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Azadi Ka Amrit Mahotsav: पूर्णिया के प्रथम MLA बने थे कमलदेव बाबू, पढ़ें त्याग-बलिदान की अनूठी कहानी

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आजादी के बाद 1952 में पहली बार चुनाव हुआ जिसमें कमलदेव बाबू पूर्णिया सदर से प्रत्याशी बनाये गये. चुनाव खर्च के लिए उन्हें कांग्रेस की ओर से पांच सौ रुपये की सहायता राशि या खर्च के रूप में मिली थी.

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पूर्णिया: स्वतंत्रता संग्राम में कमलदेव नारायण सिन्हा का नाम भुलाया नहीं जा सकता. अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ चलने वाली जनक्रांति के वे ऐसे नायक थे जो रेंट रिडक्शन विभाग की सरकारी नौकरी छोड़ कर आंदोलन में कूद पड़े थे. अपनी आंदोलनात्मक गतिविधियों से उन्होंने अंग्रेजों के नाक में दम कर दिया था और यही वजह है कि अंग्रेजी हुकूमत ने अपनी फौज को उन्हें जिंदा या मुर्दा गिरफ्तार करने का फरमान जारी किया था. अगस्त क्रांति के दौरान 27 अगस्त को पूर्णिया कलेक्ट्रेट पर चढ़ाई करने की योजना बनी थी और कमलदेव बाबू अपनी टीम के साथ 24 अगस्त को कोसी नदी पर बने हरदा पुल को तोड़ने निकल गये थे.

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गांधीवादी धारा के प्रबल समर्थक थे कमलदेव नारायण

आजादी के इन दीवानों को डर था कि चढ़ाई के दौरान अंग्रेजी फौज पुल पार कर पूर्णिया पहुंच गयी तो मुश्किल होगा. यह अलग बात है कि लोहे का बना पुल काफी मशक्कत के बाद भी नहीं टूटा था. बाद के दिनों में कमलदेव बाबू की पहचान गांधीवादी वैचारिक धारा के प्रबल समर्थक के रूप में बनी.

अंग्रेजों को चकमा देने में माहिर थे कमलदेव बाबू

दरअसल, 27 अगस्त 1942 के दिन पूर्णिया कलेक्ट्रेट पर चढ़ाई कर आजाद हिंदुस्तान की घोषणा की योजना बनी थी और इस दौरान सभी सरकारी दफ्तरों पर तिरंगा लहराया जाना था. कमलदेव बाबू इस आंदोलनात्मक कार्यक्रम के सक्रिय सेनानी थे और उन्हें कोढ़ा और खजांची थाना पर इस काम का दायित्व सौंपा गया था. कलेक्ट्रेट के कार्यक्रम का नेतृत्व लक्ष्मी नारायण सुधांशु के जिम्मे था. अंग्रेजों की परेशानी यह थी कि जाल बिछाये जाने के बाद भी कमलदेव बाबू उनकी गिरफ्त में नहीं आते थे. वे आंदोलन को अंजाम देकर भूमिगत हो जाते थे. वे शहर में कम और गांव में अधिक रहते थे. अंग्रेज सिपाही जब तक उनके ठिकाने पर पहुंचते, वे एक गांव से अंदर ही अंदर दूसरे गांव निकल जाते थे. लेकिन, 28 अगस्त को वे अंग्रेजों की गिरफ्त में आ गये और पूर्णिया जेल में डाल दिये गये थे. यह उनकी पहली जेल यात्रा थी. उन्हें डिफेन्स एक्ट की धारा 129 के तहत पकड़ा गया था और नजरबंद कैदी की तरह रखा गया था. बाद में उन्हें फुलवारीशरीफ जेल शिफ्ट कर दिया गया था. करीब 22 महीने के बाद वे रिहा किये गये.

स्वतंत्र भारत में पूर्णिया के प्रथम विधायक बने

आजादी के बाद 1952 में पहली बार चुनाव हुआ जिसमें कमलदेव बाबू पूर्णिया सदर से प्रत्याशी बनाये गये. चुनाव खर्च के लिए उन्हें कांग्रेस की ओर से 5 सौ रुपये की सहायता राशि या खर्च के रूप में मिली थी. मतदान की प्रक्रिया उस समय एक दिन में नहीं होती थी. चुनाव के लिए मतदान की प्रक्रिया 4 जनवरी 1952 को शुरू हुई और 23 जनवरी को समाप्त हुई. 24 जनवरी को हुई मतगणना में कमलदेव बाबू 13 हजार 44 वोट पाकर निर्वाचित घोषित किये गये. 12 मई 1952 को उन्होंने विधानसभा में सदस्यता की शपथ ली. 1952 से 1971 तक कुल छह चुनाव हुए और वे लगातार पूर्णिया के लिए प्रतिनिधित्व करते रहे. 1977 में हुए चुनाव में वे हार गये. इस दौरान वे विभिन्न सामाजिक व सहकारी संगठनों से जुड़ कर जनता की सेवा करते रहे.

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