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Durga Puja: गुमला के खोरा दुर्गा मंदिर में भक्तों की मनोकामना होती है पूरी, विजयादशमी में लगता है मेला

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गुमला शहर से सात किमी दूर स्थित खोरा दुर्गा मंदिर की काफी महत्ता है. मान्यता है कि यहां मांगी गयी हर मुराद पूरी होती है. दुर्गापूजा के अवसर पर यहां श्रद्धालुओं की काफी भीड़ रहती है. इस मंदिर की स्थापना के साथ ही इस गांव में प्राचीन समय में कई परंपरा शुरू की गयी, जो आज भी जारी है.

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Durga Puja: गुमला शहर से सात किमी दूर खोरा गांव में दुर्गा मंदिर है. यहां मां दुर्गा की प्राचीन मंदिर है. दुर्गा पूजा पर इस मंदिर व गांव की महत्ता बढ़ जाती है. मंदिर में दूर-दूर से भक्त आकर पूजा करते हैं. इस मंदिर की स्थापना के साथ ही इस गांव में प्राचीन समय में कई परंपरा शुरू की गयी थी. यह परंपरा आज भी जारी है. मान्यता है कि यहां भक्तों की हर मन्नतें पूरी होती है.

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इस मंदिर के बारे में जानें

इस मंदिर के बारे में एक प्राचीन कथा प्रचलित है. कहा जाता है कि ग्राम खोरा एक राजस्व गांव है. इसमें चैरअंबा, जामटोली, भकुवाटोली, कुसुमटोली, पतराटोली, पखनटोली व खोरा कठियाटोली है. वर्तमान में खोरा को पंचायत का दर्जा प्राप्त है. इस गांव के प्राचीन जमींदार शिखर साहब थे. उन्होंने काफी समय तक यहां का बागडोर संभाला. उन्हीं के द्वारा इस मंदिर की स्थापना की गयी. श्रीदुर्गा पूजा समिति व मेला आयोजन समिति के संरक्षक मनमोहन सिंह ने मंदिर के पीछे छिपे इतिहास के संबंध में बताया कि शिखर साहब को अपने जीवन काल में एक बार आर्थिक संकट से जूझना पड़ा था. अपने पुत्र की शादी में ओड़िशा के क्योंझर जिला में बारात जाना पड़ा. उन्हें बारात जाकर लौटने के क्रम में आर्थिक समस्या आ गयी, तो रांची में उन्होंने अंग्रेज सरकार के पीपी साहब से कुछ पैसा लेकर ग्राम खोरा एवं कांके रांची के ग्राम मेसरा को गिरवी रख दिये. जब काफी समय गुजर गया, तो शिखर साहब ने पीपी साहब को पैसा नहीं लौटाया, तो उनके द्वारा उक्त दोनों गांवों को नीलाम कर दिया गया. इस नीलामी के क्रम में ही राधा बुधिया ने उक्त दोनों गांवों को ले लिया.

पूर्व में दी जाती थी भैंसों की बलि

1956 तक जमींदारी प्रथा उन्मूलन के पूर्व तक दोनों गांव ग्राम खोरा एवं ग्राम मेसरा के जमींदार राधा बुधिया थे. इनके मैनेजर जीवनभर स्वर्गीय मीना सिंह थे. जब शिखर साहब खोरा से जाने लगे, तो दुर्गा मां की स्थापित मूर्ति को ले जाने के लिए हाथी लाया गया. जब मूर्ति को हाथी से खींचा गया, तो हाथी चिंघाड़ मारकर बैठ गया. उस रात्रि में उन्हें स्वप्न आया कि मुझे यहां से मत ले जाओ. इसके बाद शिखर साहब यहां से चले गये. प्राचीन काल में यहां मंदिर में भैंसों की बलि दी जाती थी. बलि देने वाले हथियार आज भी मंदिर में रखा हुआ है. अब बलि की प्रथा बंद कर दी गयी है.

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विजयादशमी में बुजुर्गों से आज भी लेते हैं आशीर्वाद

मंदिर के बगल में राधा-कृष्ण एवं कुछ दूरी पर शिव का मंदिर है. विजयादशमी में विजय यात्रा एवं एकादशी में मेला एवं रात्रि में सांस्कृतिक कार्यक्रम होता है. विजयादशमी की रात में प्रत्येक आदमी अपने से बड़ों के घर में जाकर उन्हें पैर छूकर प्रणाम करता है और उससे आशीर्वाद प्राप्त करता है. यह परंपरा आज भी कायम है.

रिपोर्ट : जगरनाथ पासवान, गुमला.

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