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संथाल समाज में जानाम छाटियार

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रिवाज़ वैसे तो हिंदुस्तान में लगभग हर समाज में व्याप्त है पर संतालों की रिवाज़ की बात ही अलग है. वहीं ‘चाचो छाटियार’ जैसे रिवाज़ दूसरे समाज में शायद ही दिखने को मिलता हो

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महेंद्र बेसरा ‘बेपारी’ :

यूं तो संताल समाज में कई रिवाज़ और परंपराएं हैं जिसमें सहभागिता, सहजीविका, समर्पण और संगीत की झलक देखने को मिलती है. ऐसे ही एक रिवाज़ ‘जानाम छाटियार’ संतालों में युगों से चली आ रही है और पुरखों की इस विरासत को संजोये रखते हुए नई पीढ़ी को प्रदान करते जा रही है. ‘जानाम छाटियार’ जिसे मूलतः नये बच्चे के जन्म के मौके पर आयोजित होने वाला एक समाजिक रिवाज़ है. यह रिवाज़ वैसे तो हिंदुस्तान में लगभग हर समाज में व्याप्त है पर संतालों की रिवाज़ की बात ही अलग है. वहीं ‘चाचो छाटियार’ जैसे रिवाज़ दूसरे समाज में शायद ही दिखने को मिलता हो.

‘जानाम छाटियार’ बच्चे के जन्म में आयोजित होने वाला एक सामाजिक आयोजन होता है. ‘जानाम’ अर्थात जन्म और ‘छा़टियार’ अर्थात समाज के लोगों के सामने दिखाना, पेश करना या बताना होता है. ‘जानाम छाटियार’ के तहत नवजात बच्चे को समाज के सामने लाया जाता है और उसका नामकरण किया जाता है. संतालों में जब तक शिशु का नामकरण समाज के बीच में नहीं किया जाता है तो वह शिशु समाज का हिस्सा नहीं बन पाता है. ‘जानाम छाटियार’ के द्वारा समाज के लोग नवजात शिशु को अपने समाज का हिस्सा बनाते हुए उसका स्वागत करते हैं.

उसको अपने समाज का नव अतिथि बनाकर उसका सत्कार किया जाता है. लोग उसका नाम जान पाते हैं और पूरा समुदाय इसका गवाह बनता है ताकि गांव समाज के लोग यह कह सके कि यह बच्चा फलाने का है. इस अवसर पर घर के लोग ‘नीम सुड़े’ (अरवा चावल से बना सादा खिचड़ी जिसमें नीम के पत्ते को भुंजकर उसमें मिलाया जाता है) गांव समाज के सभी लोगों को खिलाया जाता है.

जानाम छाटियार– इसे संताली में ’नीमदाक् मा़ण्डी’ भी कहते हैं अर्थात नीम का भात. इसे हाथ से नहीं खाया जाता है बल्कि कटोरा में ही मुंह लगा कर पिया जाता है. संताल समाज में जब भी कोई बच्चा का जन्म होता है तो उसे अपने पिता का ही पा़रिस अर्थात गोत्र मिलता है, अपनी मां का नहीं. जब बच्चा जन्म लेता है तो उसके नाभि के नाल को तीर से काटा जाता है और उसे घर के दरवाज़े के पास ज़मीन के नीचे दबा दिया जाता है जिसे ‘बुका़ तोपा’ अर्थात नाल का दफन कहते हैं.

इसीलिए जब दो अनजान संताल कहीं मिलते हैं तो एक दूसरे को पूछते हैं की आपका ‘बुका़ तोपा’ कहां है? अर्थात आपका नाभि का नाल कहां दफन हुआ है, तो आदमी अपने घर या गांव का नाम बताता है. एक तरह से ‘बुका़ तोपा’ घर या गांव का पर्याय शब्द की तरह व्यवहार किया जाता है.

किसी संताल घर में अगर लड़का जन्म लेता है तो उसका ‘जानाम छाटियार’ पांच दिन में होता है और अगर लड़की जन्म लेती है तो उसका ‘जानाम छाटियार’ तीन दिन में होता है. जब बच्चा का जन्म होता हैं तो घर के साथ पूरा गांव छूत हो जाता है. इस दरमियान गांव घर में कोई पूजा पाठ या कोई भी संस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन नहीं होता है. गांव का कोई भी आदमी उस घर में प्रवेश नहीं करता है. असल में पुरखे लोग छूत इसीलिए कहते हैं कि जब किसी घर में कोई बच्चा जन्म लेता है तो दूसरे आदमी को उस घर में जाना इसीलिए वर्जित करते हैं ताकि नव जन्मा बच्चा और और उसकी मां को किसी तरह की बाहरी व्यक्ति के द्वारा संक्रमण फैलने से बचाया जा सके.

‘जानाम छाटियार’ एक तरह से छूत मिटाने का भी एक आयोजन होता है. जब पांच या तीन दिन पूरा होता है तो बच्चे की मां को हल्का गर्म पानी से नहलाया जाता है. उसके कपड़े को गरम पानी से साफ किया जाता है. पूरा घर आंगन को गोबर से लेपा जाता है, तब जा कर गांव समाज के लोगों को आमंत्रण दिया जाता है. गांव के सभी स्त्री-पुरुष एवं बच्चे नहा धोकर ही उस घर में प्रवेश करते हैं ताकि स्वच्छ वातावरण बना रहे और नए बच्चे को किसी तरह का संक्रमण न हो सके.

विधि विधान – ‘जानाम छाटियार’ के लिए बच्चे का पिता अपने टोला के सभी घर में जा कर अपने घर आने का निमंत्रण देते हैं ताकि सब लोग मिलकर नव जन्में बच्चे के लिए आयोजित कार्यक्रम को पूर्ण किया जा सके. उस दिन टोला के सभी पुरुष उस घर के सामने जमा होते हैं. घर का मालिक एक नाई (नापित) को बुलाता है ताकि सभी पुरुष अपना दाढ़ी काट सके और मोछ बना सके. इसी दरमियान तंबाकू आर ‘चुटी’ (साखुआ के पत्ते से बनाया जानेवाला सिगरेट आदान प्रदान होता है और लोग उससे हालचाल पूछते हैं.

नाई सबसे पहले ‘नायके’ (गांव के पुरोहित) का दाढ़ी बनाते हैं और अगर उक्त समय नायके मौजूद नहीं रहते हैं तो उसके स्थान पर ‘कुडा़म नायके’ (उप परहित) का दाढ़ी बनाते हैं. उसके बाद मा़ंझी (ग्राम प्रधान), पारानिक (ग्राम सचिव), जो़ग मा़ंझी (प्रधान का सहायक), जो़ग पारानिक (पारानिक का सहायक), गोडेत (संदेश वाहक) का दाढ़ी बनाते हैं. उसके बाद गांव के सभी पुरुषों का दाढ़ी बनाकर सबसे अंत में बच्चे के पिता का दाढ़ी बनाते हैं.

गांव के पुरूषों के दाढ़ी बनाने के बाद नाई मुण्डन के लिए बच्चे को लाने के लिए बोलते हैं. घर में पहले से मौजूद ‘धा़ंई बुढी’ (दाई) बच्चे को गोद में लिए दरवाजे पर आती है. वो अपने साथ दो दोना लाती है. एक दोना में पानी जिसे बच्चा का सर भिगाया जा सके और एक दोना बच्चा का बाल रखने के लिए ताकि उसे घाट में जाकर बहाया जा सके और इस तरह से दाई की गोद में बच्चे का मुण्डन होता है. मुंडन होने के बाद स्नान जानें के लिए दाई जिस तीर से बच्चे का नाभि का नाल काटी थी उसमें दो अरवा धागा बांधती है और साथ में हल्दी, तेल, सिंदुर तीन अलग-अलग दोना में सजाती है.

यह काम संपन्न होने के बाद बच्चे के पिता एक बड़ा सा दोना में सरसों का तेल लिए सभी पुरुषों को स्नान करने के लिए पोखर या नदी में जाते हैं. वे जब स्नान करके लौटते हैं तो दाई की अगुवाई में सभी समाग्री को लेके घर की महिलाएं भी स्नान करने के लिए प्रस्थान करती हैं. पोखर या नदी में पहुंचने के बाद वो घाट बनाती है और उसमें पांच जगह सिंदुर लगाती इसे ‘घाट किरिञ’ (घाट खरीदना) कहते हैं. तीर में बंधा हुआ एक धागा बच्चे के बाल के साथ दोना सहित पानी में बहा दिया जाता है.

बचा हुआ दुसरा धागा और तीर को पानी में धो कर स्नान करने के बाद घर ले आती है. घर लौटने के बाद उस धागा को हल्दी में डुबोकर बच्चे के कमर मे बांध दी जाती जिसे सासाङ डोरा’ ( कमर में बंधा जानेवाला हल्दी युक्त धागा) कहते हैं. इसके बच्चे की मां अपने बच्चे को ‘आतनाक्’ के पत्ते के साथ गोद में लेकर घर के चौखट में बैठती है. चौखट में बैठने के बाद दाई उसके उसके उपर से गोबर का पानी गिराती और बच्चे की मां उसे अपने हाथों में लेकर अपने माथे में लगाती है, जरा सा मुंह में लेती है. इसके बाद बच्चे की मां घर के अंदर जाती है और बच्चे को खाटिया में सुला देती है.

दाई तीन दोना में अरवा चावल का आटा का घोल बनाती है. पहला दोना का घोल खाटिया के चारों पैरों में छिड़कती है और फ़ेंक देती है. दुसरे दोना का घोल आंगन में जमा हुए पुरुषों में सबसे पहले ’नायके’ (पुजारी) के सीने में छिड़कती है. उसके बाद कुडा़म नायके (पुजारी का सहायक), मा़झी (ग्राम प्रथान), पारानिक (प्रधान का सचिव), जो़ग मा़ंझी (उप प्रधान), जो़ग पारानिक (उप सचिव), गोडेत (संदेश वाहक) के सीने में छिड़कती है.

उसके बाद एक-एक कर गांव के सभी पुरुषों के सीने में घोल छिड़कने बाद दोना को फ़ेंक देती है. फिर तीसरे दोना का घोल सबसे पहले नायके एरा (पुजारी की पत्नी), कुडा़म नायके एरा (उप पुजारी की पत्नी), मा़ंझी एरा (ग्राम प्रथान की पत्नी), पारानिक एरा (ग्राम सचिव की पत्नी), जो़ग मा़ंझी एरा (उप प्रधान की पत्नी), जो़ग पारानिक एरा (उप सचिव की पत्नी), गोडेत एरा (संदेश वाहक की पत्नी) और बाकी सभी महिलाओं के सीने में एक-एक कर छिड़कने के बाद दोना को फ़ेंक देती है.

संताल समाज में जब कोई बच्चा जनम लेता है तो उस बच्चा का नाम बच्चे के पिता के पिता का नाम दिया जाता है. वहीं अगर लड़की की जन्म होती है तो उस बच्चा का नाम अपने पिता के मां के नाम पर होता. इसे ‘गो़ड़ो़म ञुतुम’ (सहयोगी नाम या किसी का नाम दुसरे किसी आदमी को देना) या ‘भितरी ञुतुम’ (भीतरी नाम) बोला जाता है. अगर दुसरा लड़का होता है तो उस बच्चा का नाम अपने मां की पिता के नाम में होता है और अगर लड़की होती है तो उस बच्चा का नाम अपनी मां की मां के नाम में होता है.

बाद में जो बच्चे जन्म लेते हैं तो उनका नामकरण चाचा-चाची, फुफा-बुआ, मामा-मामी के नाम में होता है. उपरोक्त नाम बच्चे के लिए बहुत खास होता है. उक्त नाम के साथ उसका संबंध बहुत गहरा होता है. बच्चे उस नाम से बुलवाना पसंद नहीं करते हैं क्योंकि वो नाम उसके लिए बहुत महत्व होता है. कोई अगर उसको भितरी नाम से पुकारे तो उसको ऐसा लगता है जैसे वो व्यक्ति अपने सम्मानित व्यक्ति का नाम ले रहा हो. कभी-कभी लोग बच्चे को चिढ़ाने के लिए भितरी नाम से पुकारते हैं, जिसे उसको बुरा लगता है.

संताल समाज में जब दो ब्यक्ति का नाम एक सा होता है तो उन दोनों के बीच में ’गो़ड़ो़मिया’ (सहयोगी/ एक दुसरे के सहायक) का रिशता बन जाता है. इसमें चाहे कोई अनजान हो या उम्र से छोटा बड़ा ही क्यों न हो. उन दोनों में गहरा अपनत्व और सम्मान का भाव रहता है. ‘गो़ड़ोम ञुतुम’ के साथ साथ बच्चे को उपरी नाम या पुकारे जानेवाला नाम भी दिया जाता है ताकि गांव वाले उसे उक्त नाम से कभी भी बुला सके.

माता पिता द्वारा नाम तय होने के बाद दाई जमा हुए लोगों के सामने बच्चा का नाम बताती है और हरेक लोगों के साथ ‘डो़बो़क् जोहार’ (पारंपारिक अभिवादन) करती है ये कहते हुए कि नये मेहमान का ‘गो़ड़ो़म ञुतुम’ (सहयोगी नाम) फलना है और उसका पुकारा जानेवाला नाम फलना है. अगर लड़का है तो चलो फलना शिकार करने, अगर लड़की है तो सहेली उसे ‘चलो सखी पत्ता तोड़ने या साग तोड़ने जाते हैं, करके बुलाया जाए. उस समय जिस पुरूष या महिला के नाम से बच्चे का नाम रखा गया है वो बच्चे को अपने गोद में लेते हैं और खुशी जाहिर करते हूए लोगों के साथ हंसी-ठिठोली करते हैं.

ऐसा करने के बाद घर से ‘नीम सुड़े’ लोगों के बीच बांटने के लिए आंगन में लाया जाता है. दाई गांव के पुरोहित को सबसे पहले देती है उसके बाद समाज के मुख्य गणमान्य लोगों को फिर सभी पुरुषों को देती है. ऐसे ही पुरुषों को देने के बाद पुरोहित की पत्नी को सबसे पहले देते हुए गणमान्य लोगों की पत्नियों में बांटकर गांव की सभी महिलाओं को देती है. इस तरह से छूत मिट जाता है और बच्चा समाज का हिस्सा बनकर अपने मध्य में अतिथि बन जाता है. ‘जानाम छाटियार’ का यह सामाजिक अयोजन यहीं पर समाप्त हो जाता है. पांच दिन के बाद फिर से दाई और नाई मिलकर बच्चे का मुंडन का कार्य दोहराते हैं और अपना-अपना मेहनताना पा कर विदा लेते हैं.

निया में अनेकोंनेक समुदाय रह रहे हैं और उनकी कई तरह की संस्कृति है. उन संस्कृति में कई अजीबो गरीब रस्मों रिवाज़ एवं परंपराएं विद्यमान हैं जिन्हें जान कर हम हैरानी में पड़ जाते हैं. परंपराएं उक्त समाज की एक विशेष पहचान होती है, जिसे लोग पीढ़ी दर पीढ़ी अपने पुरखों के द्वारा बनाए गए रश्मों रिवाज़ को निभाते आ रहे हैं. रीति रिवाज़ समाज के लोगों को एक सूत्र में बांधने का काम करती है और आदिम इतिहास और प्राकृतिक महत्व को जानने का अवसर प्रदान करती है. रीति रिवाज़ समाज के लोगों के बीच एकजुटता, आपसी मेल मिलाप और खुशियां बाटने का आयोजन करती है. अगर संताल समाज की रीति रिवाज़ की बात की जाए तो यह दुनिया की सबसे अदभुत और अलग कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

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