. उन्होंने मुझे राज्यपाल की आपत्ति ‌के विषय में बताया और पटना बुलाया. मेरी वह खुशी जो कानून के पारित होने से मिली थी, गायब हो गयी थी. प्रश्न बहुत टेढ़े थे. मैं सिन्हा जी के कार्यालय में डॉ यस नारायण के साथ गया. एक लंबी मीटिंग में तय हुआ कि मैं इसका लिखित उत्तर सचिव को दूं, जो संतोषजनक हो. मैंने ऐसा ही किया.

…और डायन प्रथा प्रतिषेध अधनियम कानून बन गया

सचिव एएनपी सिन्हा बहुत भले इंसान थे. उन्होंने मुझसे यह भी कहा कि मुझे पता है कि यह एक जटिल प्रश्र है, पर औपचारिक रूप से उत्तर देना भी आवश्यक है. उन्होंने बताया कि उचित समय पर मैं इस फाइल को अग्रसारित करूंगा और उन्होंने समय पर ऐसा ही किया. अक्टूबर माह में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल सूरजभान बिहार के कार्यवाहक राज्यपाल बनाये गये. विधेयक को उनके समक्ष प्रस्तुत किया गया. 20 अक्टूबर 1999 को राज्यपाल ने विधेयक को स्वीकृति प्रदान कर दी और ‘डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम’ कानून के रूप में अस्तित्व में आया.

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इससे पहले ऐसे ही जघन्य अत्याचार ‘सती प्रथा’ के विरुद्ध एक कानून बनाया गया था. लेकिन, वह कानून भारत में नहीं, इंग्लैंड के प्रिवि-काउंसिल में वर्ष 1829 में बना था. हमारी संस्था ने निर्णय लिया कि तात्कालिक सरकार के साथ जिन संस्थाओं ने और सज्जनों ने हमारा ‌साथ दिया है, इस पूरे अभियान में, उनका आभार व्यक्त करने के लिए एक और दो दिवसीय सम्मेलन राजधानी में आयोजित की जाये.

25 पीड़िता सम्मेलन में हुईं शामिल

दो दिवसीय सम्मेलन 27-28 नवंबर को सिन्हा इंस्टीट्यूट में रखा गया. इसमें राष्ट्रीय महिला आयोग को भी आमंत्रित किया गया. इसमें आयोग की महासचिव वीनू सेन अपने एक सदस्य के साथ शामिल हुईं. बिहार सरकार की ओर से समाज कल्याण विभाग से उसकी डायरेक्टर मृदुला सिन्हा, इस विषय के विशेषज्ञ डॉ यस नारायण अतिथि के रूप में शामिल हुए. सम्मेलन का उद्घाटन दिवंगत जयप्रकाश नारायण के सचिव सच्चिदानंद सिन्हा ने किया. 25 पीड़ित महिलाओं के अतिरिक्त लगभग दो दर्जन स्वयंसेवी संगठन इसमें शामिल हुए. अनेक राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि भी आये.

सम्मेलन में तय हुईं तीन बातें

सम्मेलन में तीन बातें तय हुईं- पहला, समाज में अंधविश्वास बहुत गहरे पैठ गया है. इसे दूर करने के लिए दीर्घकालिक योजना बनाने की आवश्यकता है. दूसरा, समाज में इसकी व्यापकता का एक अनुमानित आंकड़ा जुटाया जाये, ताकि भविष्य की सटीक योजना बनायी जा सके. कुछ अन्य राज्यों में भी यह समस्या है. अतः वहां इस तरह के कानून का प्रावधान हो. अगर यह समस्या बहुत से राज्यों में है, तो एक केंद्रीय कानून बनवाने की दिशा में पहल हो. समाज में इसके असर का पता लगाने के लिए आवश्यक संसाधन के प्रबंध के लिए यूनिसेफ पटना ने सहमति प्रदान की. उसके लिए समाज कल्याण विभाग ने अपनी संस्तुति फ्लैक के लिए दी थी.

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पीड़ितों का अनुमानित आंकड़ा जुटाने के लिए योजना बनायी गयी कि दक्षिण बिहार (अब झारखंड) के सबसे विकसित जिलों में स्थिति का पता लगाया जाये. इसके लिए जमशेदपुर, बोकारो, देवघर और रांची को चुना गया. सभी जिलों से 15-15 स्वयंसेवकों का चयन किया गया. उन्हें रांची में प्रशिक्षण दिया गया. प्रशिक्षण कैंप का उद्घाटन क्षेत्रीय आयुक्त लक्ष्मी सिंह ने किया. इस अतिसंवेदनशील विषय में पर्याप्त सावधानी अपेक्षित थी. अपने पूर्व के अनुभव के आधार पर हमने अपने नये स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित किया और उन्हें अपने पुराने कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में संबंधित जिलों में जागरूकता अभियान सह सर्वेक्षण के लिए भेजा. इन चार जिलों के 26 प्रखंडों की 191 ग्राम पंचायतों में 176 पीड़ित मिले. उस समय इस क्षेत्र में कुल 2,615 रेवेन्यू गांव थे.

अर्जुन मुंडा ने दिया उचित कदम उठाने का आश्वासन

उपलब्ध आंकड़ों के सांख्यिकी विशलेषण से पीड़ितों की अनुमानित संख्या 18 हजार के लगभग आंकी गयी. यह एक बहुत बड़ी संख्या थी. झारखंड राज्य का गठन हो चुका था. अब इस विषय पर नये राज्य सरकार को अंधविश्वास के विरुद्ध कदम उठाना था. वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों का कहना था कि जब तक नये राज्य में यह कानून लागू नहीं होता, वे कुछ नहीं कर सकते. मैं इस संबंध में तत्कालीन कल्याण मंत्री अर्जुन मुंडा से अपनी इस नयी समस्या को लेकर मिला. वे मेरे प्रयासों से अवगत थे. उन्होंने आश्वस्त किया कि मेरी सरकार शीघ्र ही उचित कदम उठायेगी. उन्होंने ऐसा ही किया. वर्ष 2001 में झारखंड सरकार ने अपनी 17वीं बैठक में ‘डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम 2001’ को लागू किया. इस तरह झारखंड देश में दूसरा राज्य बना, जिसने डायन प्रथा के खिलाफ प्रतिषेधात्मक कानून बनाया. यह हमारी संस्था की बड़ी उपलब्धि थी.

कार्य योजना बनाने के लिए रांची में विचार गोष्ठी

अब झारखंड बन चुका था. सरकार में बैठे लोग इस अमानवीय कुरीति से अवगत थे. संस्था के लोग उत्साहित थे. डायन प्रथा उन्मूलन के लिए कार्ययोजना बनाने के लिए रांची में विचार गोष्ठी आयोजित की गयी, जिसका उद्घाटन झारखंड के कल्याण मंत्री अर्जुन मुंडा ने किया. उन्होंने कहा कि इस कुरीति से समाज की और राज्य की गरिमा को ठेस पहुंचती है. राज्य सरकार इसे समाप्त करने के लिए सभी यथोचित कदम उठाने को कृतसंकल्प है. उन्होंने हमसे प्रस्तावित योजना की विस्तृत जानकारी मांगी. हमने उन्हें संबंधित दस्तावेज, पीड़ितों की अनुमानित सूची, प्रभात खबर के जमशेदपुर कार्यालय में सौंपी. उन्होंने मुझे रांची कार्यालय में बुलाया.

शुरू हुआ फाइलों का चक्कर

रांची में उन्होंने अपने सचिव को उचित कदम उठाने का निर्देश दिया. उनके सचिव ने बताया कि सरकार केंद्र सरकार को प्रोजेक्ट भेजेगी और उचित धनराशि की मांग करेगी. फिर शुरू हुआ फाइलों का चक्कर. पता चला मेरी फाइल राज्य सरकार ने दो बार दिल्ली भेजी थी, पर साकारात्मक उत्तर के बदले टालने वाला जबाब आया. जैसा कि उस समय के विशेष सचिव वीसी निगम ने बताया और उन्होंने सलाह दी, आप सीधे राज्य सरकार से संपर्क करें. मैं तत्कालीन मुख्य सचिव लक्ष्मी सिंह से मिला. वे इससे भलीभांति परिचित थीं. मैं इसी क्षेत्र की बेटी हूं और इस त्रासदी से भलीभांति अवगत हूं. उन्होंने समाज कल्याण विभाग को निर्देश दिया.

पूजा सिंघल मुझे दौड़ाने लगीं

विभाग ने 22 अप्रैल 2004 को बैठक बुलायी और मुझे बुलाया. संबंधित विभाग के अधिकारियों ने मुझे ध्यान से सुना. उसमें निधि खरे भी थीं, जो प्रारंभ से हमारे प्रयासों से अवगत थीं. विभाग की डायरेक्टर ज्योत्सना वर्मा ने मुझे आश्वासन दिया कि आपको विभाग संसाधनों की कमी नहीं होने देगा. बाद में उनका तबादला दिल्ली हो गया. बाद में उनकी जगह पूजा सिंघल ने ली. उन्होंने अनेक बार मुझे अपने कार्यालय में बुलाया, पर कोई निष्कर्ष नहीं निकाला. उन्हीं के कार्यालय के एक पदाधिकारी ने बताया, आपको अभी बहुत दौड़ाया जायेगा. तब तंग आकर मैं विभाग की सचिव मृदुला सिन्हा से मिला और अपनी समस्या बतायी. उन्होंने पूजा सिंघल से संपर्क किया. वह आयीं. सचिव ने प्रोजेक्ट के विषय में जानकारी मांगी. मैं इस योजना का टेंडर करूंगी, इसमें राज्य का पैसा खर्च होने वाला है और मुझे यह देखना कि उसका दुरुपयोग न ‌हो.

यह योजना की भ्रूण हत्या होगी

मैंने आपत्ति जतायी इस विषय पर, तो झारखंड में किसी ने भी कोई काम नहीं किया है. तब टेंडर कौन देगा. दूसरी बात कि यह बिल्कुल नयी पहल है. इसमें काम करने वाले को पर्याप्त प्रशिक्षण की आवश्यकता होगी, क्योंकि यह अतिसंवेदनशील विषय है. मैं तो टेंडर करूंगी ही. यह योजना की भ्रूण हत्या होगी. मैंने सचिव से कहा और चैंबर से बाहर निकल आया. यह 2006-07 की बात है. इसके बाद मैं सभी सरकारों से किसी न किसी माध्यम से संपर्क करता रहा. पर अंजाम वही ढाक के तीन पात. जब भी कोई शासन-प्रशासन का सक्षम पदाधिकारी यह घोषणा करता है कि सरकार समाज से डायन प्रथा समाप्त करके रहेगी, मैं उनकी ओर विवश दृष्टि से देखता हूं. उन्हें पता नहीं कि मर्ज क्या है और वे दवा क्या दे रहे हैं.

अंधविश्वास उन्मूलन में ओझा की भागीदारी

मैं दो उदाहरण दे रहा हूं. मैंने अपने प्रतिवेदन में कहा था, ओझाओं की संख्या का पता लगा कर, उन्हें प्रशिक्षण देकर, एक मानद उपाधि देकर, कुछ मानदेय तय कर अंधविश्वास उन्मूलन अभियान में हिस्सेदारी और जवाबदेही तय की जाये. सरकार ने कुछ वर्ष पूर्व उनका सर्वे कराया, पर आगे कुछ नहीं किया. इसी तरह हमारा कहना था कि शिक्षा के पाठ्यक्रम में इसे सम्मिलित किया जाये. यह कक्षा छह से पीजी तक अर्थात् विश्वविद्यालयों तक के पाठ्यक्रम में शामिल हो. सरकार ने कक्षा छह में समाज शास्त्र में संक्षिप्त ‌रूप से और कक्षा आठ में एक कविता के रूप में इसे रखा. शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे तो हम सदियों में भी जागृति पैदा नहीं कर सकते. हमारी संस्था की अंधविश्वास उन्मूलन अभियान का चेहरा छुटनी महतो को वर्ष 2021 में केंद्र सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया. यह हमारी संस्था के लिए सम्मान का विषय है, लेकिन सम्मान से पेट नहीं भरता.

शाल-माला के बदले पैसे देते, तो दूसरों की मदद कर पाती : छुटनी महतो

पद्मश्री छुटनी महतो को जब भी कहीं सम्मानित किया जाता है, तो वह ‌मुझसे कहती हैं कि अगर ये लोग शाल व माला आदि के बदले पैसे देते, तो हमलोग दूसरों की और मदद कर ‌पाते. यह एक नयी सच्चाई है कि वर्ष 2006 से किसी संस्थान ने, सरकार या कॉरपोरेट घरानों ने या संसाधन वाले व्यक्ति ने हमलोगों को आर्थिक सहायता देने का कष्ट नहीं किया. सारे कार्यक्रम व्यक्तिगत रूप से या व्यक्तिगत संबंध के आधार पर सहयोग से किये गये या किये जा रहे हैं. झारखंड के मुख्यमंत्री ने अभी हाल में वादा किया था कि वे राज्य से इस अमानवीय कुरीति को दूर करके रहेंगे. हमारी उनको शुभकामनाएं.

केंद्र के साथ मिलकर कानून बनायें राज्य सरकारें

दूसरी ओर 15 अगस्त को लाल किले से अपने अमृत महोत्सव संबोधन में देश के प्रधानमंत्री ने नारी की गरिमा की रक्षा किसी भी कीमत पर की जायेगी, कहा. देश में मिथ के आधार पर एक काल्पनिक चरित्र डायन गढ़‌के एक महिला को डायन के नाम पर नंगा ‌करके, उसके मुंह में मल-मूत्र डालना, पूरे गांव में घुमाना, फिर कभी-कभी हत्या कर देना जैसे जघन्य अपराध से बड़ा उनकी गरिमा का, स्वभिमान का हनन और क्या हो सकता है. यह समस्या केंद्र सरकार के संज्ञान में है, क्योंकि इसी संदर्भ में हमारी संस्था के सदस्य को पद्मश्री दिया गया है. हमारा आग्रह है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारें मिलकर (यह अभी तक ज्ञात रूप में देश के 15 राज्यों में है. छह राज्यों ने अपने यहां प्रतिषेधात्मक कानून भी बना रखा है) मिशन मोड में बहुस्तरीय कार्ययोजना तैयार कर उन्मूलन अभियान चलायें, ताकि देश की सौवीं वर्षगांठ (2046) तक हमारे देश से यह अमानवीय कुरीति सदा के लिए समाप्त हो सके.

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