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बोकारो : मधुकरपुर में दिलचस्प है काली पूजा प्रारंभ होने की कहानी, सालों पहले शुरू हुई थी पूजा

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कसमार प्रखंड के मधुकरपुर में काली पूजा का इतिहास यानी इसके प्रारंभ होने के पीछे एक दिलचस्प कहानी या घटनाक्रम जुड़ा हुआ है. यूं कह लें, ब्रह्महत्या के दोष से मुक्ति के लिए भी यहां मां काली की पूजा शुरू की गयी थी.

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दीपक सवाल, कसमार : कसमार प्रखंड के मधुकरपुर में काली पूजा का इतिहास यानी इसके प्रारंभ होने के पीछे एक दिलचस्प कहानी या घटनाक्रम जुड़ा हुआ है. यूं कह लें, ब्रह्महत्या के दोष से मुक्ति के लिए भी यहां मां काली की पूजा शुरू की गयी थी. दरअसल, मधुकरपुर में तिवारी परिवार सदियों से बसा हुआ है. यहां सबसे पहले आनंद तिवारी के आने की बात कही जाती है. तिवारी परिवार जहां भी गया, साथ में इनके ठाकुरजी (वंशीधर श्रीकृष्ण की मूर्ति का सिंहासन) सदैव बने रहे. इसी कड़ी में मधुकरपुर में भी ठाकुरबाड़ी का निर्माण हुआ. ठाकुरजी की वहां नित्य सेवा होती थी. भोग, आरती, पूजा नित्य का क्रम था. इसी दौरान जनकल्याण की भावना से 1800 के आसपास तिवारी परिवार चास के निकट चमसोबाद गांव से बाबा भयहरण का स्थान अपने ठाकुरबाड़ी में ले आये. ठाकुरजी के साथ उनकी पूजा भी होने लगी. बताया जाता है कि चमसोबाद की तरह यहां भी रथ यात्रा या किसी विशिष्ट पूजा के दिन भयहरण बाबा का ध्यान करने पर पुजारी के ऊपर उनका भाव आ जाता था. तब उन्हें हाथ में एक लोटा जल दिया जाता था. उससे वह सूर्य को अर्घ्य अर्पण करते थे. इसके बाद जो कोई अपनी मनोकामना उनसे पूछते, वह मन की बात के साथ-साथ किसी प्रकार की समस्या का समाधान भी बताते थे. उनका बताया उपाय कारगर होता था. इससे लोगों की आस्था और भीड़ बढ़ने लगी. 1850-1890 के आसपास कुछ लोग इसे कमल तिवारी का व्यापार कहकर व्यंग्य करने लगे. कई लोग भयहरण का परीक्षण भी लेने लगे. इसी बीच एक दिन एक बगलगीर मैथिल ब्राह्मण ने भाव के समय परीक्षा लेने के ख्याल से भयहरण बाबा से कह बैठे कि मेरे चारों बेटे आज ही मर जाए, तभी मानेंगे कि ये भयहरणा सही में देवता है और इनका भाव सही है. भयहरण ने काफी विनती की कि कोई अन्य परीक्षा लें. यह ब्रह्म-हत्या का परीक्षण उचित नहीं है. लेकिन वह नहीं माने. अंततः भयहरण ने कहा, जाओ ऐसा ही होगा. इतना कहते ही उनका भाव उस दिन समाप्त हो गया. उन्होंने यह भी कहा कि अब मैं इस स्थान पर नहीं रहूंगा. अन्यत्र स्थान दें, यहां ब्रह्महत्या हो गयी है.

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दूसरे ही दिन कमल तिवारी उस मुहल्ले को छोड़ अपने साथ भयहरण की पीढ़ा व ठाकुरजी के साथ दूसरे मुहल्ले में चले गये, जहां उनके चाचा भिक्षुक तिवारी रहा करते थे. उनके घर के सामने की ही कमल तिवारी ने दो कमरे का घर बनाकर ठाकुरजी का सिंहासन एवं भयहरण बाबा के पीढ़ा को स्थापित किया. गांव के सेवानिवृत्त व्याख्याता रामकुमार तिवारी के अनुसार, उस घटना के बाद पुराना ठाकुरबाड़ी खाली पड़ा था. ग्रामीणों को यह अच्छा नहीं लग रहा था. लोगों ने वहां मां काली को स्थापित करने का निर्णय लिया. कहा, काली की पूजा होने से ब्रह्महत्या के कलुष से भी मुक्त हुआ जा सकता है. इसके बाद काली पूजा की शुरुआत उसी पुराने ठाकुरबाड़ी में हुई. पूजा पाठ की जिम्मेवारी तिवारी परिवार को मिली. पूजा सार्वजानिक होती थी, किंतु देखरेख, पूजा-पाठ तिवारी परिवार के जिम्मे था. कालांतर में गांव वालों ने मिट्टी का घर हटाकर ईंट-सीमेंट से मंदिर बनाया.

यहां प्रारंभिक काल से ही काली पूजा में बलि प्रथा रही है. 1881 से काली पूजा की देखरेख तिवारी परिवार करता रहा है. हालांकि, यह भी सुना जाता है कि कुछ दिनों तक सार्वजनिक पूजा चंदा कर गांव के लोगों के द्वारा भी किया गया. किंतु कुछ वर्षों बाद नहीं संभल पाने की वजह से तिवारी परिवार को ही जिम्मेदारी दे दी गयी. तिवारी लोग भी चंदा इकट्ठा कर इनकी पूजा बडी तन्मयता एवं मनोयोग से करते थे. लेकिन लगभग सौ वर्षों के बाद (1996 के बाद) चंदा संग्रह में कठिनाई को देखते हुए 2017 में तिवारी परिवार ने काली पूजा की संपूर्ण जिम्मेवारी गांव को सौंप दी. गांववालों ने इसे सहर्ष स्वीकार किया. अब यह भव्य और आकर्षक मंदिर का रूप ले चुका है और यहां बड़े धूमधाम से पूजा होती है.

पूजा को सफल बनाने के लिए कमेटी गठित

मधुकरपुर में काली पूजा को सफल बनाने व धूमधाम से मनाने के लिए एक कमेटी भी गठित की गयी है. इसमें धीरेन कपरदार अध्यक्ष, भोला स्वर्णकार उपाध्यक्ष, कुलदीप प्रजापति सचिव तथा गौतम स्वर्णकार कोषाध्यक्ष के अलावा कैलाश महतो, धीरेंद्रनाथ महतो, रोहित स्वर्णकार, मदन स्वर्णकार, प्रफुल्ल महतो, दिनेश महतो, महेश महतो, सुधाकर महतो, मनोज तिवारी आदि कार्यकारिणी सदस्य बनाये गये हैं.

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