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भागलपुर में विविध रूपों में काली, पूजन का विधान भी अलग-अलग, जानें किन नामों से स्थापित होती हैं प्रतिमाएं

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मां काली की सार्वजनिक पूजा भी भागलपुर में 300 वर्ष पहले शुरू हुई और अब यह घर-घर पूजी जाने लगी. हरेक मोहल्ले में मां काली की प्रतिमा स्थापित की जाती है. इसमें खास यह है कि मां काली का नाम व पूजन विधि भी अलग-अलग है. कहीं तांत्रिक विधि, कहीं बांग्ला विधि तो कहीं वैदिक विधि से पूजा होती है.

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दीपक राव, भागलपुर. बिहार की संस्कृति काफी प्राचीन ही नहीं, समृद्धिशाली है. शक्ति की पूजा की परंपरा शुरू से यहां रही. मां काली की सार्वजनिक पूजा भी भागलपुर में 300 वर्ष पहले शुरू हुई और अब यह घर-घर पूजी जाने लगी. हरेक मोहल्ले में मां काली की प्रतिमा स्थापित की जाती है. इसमें खास यह है कि मां काली का नाम व पूजन विधि भी अलग-अलग है. कहीं तांत्रिक विधि, कहीं बांग्ला विधि तो कहीं वैदिक विधि से पूजा होती है. परबत्ती, इशाकचक, मोमिनटोला, हबीबपुर में बुढ़िया काली, मंदरोजा में हड़बडिय़ा काली, रिकाबगंज में नवयुगी काली, उर्दू बाजार और बूढ़ानाथ में मसानी काली, बरमसिया काली, रतिकाली, जुबली काली, बमकाली आदि नामों से मां को पुकारा जाता है.

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अति प्राचीन हैं परबत्ती व इशाकचक की बुढ़िया काली

परबत्ती की काली मां अति प्राचीन है. इसलिए नाम बुढ़िया काली पड़ा. 20 साल पहले बिजली का ठनका गिरने से बरगद का पेड़ बिखर गया था, लेकिन मान्यता है कि मां की कृपा से बरगद का वृक्ष फिर पुरानी स्थिति में हो गया. लोगों की मान्यता है कि सच्चे मन से मांगी गयी मुराद पूरी करती हैं. माता की प्रतिमा खुले आसमान के नीचे विराजती है. प्रधान संरक्षक कामेश्वर यादव हैं और उनके साथ युवाओं की टोली लगी रहती है. दूसरी इशाकचक की बुढ़िया काली भी खुले आसमान के नीचे रहती है.

सोनापट्टी, वारसलीगंज व मुंदीचक में सोना-चांदी से लदी रहती है मां

सोनापट्टी, वारसलीगंज व मुंदीचक में मां काली सोना-चांदी और हीरा-मोती से लदी होती है. स्वर्णकारों में सोना-चांदी चढ़ाने की परंपरा है. जिला स्वर्णकार संघ के पूर्व सचिव विजय साह ने बताया कि तीनों स्थानों पर स्वर्णकार समाज की ओर से पूजा होती है. मुंदीचक व सोनापट्टी में रत्न चढ़ाने की परंपरा अधिक है. हालांकि, वारसलीगंज में भी कम नहीं है. सोनापट्टी में 200 साल पहले बच्चों ने पिंडी बनाकर मां की पूजा शुरू की. काली स्थान को स्वर्णकारों ने भव्य बनवा दिया गया. विजय साह ने बताया कि यहां वैदिक विधि-विधान से पूजा होती हे.

200 वर्ष से जोगसर में होती आ रही है मां काली की पूजा

बम काली जोगसर में मां काली की पूजा 200 वर्षों से अधिक समय से होती आ रही है. जब प्रतिमा कतारबद्ध होकर विसर्जन शोभायात्रा की परंपरा शुरू हुई, तो बमकाली सबसे आगे रहती थी. 1960 से परबत्ती की बुढ़िया काली की प्रतिमा सबसे आगे विसर्जन के लिए जाने लगी और बम काली की प्रतिमा सबसे पीछे. स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता अभय घोष सोनू ने बताया कि यहां की काली की स्थापना बामा खेपा ने की थी. इसलिए बमकाली मां नाम पड़ा.

Also Read: सामाजिक समरसता का प्रतीक है मां काली की पूजा, दीक्षा लेने के लिए जाति का कोई बन्धन नहीं

मसानी काली के नाम से उर्दू बाजार व बूढ़ानाथ समीप होती है पूजा

उर्दू बाजार व बूढ़ानाथ घाट पर मसानी काली के नाम से मां की पूजा होती है. 150 साल पहले यहां पूजा शुरू हुई. उर्दू बाजार में मिट्टी की सामान्य प्रतिमा बनती थी. 40 साल पहले साज-सज्जा वाली प्रतिमा बनायी जा रही है. सचिव गिरीशचंद्र भगत ने बताया कि मसानी काली सिद्ध मानी जाती है.

तांत्रिक विधि से होती है इशाकचक में मां काली की पूजा

इशाकचक स्थित मां बुढ़िया काली की पूजा तांत्रिक विधि से होती है. यहां माता की पिंडी की पूजा होती है. यहां माता मंदिर में नहीं विराजती हैं. खुले में इनकी पूजा होती है. सवा सौ साल पहले यहां माता की पिंडी रखी गई थी. 1985 में बगल में मंदिर बनाया गया. मंदिर के पुजारी विजय कुमार मिश्र उर्फ बच्चू पंडित ने बताया कि मंदिर के बगल में रेलवे लाइन बनने लगी तो मां काली की पिंंडी रेलवे के किनारे लाया गया. अभी मिट्टी की पिंडी के चारो ओर दीवार है. उसके बीच माता की प्रतिमा स्थापित की जाती है.

बंगाल से आयी चक्रवर्ती काली

चंपानगर बंगाली टोला में 1700 में इस्वी में काली मंदिर की स्थापना हुई है. सामाजिक कार्यकर्ता देवाशीष बनर्जी ने बताया कि देवेंद्र नाथ के पिता नभो चक्रवर्ती पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के जमींदार थे. उनका परिवार मां काली का परम भक्त थे. वीरभूम स्थित अपने काली मंदिर में वे मां की पूजा करते थे. यहां आने पर काली मंदिर की स्थापना की. बिहार में शायद ही कोई ऐसी मंदिर हो जहां वैष्णवी व तांत्रिक दोनों विधि से मां काली की पूजा होती हो.

दुर्गाबाड़ी व कालीबाड़ी में बांग्ला विधि से होती है पूजा

मशाकचक दुर्गाबाड़ी व मानिक सरकार घाट रोड स्थित कालीबाड़ी में मां काली की पूजा बांग्ला विधि-विधान से होती है. दोनों स्थानों का 100 साल पुराना इतिहास है. यहां की संस्कृति पश्चिम बंगाल से जुड़ी है.

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