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हर महीने पूजा व आराधना के अपने-अपने विधान

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खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में. दुबे बाबा, देवान बाबा, ब्रह्म देव बाबा इत्यादि कई आस्था और उम्मीदों के केंद्र हैं यहां. इन सबों की अलग-अलग पूजा पद्धति है और पूजक वर्ग भी.

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मूर्ति पूजन सभी त्योहारों का लगभग अनिवार्य हिस्सा है. सरस्वती पूजा बसंत पंचमी में और फिर कार्तिक महीने में ज्ञान पंचमी में, गणेश पूजा, चारों कल्पों की दुर्गा पूजा, हर महीने काली पूजा, त्रिपुरसुंदरी पूजा, विश्वकर्मा पूजा, मनसा पूजा, जगद्धात्री पूजा, बगलामुखी पूजा, लक्ष्मी पूजा, कर्मा, जिउतिया, देवोत्थान, नवान्न…कई आराधनाएं है और कई आराध्य. स्थानीय दैवीय शक्तियों का भी पूर्ण सम्मान और कृतज्ञता ज्ञापन में भी कोई कमी नहीं.

खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में. दुबे बाबा, देवान बाबा, ब्रह्म देव बाबा इत्यादि कई आस्था और उम्मीदों के केंद्र हैं यहां. इन सबों की अलग-अलग पूजा पद्धति है और पूजक वर्ग भी. बाबा वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की पूजन पद्धति में दुर्गम जंगल यात्रा कर बेलपत्र लाना और विभिन्न दलों की गुणवत्ता आधारित प्रदर्शनी, गठबंधन, घामचंदन, प्रदोष व्रत, सोमवार व्रत, मनोकामना पूर्ति हेतु ‘थापा’ देना,धरना देना आदि यहां की प्राचीन परंपरा रही है

किसी की मृत्यु होने पर मृतक के घर वाले अपने विवेक से समय देखकर परिजनों को सूचित करते हैं ताकि किसी का खाना पीना बेवजह बाधित न हो. मृतक यदि पुरुष है तो ससुराल पक्ष, यदि महिला है तो मायके पक्ष से श्मशान घाट पर सारी व्यवस्था की जाती है. तीसरे दिन अस्थि संचय कर उसे दामाद भगीना या नवासे गंगा में विसर्जित करते हैं. पांच अस्थियां अनिवार्यत: शिवगंगा में विसर्जित की जाती है. पुत्र जिस ने मुखाग्नि दी है उसे ‘कर्ता’ कहते हैं और घर के अधिकांश सदस्य 12 दिनों तक नमक का सेवन नहीं करते.

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उनके खाने पीने की व्यवस्था परिजनों द्वारा की जाती है. जिसमें बिना नमक के खाना पीड़ित के घर पहुंच आते हैं और आगंतुक इस खाद्य सामग्री को जिसमें पूरी, सब्जी, सेवई,मलाई पेड़े और अन्य वस्तुएं दी जाती है,लेकर आते हैं. इन सामग्रियों को सांकेतिक रूप से ‘छाली पेड़ा’ देना कहते हैं या इसके बदले सुविधानुसार नगद राशि भी दी जाती है. उपनयन में ‘भीख’, कन्यादान में ‘दहेज’, नववधू की ‘मुंह दिखाई’ की तरह इसे भी लिखित रूप में रिकॉर्ड कर रखा जाता है ताकि यहां से जो राशि आई है उसे वक्त पर वापस किया जा सके.

12वें दिन इस सहयोग राशि को ‘कर्ता’ के ‘चुमानौ’ का नाम दिया जाता है. भोज में एकादशा श्राद्ध और द्वादशा श्राद्ध कर्म संपन्न होता है जिसमें घाट पर और घर में, दोनों जगह मृतक के निमित्त दैनिक जीवन की सामग्रियों का दान किया जाता है. मृत्यु की तिथि को हर महीने मृतक की याद में ब्राह्मण भोजन का आयोजन होता है जिसे छाया कहते हैं. साल भर के बाद फिर वार्षिकी श्राद्ध किया जाता है जिसे हम ‘बरखी’ कहते हैं.

गया श्राद्ध सुविधानुसार कालांतर में किया जाता है. कुशी अमावस्या, तर्पण, विशुआ संक्रान्ति, भुजदान,एकोदिष्ट, पार्वण इत्यादि पितरों के प्रति स्थायी आदरभाव दिखाने के वार्षिक कर्मकांड हैं. इस देवनगरी में धार्मिक कृत्यों में शैव,शाक्त और वैष्णव तीनों मतों का समायोजन है और तीनों ही अत्यधिक विधि-विधान और नियम पूर्वक किए जाते हैं.

धार्मिक कृत्यों में यहां के लोकजीवन में मिथिला, बंगाल, आदिवासी और अन्य कमजोर वर्गों की पूजन पद्धति को भी अंगीकृत किया गया है, पूर्ण श्रद्धा भाव के साथ. बतौर मिथिला आप्रवासी यहां वह सभी रीति-रिवाज चलन में हैं जो वहां हैं कुछ अफवादों को छोड़कर. बसंत पंचमी मिथिला से वैद्यनाथ धाम के संबंधों की व्याख्या करती है. बंगाल के संस्कृति की यहां के रीति-रिवाजों पर पूरी छाप है हालांकि ये तेजी से कम हो रही है. कई आदिवासी पर्व हम सक्रियता से मनाते हैं जैसे करमा, वनदेवियों की वार्षिक पूजा.

मूर्ति पूजन सभी त्योहारों का लगभग अनिवार्य हिस्सा है. सरस्वती पूजा बसंत पंचमी में और फिर कार्तिक महीने में ज्ञान पंचमी में, गणेश पूजा, चारों कल्पों की दुर्गा पूजा, हर महीने काली पूजा, त्रिपुरसुंदरी पूजा, विश्वकर्मा पूजा, मनसा पूजा, जगद्धात्री पूजा, बगलामुखी पूजा, लक्ष्मी पूजा, कर्मा, जिउतिया, देवोत्थान, नवान्न…कई आराधनाएं है और कई आराध्य. स्थानीय दैवीय शक्तियों का भी पूर्ण सम्मान और कृतज्ञता ज्ञापन में भी कोई कमी नहीं.

खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में. दुबे बाबा, देवान बाबा, ब्रह्म देव बाबा इत्यादि कई आस्था और उम्मीदों के केंद्र हैं यहां. इन सबों की अलग-अलग पूजा पद्धति है और पूजक वर्ग भी. बाबा वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की पूजन पद्धति में दुर्गम जंगल यात्रा कर बेलपत्र लाना और विभिन्न दलों की गुणवत्ता आधारित प्रदर्शनी, गठबंधन, घामचंदन, प्रदोष व्रत, सोमवार व्रत, मनोकामना पूर्ति हेतु ‘थापा’ देना,धरना देना आदि यहां की प्राचीन परंपरा रही है .

वार्षिक और अन्य छोटे-बड़े यज्ञ, साधु-संत सत्संग यहां के आध्यात्मिक कैलेंडर के हिस्से है. महिलाओं के व्रत त्योहारों की अलग ही विवरणी है. ‘पारनौ’और ‘संयत’ और व्रतों की अंतहीन लिस्ट. नवान्न के दूसरे दिन ‘गुड़िया नेमान’ और विजयादशमी के दूसरे दिन स्थानीय बेटियों के अपने मायके जाने और त्योहार में आपसी मेलजोल दुरूस्त करने का रिवाज है.

नगर स्तर पर आयोजित छठ, शीतला पूजा, मनसा पूजा, विश्वकर्मा पूजा, गर्भगृह, कुम्मर पूजा विभिन्न सामाजिक तबकों द्वारा बड़े सौहार्द्र पूर्ण रूप से मनाया जाता है. ग्रामीण क्षेत्रों में किसान सूर्याहू, दुबे बाबा,गरभू कुमर आदि गृहस्थ आश्रम के आराध्य हैं. वर्षा न होने पर बाबा मंदिर के गर्भगृह को पूरी तरह जलमग्न करना, इस विश्वास के साथ कि बाबा पानी देंगे और ऐसा होता है, हुआ है. इसे ‘जल भरी’ भरना कहते हैं.

इस शहर में टोटकों की भी अपनी महत्ता है. विपत्ति में टोटके खासकर, महिलाओं और कम शिक्षित वर्ग को मानसिक सुकून देने वाले कर्मकांड माने जाते हैं. अतिवृष्टि में ‘चरको पड़ियैन’ की आकृति आंगन में बनाना ताकि बारिश रुक जाये. गृहिणियों के लिए आम बात है. ग्रहण में खाद्य सामग्रियों में कुश रखना ताकि पवित्रता नष्ट ना हो. श्मशान से लौटकर दरवाजे पर तंबाकू मुंह में लेकर कुल्ला करना और कोई भी सामान खो जाने पर ‘स्याही’ दिखलाना, यहां के रीति-रिवाजों या अंधविश्वास के पुराने हिस्से रहे हैं. पूर्वजों के प्रति हमारी कृतज्ञता साल पर्यंत दिखती है हमारे सभी त्योहारों में. एकोद्दिष्ट, पार्वण, नवान्न में भुगतान, दीपावली में उल्का दान आदि पूर्वजों के साथ संबंधों के गर्माहट को बरकरार रखने की आध्यात्मिक कवायद है.

बाबा बैजनाथ चूंकि इस नगरी के सूर्य हैं, जीवनदाता… अतः उनके प्रति कृतज्ञता हमारे कर्मकांडों में साल पर्यंत झलकती है. हर मौसम, ऋतु में अलग-अलग सुलभ फल-फूल, व्यंजन, खाद्य सामग्रियों, हम पहले बाबा को अर्पित करते हैं फिर स्वयं उपयोग में लाते हैं. मकर संक्रांति में तिल के लड्डू, बसंत पंचमी में घी, जाड़े में मेखला, गर्मियों में गलंतिका,ॠतु-सुलभ फल पुष्प और अन्य श्रृंगार सामग्रियां,

विष्णु भगवान को सारद्य पुष्प, लक्ष्मी माता को कमल, शाक्त मार्ग में विभिन्न देव-देवियों के निमित्त बलि प्रदान और पिछले 200 सालों से चली आ रही नगर गंवाली पूजा, जिसमें मंदिर परिसर में काली मां की वार्षिक पूजा और नगर कल्याण के लिए सार्वजनिक हवन और नगर स्तर पर कुमारी बटुक भोजन का आयोजन होता है, समस्त नगरवासियों की भागीदारी होती है. पूजा के पूर्व नगर बंधन होता है और अमूमन लोग-बाग बाहर नहीं जाते.

समय के साथ कई रीतियां और रिवाज विलुप्त हो गये हो गए या कहिए कर दिये. सामाजिक संबंधों में पहले निमंत्रण देने की प्रक्रिया बहुत मेहनती और लंबी थी पहले घर के दरवाजे पर जोर से पुकार के निमंत्रण फिर खाना तैयार हो जाने पर उसकी सूचना. इसके पहले भाग को “नेतौ” और संपूरक भाग को ‘बीजौ’ कहते थे. बिजौ खानपान का पासवर्ड था और इस बिना इसके आपके दरवाजे पर लोग नहीं आते थे.

‘लोकाचारी’ जिसमें मृतक अपने परिजनों को श्राद्ध कर्म के कार्यक्रमों से अवगत कराते हैं और सहयोग का आग्रह करते हैं, अब औपचारिक हो गया है और अब संख्या बल महत्वपूर्ण नहीं है. पहले बाजार के सौदे को छोड़कर किसी भी मरने जीने में सब कुछ सामाजिक सहयोग से होता था. आयोजन स्थल, बर्तन, कार्यकर्ता, सब्जी काटने के लिए घर से पड़ोस से, महिलाएं अपनी हंसुली के साथ आ जाती थी पर आज हर काम सशुल्क होता है. सामाजिक दायित्व और सहयोग हाशिए पर हैं.

साक्षरता के बढ़ते प्रतिशत ने आम जन मानस को रीति-रिवाज और अंधविश्वास के बीच के फर्क को समझने में सहायता की है और इसीलिए समय के साथ, जो रीति-रिवाज अप्रासंगिक हो गए थे, गलत थे,अस्वीकार्य माने गये, उसे पीढ़ियों ने समाप्त कर दिया. समय से बड़ा शिल्पी कोई नहीं होता. यह सब कुछ बदल कर रख देता है. लोकजीवन भी इससे अछूता नहीं और मनुष्य तो अपने नियम अपनी सुविधा के लिए ही बनाता है और सुविधा के ही अनुसार प्राकृतिक और मानवीय संशोधन सतत रूप से होते ही रहते हैं.

यह एक संपूर्ण,सतत और संक्रामक प्रक्रिया है. और बात रही देवघर की तो इस शिव नगरी में बावलों की क्या कमी!! यकीन न हो तो देख लिजिए कैसे जमीन पर दंडवत लोटते हुए, टूटे हुए गठबंधन के धागों को लूटने की दीवानगी, शिवरात्रि के पूर्व मंदिरों के शिखरों से उतारे गए पंचशूलों को छूने का मैराथन…जी हाँ ये भी यहां के रीति-रिवाज हैं और अनोखे हैं, फलदायक हैं.

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