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ब्रज की होली की तरह बेमिसाल है सहरसा की घमौर होली, बनगांव में एक दूसरे के कंधे पर चढ़कर लगाते हैं रंग-गुलाल

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घमौर होली की परंपरा भगवान श्री कृष्ण के काल से चली आ रही है. 18 वीं सदी में यहां के प्रसिद्ध संत लक्ष्मी नाथ गोसाई बाबा ने तय किया था. बनगांव के लोगों की माने तो यहां की होली सांप्रदायिक एकता का प्रतीक है. बाबा गोसाई द्वारा स्थापित सभी जाति धर्म के लोग बगैर राग द्वेष के एक साथ होली खेलते है

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इस वर्ष होली 8 मार्च को मानायी जाएगी. ऐसे में हर तरफ होली की तैयारी शुरू हो गयी है. बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में होली अलग- अलग तरीके से मनायी जाती है. सहरसा के बनगांव में मनाई जाने वाली बेमिसाल घमौर होली की भी एक अपनी अलग पहचान है. यहां की होली ब्रज में मनायी जाने वाली होली जैसी होती है. बनगांव की इस घुमौर होली में लोग एक दूसरे के कंधे  पर चढ़ जाते हैं और जोर अजमाइस कर के होली मनाते है. बनगांव की घमौर होली की शुरुआत संत लक्ष्मी नाथ गोसाईं द्वारा की गयी थी. यहां की होली ब्रज की लठमार होली की तरह ही प्रसिद्ध है.

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श्री कृष्ण के काल से चली आ रही है घमौर होली की परंपरा

ऐसी मान्यता है कि घमौर होली की परंपरा भगवान श्री कृष्ण के काल से चली आ रही है. 18 वीं सदी में यहां के प्रसिद्ध संत लक्ष्मी नाथ गोसाईं बाबा ने यह तय किया था. बिहार की सबसे बड़ी आबादी वाले व तीन पंचायत वाले बनगांव की होली की देश में एक अलग सांस्कृतिक पहचान रखता है. बनगांव के भगवती स्थान के पास इमारतों पर रंग बिरंगे पानी के फब्बारे में फिंगोने के बाद इनकी होली पूरी होती है.

कपड़ा फाड़ कर यहां मनाते हैं होली

बनगांव के लोगों की माने तो यहां की होली सांप्रदायिक एकता का प्रतीक है. बाबा लक्ष्मी नाथ गोसाई द्वारा स्थापित सभी जाति धर्म के लोग बगैर राग द्वेष के एक साथ होली खेलते है, सभी लोग बैलजोड़ी होली का प्रदर्शन करते है. पुरे क्षेत्र और गांव के लोग भगवती स्थान के प्रांगण में आकर यहां खेलते है. एक दूसरे का कपड़ा फार के होली का आनंद उठाते है. गांव की एकता का ये बहुत अनूठी मिसाल है. सभी जाति धर्म के लोग एक दूसरे के कंधे पर सवार होकर होली का आनंद लेते है.

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