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Coronavirus: जहां प्रदूषित हवा, वहां कोरोना का ज्यादा असर, दूषित हवा से लोगों के इम्यून पर पड़ रहा घातक प्रभाव

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Coronavirus in Bihar प्रदूषित हवा खासतौर पर पीएम 2.5 से कमजोर हुए इंसानी इम्यून सिस्टम पर कोरोना ज्यादा असर दिखा रहा है. यह वैज्ञानिक सत्य है कि कोरोना और पीएम 2.5 दोनों का टारगेट लंग्स पर ही रहा है.

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पटना : प्रदूषित हवा खासतौर पर पीएम 2.5 से कमजोर हुए इंसानी इम्यून सिस्टम पर कोरोना ज्यादा असर दिखा रहा है. यह वैज्ञानिक सत्य है कि कोरोना और पीएम 2.5 दोनों का टारगेट लंग्स पर ही रहा है. फिलहाल राजधानी सहित प्रदेश के मुख्य शहरों में कोरोना केस की संख्या अप्रत्याशित तौर पर बढ़ती दिख रही है. इस संदर्भ में अध्ययन कर रहे विज्ञानियों का मानना है कि एयर पॉल्यूशन कोरोना जैसी बीमारी की दिक्कत को बढ़ाता जरूर है.

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धूलकण वाले इलाके में रहने वाले लोगों का का इम्यून सिस्टम दो भागों में विभाजित होता है : पटना विश्वविद्यालय में पर्यावरण जीव विज्ञानी प्रो जीके पॉल बताते हैं कि पार्टिकुलेट मैटर यानी बारीक ठोस धूलकण व कोरोना दोनों ही एंटीजन हैं, क्योंकि दोनों ही शरीर में बाहर से प्रवेश करते हैं. दोनों से लड़ने के लिए शरीर की एंटीबॉडी सक्रिय होती है. इस तरह यह एंटीबॉडी की ताकत बंट जाती है. डॉ पॉल के मुताबिक धूलकण वाले इलाके में रहने वाले लोगों का का इम्यून सिस्टम दो भागों में विभाजित होता है. ऐसे में कोरोना ज्यादा हमलावर हो जाता है. क्योंकि, उसे कमजोर प्रतिरक्षा तंत्र मिलता है, वह उसे आसानी से मात देकर आदमी को पीड़ित कर देता है.

इस तरह बन जाता है प्राणघातक

इंटरनेशनल एकेडमी ऑफ साइंस एंड रिसर्च के वैज्ञानिक डॉ विनायक सिंह ने बताया कि पीएम 2.5 की अधिकता वाले शहर के लोगों के लंग्स पहले से ही 12-20 फीसदी निष्क्रिय अवस्था में रहते हैं. दरअसल ये कण लंग्स को कमजोर कर देते हैं. कोरोना भी सबसे ज्यादा असर लंग्स पर डालता है. दरअसल ठोस बारीक धूलकण लंग्स पर पायी जाने वाली कूपकाओं (एल्विलाइ) पर जम जाते हैं. ये कूपकाएं ही ऑक्सीजन को शरीर में संतुलित रखती हैं. इसलिए धूलकण की वजह से शरीर में कूपकाओं में ऑक्सीजन की मात्रा कम होती जाती है. लिहाजा कोरोना के हमले में सांस लेने में असहनीय दिक्कत आने लगती है. इसकी वजह से जिंदगी खतरे में आ जाती है.

हवा का प्रदूषण केवल रोग की जटिलता बढ़ा सकता है. फिलहाल इस नजरिये से अभी अध्ययन नहीं किया गया है. इसलिए औपचारिक तौर पर कुछ कहना संभव नहीं है. यह बात सच है कि घनी आबादी वाले इलाकों में इसकी सक्रियता अधिक है, क्योंकि लोग छोटे छोटे घरों में रहते हैं.

डॉ नीरज अग्रवाल, विभागाध्यक्ष, डिपार्टमेंट ऑफ कम्युनिटी मेडिसिन

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