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झारखंड : आजीविका के सिमटते साधन से युवा अपने गांव से पलायन को हैं मजबूर

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सिदो-कान्हूू, चांद- भैरव की यह धरती बहुमूल्य खनिज संपदा की धनी है. दुःख की बात यह है कि आजादी के इतने वर्षो बाद भी यहां के लोगों की न तो दशा बदली और न दिशा. इतना देखने को अवश्य मिला कि यहां के लोग जंगल और जमीन से दूर होने पर मजबूर कर दिये गये. इससे यहां के लोगों के जीवन शैली में परिवर्तन आ गया है.

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प्रो कृष्ण कुमार द्विवेदी

प्रत्येक अंचल की अपनी एक खास पहचान और विशेषता होती है. जो उस क्षेत्र की आबोहवा को शान से संवरती है. झारखंड का संथालपरगना क्षेत्र राज्य का पवित्र गृहभूमि है. इसकी अपनी परंपराएं हैं. सांस्कृतिक मामले में यह क्षेत्र बड़ा विशिष्ट है. भाषा और लोगों के रहन-सहन के आधार पर इसकी एक अलग पहचान पूरे विश्व में है. यह स्वयं में अपना एक स्वर्णिम अतीत समेटे हुए हैं. सिदो-कान्हूू, चांद- भैरव की यह धरती बहुमूल्य खनिज संपदा की धनी है. दुःख की बात यह है कि आजादी के इतने वर्षो बाद भी यहां के लोगों की न तो दशा बदली और न दिशा. इतना देखने को अवश्य मिला कि यहां के लोग जंगल और जमीन से दूर होने पर मजबूर कर दिये गये. इससे यहां के लोगों के जीवन शैली में परिवर्तन आ गया है. रोजगार के लिए आदिवासी व अन्य समुदाय के लोग बड़ी संख्या शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं.

जल, जंगल और जमीन के लिए लंबे संघर्ष के बाद 15 नवम्बर 2000 को बिहार से अलग होकर एक आदिवासी बहुल राज्य झारखंड बना था. इसका लाभ यह हुआ कि पिछले 22 वर्षो में इस राज्य की कमान पांच बार आदिवासी नेताओं के हाथ में रही. 28 एसटी विधानसभा सीटों के बावजूद इस राज्य में रह रहे आदिवासी तंगहाली में ही जी रहे हैं तथा पलायन को मजबूर हैं. करमा, सोहराय आदि जैसे त्योहार के दौरान इनकी कला और संस्कृति मनमोहक आकर्षक छटा बिखेरती है, लेकिन विकास की दौड़ में आज ये लोग पीछे छूट गये हैं. चिंता का विषय यह है कि झारखंड में आदिवासी समुदाय की संख्या घट रही है. 1951 में जब झारखंड नहीं बना था. तब इसकी जनसंख्या 36:02 फीसदी थी, लेकिन राज्य झारखंड बनने के बाद 2011 में इनकी जनसंख्या 26:02 फीसदी हो गयी. इसका मुख्य कारण पलायन और धर्मांतरण है.

आदिवासी सिर्फ वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल होता रहा है. जब कभी भी रोजगार की बात होती है तो इस समाज को मजदूर के रूप में ही देखा जाता है. आजीविका के सिमटते साधन के वजह से झारखंड वासियों के युवाओं को अपने गांव से पलायन करना पड़ रहा है. लाखों की संख्या में आदिवासी युवक-युवती अपनी पेट की आग बुझाने के लिए राज्य के बाहर जाने के लिए बाध्य हैं. झारखंड में पलायन व मानव तस्करी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. पलायन और मानव तस्करी विकास से जुड़े कई विरोधाभाषी मुद्दों में से एक महत्वपूर्ण और गंभीर मुद्दा है. झारखंड में दलित व आदिवासी आबादी का 35 प्रतिशत जनसंख्या पलायन को मजबूर हैं. इनमें 55 प्रतिशत महिलाएं, 30 प्रतिशत पुरूष और 15 प्रतिशत बच्चे शामिल हैं. इनमें सबसे ज्यादा दिहाड़ी मजदूर व शेष फर्जी प्लेसमेंट एजेंसी व दलालों के द्वारा राज्य से बाहर ले जाये जा रहे हैं.

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नौकरी दिलाने के नाम पर महिलाओं और बच्चों को दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता जैसे महानगरों में बेचने की घटनाएं भी लगातार सामने आती रही हैं. प्लेसमेंट ऐजेंसी के द्वारा विदेशों में भी झारखंड से महिलाओं व युवाओं को कामगार के तौर पर शिफ्ट किया जा रहा है. जहां उनका शारीरिक व मानसिक शोषण किया जाता है. राज्य में नवम्बर 2012 तक लगभग 40 हजार पासपोर्ट जारी किये जा चुके हैं. मजदूर सस्ती दरों पर उपलब्ध होने के कारण मजदूरों का पलायन खाड़ी देशों में भी लगातार हो रहे हैं. देश के भीतर भी सवार्धिक पलायन झारखंड से है. जामताडा जिले के विभिन्न प्रखंड क्षेत्र से बंगाल, ओड़िशा, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, केरल आदि राज्यों में मजदूरों की टोली रोजगार की तलाश में पलायन करते देखे जा सकते हैं. झारखंड में पिछले पांच वर्षों में 1574 लोग मानव तस्करी के शिकार हो चुके हैं.

वर्ष 2019 से लेकर 2022 के अंत तक मानव तस्करी के कुल 656 केस दर्ज किये गये है. इनमें मानव तस्करी के शिकार की संख्या 1574 थी. 18 वर्ष से कम उम्र के मानव तस्करी के शिकार युवकों की संख्या 332 और 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों की संख्या 117, 18 वर्ष से अधिक उम्र की लडकियों की संख्या 309 थी. गत वर्ष राज्य में सबसे अधिक मानव तस्करी के केस गुमला, सिमडेगा, खूंटी, साहिबगंज और रांची में दर्ज किये गये है. इन पांच वर्षो में सबसे अधिक 212 लोग सिमडेगा से मानव तस्करी के शिकार हुए है. पलायन व मानव तस्करी के दौरान भंयकर बीमारियों व यौन संबंधी संक्रमित रोगों के शिकार हो जाते हैं. राज्य में पलायन व मानव तस्करी का मुख्य कारण शिक्षा व रोजगार के क्षेत्र का सम्यक विकास नहीं होना है. वर्तमान में 12वीं के बाद प्रौद्योगिकी, चिकित्सा व अन्य रोजगार मूलक शिक्षा के लिए बेंगलुरु, चेन्नई, भुवनेश्वर की तरफ बच्चों को जाना पड़ रहा है.

शिक्षा के पश्चात अपने राज्य में रोजगार उपलब्ध नहीं से बच्चे दूसरे प्रदेशों को अपनी प्रतिभा से लाभांवित करा रहे हैं. शिक्षा के लिए आवश्यक आधारभूत संरचना व उद्योग धंधे का क्षेत्र में विकास नहीं होने से गरीबी बढ़ी है. वनों की अंधाधुंध कटाई ने भी इस समस्या को जन्म दिया है. आंकड़ें बताते हैं कि संथालपरगना क्षेत्र में साहेबगंज में मात्र 2ः3 प्रतिशत वन रह गया है. पाकुड़ और गोड्डा वन विहिन क्षेत्र बन चुका है. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के सहयोग से हुए एक अध्ययन में यह बात सामने आयी है कि बदलती हुई कृषि पद्धतियों ने भी संकटपूर्ण प्रवासन को बढ़ा दिया है. राज्य में कृषक एक फसली कृषि पर गुजर-बसर करते हैं. वर्ष के छह माह किसान परिवारों के पास नगद आमदनी के लिए काम नहीं रहता है. यह समस्या पलायन को बल प्रदान करता है. महिलाएं बिना किसी सुरक्षा उपाय के मजदूरी के बारे में बिना किसी सटीक पड़ताल व जानकारी के दलालों के साथ अकेले प्रवास करती है और तस्करी एवं शोषण के मध्य पिस जाती है. आमतौर पर मजदूरों का पलायन धनरोपनी के बाद होता था, लेकिन पिछले कुछ वर्षो से सुखाड़ की आशंका ने पहले ही उन्हे गांव घर छोड़ने के लिए विवश कर दिया है.

मनरेगा व अन्य योजनाएं कारगर नहीं

मानव तस्करी दीमक की तरह राज्य को खोखला कर रही है. यह राज्य व केंद्र सरकार दोनों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए. सबसे आश्चर्य की बात है कि सरकार व प्रशासन सोचती है. केवल कानून बना देने से सभी समस्याएं खत्म हो जाएंगी. लेकिन ऐसी समस्याएं सिर्फ कानून से हल होने वाली नहीं है. मजदूरों को रोजगार व सामाजिक सुरक्षा प्रदान के लिए तैयार की गई. मनरेगा या अन्य संबंधित योजनाएं अधिक कारगर साबित नहीं हो पा रही है. केंद्र और राज्य सरकार पलायन व मानव तस्करी रोकने के लिए कई योजनाएं चला रही है, लेकिन धरातल पर योजनाओं का क्रियान्वयन नहीं हो सका है. सच तो यह है कि इन समस्याओं के मूल में गरीबी है. यदि सरकार काम मुहैया नहीं कराती है तो राज्य में मानव तस्करी व पलायन जैसी समस्याएं जारी रहेगी. ऐसा नहीं है कि सरकार के पास विकास के लिए संसाधन की कमी है या जरूरत है तो सिर्फ इसे सही अमलीजामा पहनाने की.

(निदेशक ब्रीलिऐंट अकादमी, मिहिजाम)

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