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कहीं गुम हो गईं तो कहीं विलुप्त होने के कगार पर दिवाली की परम्पराएं

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दीपावली का त्यौहार खुशहाली का प्रतीक माना जाता है

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पूर्णिया. दीपावली का त्यौहार खुशहाली का प्रतीक माना जाता है. यह प्रकृति व संस्कृति का भी तालमेल है. दीपावली के दिनों की कई परम्पराएं पौराणिक काल से चलती आ रही हैं पर बदलते दौर में न केवल परम्पराएं विलुप्त हो रही हैं बल्कि पर्व-त्यौहार मनाने के तरुर-तरीके भी बदल गये हैं. यही कारण है कि अब पहले की तरह दीपावली नहीं मनाई जाती. वर्तमान परिवेश पर आधुनिकता के असर के कारण हमारे त्योहारों को मनाने के तरीकों में भी बदलाव नजर आने लगा है. आलम यह है कि नई पीढ़ी को तो कई परम्पराओं का पता तक नहीं. बिजली की लड़ियां जलाने और आतिशबाजी को ही वे दीपावली का त्योहार समझ रहे हैं. यहां पेश है कुछ परंपराओं सच जो कहीं-कहीं ही नजर आता है.

दीपावली में मिट्टी के दीयों की बरकरार है परंपरा

दीपावली में भले ही दीयों का विकल्प बन कर आए इलेक्ट्रानिक आइटमों का अधिक क्रेज हो, पर दीयों की परंपरा आज भी बरकरार है. वैसे, इसपर भी आधुनिकता का रंग चढ़ा है पर इसके बावजूद लोग दीपावली में दीया जरुर जलाते हैं. पहले पूजा घर फिर दरवाजे पर कहीं तेल तो कहीं घी के दीये जलाए जाते हैं. लोग मानते भी हैं कि मिट्टी के दीयों का एक अलग महत्व है. यह माना जाता है कि आज भी दिवाली बिना मिट्टी के दीयों और मिट्टी के कलश के बिना अधूरी रहती है. यही वजह है कि इस परंपरा को बचाए रखने के लिए कुम्हार समाज के लोग महीनों पहले से दीयों के निर्माण में लग जाते हैं.

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गुम हो गये अब मिट्टी के घरौंदे, बिक रहे रेडिमेड घरौंदे

दीपावली के अवसर पर घरौंदा बनाने की सदियों पुरानी परंपरा रही है. हालांकि अब यह परंपरा धीरे-धीरे विलुप्त होने के कगार पर है. एक दौर था जब दीपावली में मिट्टी के बने घरौंदे आंगन की शान हुआ करते थे, लेकिन समय के साथ तरीका बदल रहा है. आज के दौर में लकड़ी, टीन व थर्नमोकोल के भी घरौंदे ने मिट्टी के घरौंदे की जगह भी ले ली है. दीपावली के एक पखवाड़े पूर्व से ही अविवाहित लड़कियां मिट्टी का घरौंदा बनाने की तैयारी में जुट जाती थी. अपने हाथों से मिट्टी से एक से पांच महल तक का घरौंदा तैयार करती थी, फिर उसको रंगों से सजाती थी. मिट्टी के दीये जलाकर नौ प्रकार की मिठाई, सात प्रकार का भूजा आदि मिट्टी के चुकियों में भरकर घरौंदा पूजन करती थी. मगर, बदलते दौर में यह परंपरा भी आधुनिकता की भेंट चढ़ गई है. बाजारों में अ‘ थर्मोकोल व चदरा निर्मित बाजार में बिक रहे हैं. वैसे गांवों में कमोबेश आज भी पुरानी परंपरा जीवित है.————————————–

शहर में कम पर गांवों में आज भी है हुक्का पाती परंपरा

दीपावली में ‘हुक्का पाती’ खेलने की भी परंपरा रही है. हालांकि इसका प्रचलन शहर में कम दिखता है पर गांवों में इसे लोग नहीं भूले हैं. दरअसल, दीपावली की शाम लक्ष्मी-गणेश पूजन के बाद हर घर में हुक्का पाती के सहारे लक्ष्मी को घर के अंदर और दरिद्र को बाहर किये जाने की परंपरा पुराने समय से चली आ रही है. इसमें कई संठी को मिलाकर कम से कम पांच जगहों पर बांध दिया जाता है. उसके बाद पूजा घर के गेट पर जलाये गये दीपक में उसे जला कर तीन बार घर के बाहर लाकर बुझाया जाता है. फिर, घर के सभी पुरुष सदस्य उसे हाथ में लेकर अपने पूरे परिसर का भ्रमण करते हैं और लकड़ी जब छोटी बच जाती है तो पांच बार उसे लांघ कर बुझा दिया जाता है. शहर में दीपावली करीब आते ही संठी की बिक्री बढ़ जाती है. गांव में मुफ्त बंटने वाला संठी शहर के बाजारों में महंगे दर पर बिकते हैं. इस समय संठी का दाम भी चढ़ जाता है.

फोटो. 29 पूर्णिया 1- दीपावली के मौके पर हुक्का पाती खरीदती महिलाएं

2- रेडिमेड मिट्टी का घरौंदा खरीदती महिला

3-मिट्टी का दीया खरीदती लड़की

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डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है

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