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कमीशन के खेल में गुमला का नहीं हो पा रहा विकास, हर इंजीनियर के लिए फिक्स है राशि, जानें पूरा मामला

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बिना कमीशन के योजना का एग्रीमेंट नहीं होता है. किसी भी योजना को मैनेज करने या बिलो डालने में 10 से 20 प्रतिशत राशि संवेदक की जेब से कटती है. बिल भुगतान के समय 11 प्रतिशत कमीशन विभाग में लगता है.

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गुमला, दुर्जय पासवान:

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कमीशन के खेल में जिले के संवेदकों का दर्द सामने आया है. जिले में हर एक इंजीनियर का कमीशन बंधा हुआ है. कमीशन के इस खेल में विकास योजनाओं की गुणवत्ता भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रही है. बिना कमीशन लिए इंजीनियर का कलम नहीं चलता है. एग्रीमेंट से पूर्व ही 12 प्रतिशत कमीशन देना पड़ता है.

बिना कमीशन के योजना का एग्रीमेंट नहीं होता है. किसी भी योजना को मैनेज करने या बिलो डालने में 10 से 20 प्रतिशत राशि संवेदक की जेब से कटती है. बिल भुगतान के समय 11 प्रतिशत कमीशन विभाग में लगता है. इस 11 प्रतिशत राशि को इंजीनियर से लेकर एकाउंटेंट व कार्यालय में बांटे जाते हैं. कमीशन का प्रतिशत देखा जाये, तो एक योजना में 40 से 43 प्रतिशत कमीशन विभाग को देना पड़ता है. इसके अलावा अलग से रॉयल्टी, जीएसटी व मजदूरी में 10 से 13 प्रतिशत बिल से कटौती होती है, यानि एक योजना में 50 प्रतिशत राशि बांटने के बाद बची शेष 50 प्रतिशत राशि से ही योजना पूरी करनी पड़ती है.

यही वजह है कि गुमला में एक भी काम गुणवत्तापूर्ण नहीं होता है. जिले के संवेदकों ने अपनी पीड़ा से मुख्यमंत्री को अवगत कराया है. उन्होंने मुख्यमंत्री को ज्ञापन प्रेषित कर कमीशन के इस खेल को बंद करने की मांग की है, ताकि सरकारी योजनाएं गुणवत्तापूर्ण पूरी हो सके. अब 50 प्रतिशत राशि मिलती है: पहले जिला योजना से 80 प्रतिशत राशि विमुक्त की जाती थी, परंतु, अब 50 प्रतिशत राशि ही विभाग द्वारा दी जाती है.

संवेदक बाकी 50 प्रतिशत की राशि की मांग करते हैं, तो संवेदकों को परेशान करने के लिए कई तरह से एक ही योजना की जांच बैठा दी जाती है. जांच की जिम्मेवारी बीडीओ को दी जाती है. इसके बाद अलग से बीडीओ को भी कमीशन देना पड़ता है, ताकि बेवजह की परेशानी से वे बच सके. स्थल जांच प्रतिवेदन देने में टाल-मटोल बीडीओ द्वारा किया जाता है. इस प्रक्रिया में छह से नौ महीने लग जाते हैं. कभी-कभार तो एक साल परेशानी झेलनी पड़ती है.

नक्सल व अपराध समस्या:

संवेदकों के अनुसार नक्सल व अपराध भी ठेकेदारी के काम में सबसे बड़ी बाधक व समस्या है. गुमला नक्सल ए श्रेणी में आता है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य कराने के दौरान उग्रवादियों द्वारा लेवी की मांग की जाती है. लेवी नहीं देने पर जान से मारने की धमकी दी जाती है. साथ ही काम भी बंद करा दिया जाता है.

संवेदकों की पीड़ा:

इन सभी तरह की कठिनाइयों के बावजूद संवेदकों को टेंडर लेकर काम करना मजबूरी है. क्योंकि उनको परिवार चलाने के लिए आय का एकमात्र जरिया ठेकेदारी हैं. कारण रोजगार का अधिक साधन नहीं है. इसलिए वे ठेकेदारी को ही रोजगार बना लिए हैं. अगर वे ठेकेदारी नहीं करेंगे, तो बेरोजगार हो जायेंगे.

पीस रहे हैं छोटे संवेदक:

संवेदकों ने कहा है कि पांच से 50 लाख रुपये तक के कार्य कराने वाले सभी तृतीय व चतुर्थ श्रेणी के संवेदक बहुत कम पूंजी वाले हैं. ऐसे में उनके ऊपर कानूनी कार्रवाई करना, भुगतान रोकना या नहीं देना उनको मानसिक रूप से प्रताड़ित करने जैसा है. कई संवेदक बर्बाद हो चुके हैं व कुछ भुखमरी में जी रहे हैं.

हाकिम चाहते हैं काम:

पहले गुमला की परंपरा थी. जिले में जितने भी हाकिम आये. सभी हाकिम विकास योजना से कमीशन लेते रहे हैं. परंतु, अभी के हाकिम ने कमीशन लेने से साफ इंकार कर दिया है. अभी के हाकिम का स्पष्ट निर्देश है कि काम में गुणवत्ता चाहिए, भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं करेंगे. हाकिम तो कमीशन नहीं ले रहे हैं, परंतु, गुमला के इंजीनियर कमीशन को अपना मंदिर का प्रसाद समझते हैं.

कमीशन का धंधा बंद हो:

नाम नहीं छापने की शर्त पर एक इंजीनियर से बात की गयी, तो उन्होंने कहा यहां कोई इंजीनियर मानने वाले नहीं है. वेतन से कई गुणा अधिक पैसा कमीशन से कमाते हैं. परंतु, जब भी किसी इंजीनियर से बात कीजियेगा. वे अपने को दूध का धुला हुआ बतायेंगे. कमीशन का धंधा बंद होना चाहिए और इस मामले की जांच भी होनी चाहिए.

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