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हजारीबाग का सेतागढ़ा बता रहा है बौद्ध मठ का इतिहास

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पुरातत्व विभाग के देऊरी जी, नीरज जी और वीरेंद्र जी के लेख के अनुसार गोलाकार टीले की खुदाई में से एक आयताकार बौद्ध मंदिर का ढांचा मिला, जिसके चारों ओर एक प्रदक्षिणा पथ बना हुआ है.

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सुभाशीष दास

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लगभग हजार वर्ष पूर्व हजारीबाग और चतरा जिलों में बौद्ध धर्म का फैलाव था. यहां बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसा कोई बड़ा स्तूप तो नहीं मिला, पर इचाक, पथलगड़ा, कौलेश्वरी, पंकरि बरवाडीह, सिलवार, इटखोरी, चौपारण इत्यादि स्थानों से प्राप्त बुद्ध और उनसे संबंधित विभिन्न मूर्तियां, मोटिफ, मनौती और छोटे स्तूप इत्यादि वस्तुओं से इस सत्य की पुष्टि होती है. और, आज इस सूची में जुड़ गया है हजारीबाग में सेतागढ़ा पहाड़ी के समीप बुरहानपुर गांव से प्राप्त हुआ बौद्ध मठ, मंदिर इत्यादि. पटना के पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI ) के खनन विभाग के डॉ राजेंद्र देउरी, डॉ नीरज मिश्रा व डॉ वीरेंद्र कुमार की टीम ने स्थल के एक गोलाकार टीला और ईंटों के एक टीले (इसे गांव वाले इटवा टीला कहते हैं ) से बौद्ध मठ, बौद्ध मंदिर और ढेर सारी मूर्तियां इत्यादि खोद निकiली.

सेतागढ़ा दो ऑस्ट्रिक संथाली शब्द ‘सेता’ यानी ‘कुत्ता’ और ‘गढ़ा’ यानी ‘बरियल’ से बना है. अतः ‘सेतागढ़ा’ शब्द का अर्थ है किसी कुत्ते का कब्र. प्राचीन काल में मृत घोड़े और कुत्ते का कब्र बनाने की एक प्रथा थी. शोध से यह भी पता चला है कि इस पहाड़ी की आकृति के कारण प्रागैतिहासिक काल में लोग इसे शायित मातृ देवी (recumbent mother goddess) के रूप में पूजते होंगे. जुलजुल गांव इस पहाड़ी के तलहटी पर होने के कारण मैंने अपनी पुस्तकों में इसे जुलजुल पहाड़ी कहा है. अंग्रेजों ने अपने पुराने पेंटिंग में इस पहाड़ी को माउंट ग्लूमी का नाम दिया था. पर, इनके पुराने मानचित्रों मे इस पहाड़ी का नाम चंदवार दीखता है. सेतागढ़ा गांव के कारण इस पहाड़ी को सेतागढ़ा नाम से ही जाना जाता है.

पुरातत्व विभाग के देऊरी जी, नीरज जी और वीरेंद्र जी के लेख के अनुसार गोलाकार टीले की खुदाई में से एक आयताकार बौद्ध मंदिर का ढांचा मिला, जिसके चारों ओर एक प्रदक्षिणा पथ बना हुआ है. खनन से एक ध्यानी बुद्ध, वरद मुद्रा और ललितासन में बिराजे टूटी हुई बौद्ध देवता, छोटी मनौती या स्मृति स्तूप, पत्थर की दो पट्टियां, जिसके एक में तराशी हुई हैं ध्यानरत बुद्ध की छोटी छोटे प्रतिमाएं और दूसरे में जातक कथाओं की एक कहानी इत्यादि मिली है. मूर्तियां काले बेसाल्ट और गुलाबी बलुआ पत्थर से बनी हुई हैं, जो इटखोरी में भी दिखती हैं.

इटवा टीला की खुदाई में बड़ा-सा आयातकार ढांचा मिला है, जो संभवतया एक बौद्ध मठ का है. यहां एक मंदिर का ढांचा भी हैं, जिसके चारों और एक प्रदक्षिणा पथ बना हुआ है. इस स्थल से भूमि स्पर्श मुद्रा में बुद्ध, धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा में बुद्ध की टूटी हुई मूर्ति, वरद मुद्रा में तारा, ललितासन और खड़ी मुद्रा में अवलोकितेश्वर इत्यादि की काफी बड़ी-बड़ी मूर्तियां मिली हैं. अवलोकितेश्वर के एक हाथ में है कमल फूल का लंबा तना और उनका दूसरा हाथ वरद मुद्रा में है. उनके मुकुट पर एक छोटा-सा अमिताभ बुद्ध भी उकेरा हुआ दीखता है.

कमल पर बिराजे भूमि स्पर्श मुद्रा में बुद्ध की एक अति सुंदर मूर्ति के छतरी के ऊपर बुद्ध को शायित महापरिनिर्वाण रूप में दर्शाया गया है. इनके लेख से यह भी पता चलता है कि खनन में स्थल से उलटी कमल की आकृति, अष्टदल कमल, हॉपस्कॉच (कितकित) खेल के पत्थर की गोटियां, छत्रवाली और छोटे-छोटे वोटिव/स्मृति स्तूप और विभिन्न मृदभांड भी निकले हैं. लौह सामग्रियों में कांटी, क्लैंप, तीर के नोक इत्यादि भी प्राप्त हुए हैं. कुछ मूर्तियों की नीचे स्थान पर नगरी लिपि खुदी हुई है. खुदाई में निकली मूर्तियों और बाकी वस्तुओं से यह पता चलता है कि यह स्थल पालवंश युगीन नवीं से 12वीं सदी के बीच का है.

तारा और अवलोकितेश्वर की मूर्तियों का इस स्थल से प्राप्त होना यहां तंत्रयान/वज्रयान श्रेणी के बौद्ध धर्म के प्रचलन को दर्शाता है. तंत्रयान/वज्रयान 500 ईस्वी में महायान बौद्ध धर्म से निकला हुआ है. महायान बुद्धिज्म में अवलोकितेश्वर को बोधिसत्व माना गया है और संस्कृत में इन्हें पद्मपाणि भी कहते हैं. तंत्रयान/वज्रयान बुद्धिज्म में बौद्ध तारा के अनेक रूप है और उन्हें स्त्री बुद्ध और एक बोधिसत्व भी कहा जाता है. पाल वंश के समय महायान श्रेणी का बौद्ध धर्म काफी फला-फूला, बाद में वज्रयान/तंत्रयान बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ, जो कि झारखंड में भी फैला. पुरातत्वविद डॉ नीरज मिश्रा ने बातचीत के दौरान मुझे बताया कि स्थल के खनन से मृदभांड तो काफी मिले, पर गृहकार्य में व्यवहारित मृदभांडों की संख्या कम हैं. मुझे लगता है कि यहां के बौद्ध संन्यासी बुद्ध के द्वारा सिखाये गये भिक्षा से, जिसे पिंडपात्ता या माधुकरि कहा जाता है, अपना जीवन व्यतीत करते होंगे; इसी कारण बौद्ध संतों को भिक्षु भी कहा जाता है. नालंदा महाविद्यालय और मठ को आम लोग अनुदान देते थे. चीनी यात्री इसिंग ने अपने वृत्तांत में लिखा है कि पाल वंश के समय नालंदा मठ को आसपास के 200 गांव से भी दान आता था.

अब कुछ प्रश्न है कि, जैसे नालंदा, सोमपुरा, ओदंतपुरी और विक्रमशिला एक नेटवर्क की भांति जुड़ा हुआ था. आम जनता और गांव से उनको भरण-पोषण मिलता था. क्या बुरहानपुर के मठ को भी आस पास के गांव की सेवाएं प्राप्त थीं? क्या यहां के भिक्षु आसपास के गांव में भिक्षा मांगने जाते होंगे? इस मठ को कौन चालित करता होगा और यहां कितने भिक्षु रहा करते होंगे यहां की सुंदर मूर्तियों को किसने बनाया? क्या ये यहीं पर, इटखोरी में या फिर कहीं और बनायीं गयी थीं? क्या मूर्तिकार यहां के थे या फिर ये बाहर से आये थे? इस बौद्ध मठ को यहां बनाने का कारण क्या रहा होगा?

यहां से कुछ दूरी पर एक राजमार्ग है, जिसे बनारस रोड भी कहा जाता है, जो कि सारनाथ से जुड़ता है. बुद्ध ने अपने धम्म का प्रचार सारनाथ से ही शुरू किया था और यहीं पर अशोक ने एक बड़ा सा शारीरिक स्तूप भी बनाया था (यह आज नष्ट हो गया है) अतः सारनाथ बौद्ध भिक्षुओं के लिए एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थान है. स्थानीय दंतकथा है कि प्राचीन काल में बनारस/सारनाथ से एक मार्ग प्राचीन ताम्रलिप्ति (बंगाल के आधुनिक तामलुक), जहां रूपनारायणपुर नदी बंगाल की खाड़ी से मिलती है, के बंदरगाह को जोड़ता था. माना जाता है कि यह मार्ग बिल्कुल सेतागढ़ा पहाड़ी के पास से गुजरता था. आज इस मार्ग का अस्तित्व नहीं है. अगर यह दंतकथा सत्य है तो यह मार्ग यहां के बौद्ध भिक्षुओं को केवल सारनाथ से ही नहीं बल्कि ताम्रलिप्ति बंदरगाह से बंगाल की खाड़ी हो कर दक्षिण-पूर्व के बौद्ध देशों से भी जोड़ता था.

(लेखक झारखंड के प्रख्यात मेगालिथ शोधकर्ता हैं)

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