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लाचारी: कोई स्थायी ठिकाना नहीं, सफर में कटती जिंदगी, हर मौसम में खुले आसमान का सहारा

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औरंगाबाद: औजार बना कर वहीं पर इनके द्वारा उसकी बिक्री भी की जाती है. ये गरीब श्रमिक सालों भर घूमते रह कर कहीं न कहीं अपना ठिकाना बना लेते हैं और स्थानीय स्तर पर कबाड़ की दुकानों से लोहा खरीद कर आग में तपा कर और पीट कर विभिन्न प्रकार के कृषि यंत्र, औजार व दैनिक उपयोग की वस्तुएं बना कर बेचते हैं.

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ओम प्रकाश

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औरंगाबाद. गरीबों का अगर जीवन नहीं देखा तो क्या देखा, कोई उजड़ा हुआ गुलशन नहीं देखा तो क्या देखा, हकीकत से रूबरू होकर तुम्हें अनुभव दिलाएगी, बिना पर का कोई आंगन नहीं देखा तो क्या देखा … किसी कवि की ये पंक्तियां सड़क किनारे लोहे के औजार बनाने वाले गरीब श्रमिकों पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं. दाउदनगर अनुमंडल मुख्यालय के भखरुआं बाजार रोड में नहर पुल के पास स्थित सब्जी मंडी के पास सड़क किनारे ठक- ठक की आवाज सुनकर बरबस ही ध्यान उस ओर आकर्षित हो जाता है. राजस्थान में पाये जाने वाली घुमंतू जनजातियों का मुख्य काम लोहे के औजार उपयोग की वस्तुएं बनाना है. कृषि उपकरण का औजार बनाते गरीब श्रमिक देखे जा रहे हैं.

कोई स्थायी ठिकाना नहीं, सफर में कटती जिंदगी

औजार बना कर वहीं पर इनके द्वारा उसकी बिक्री भी की जाती है. ये गरीब श्रमिक सालों भर घूमते रह कर कहीं न कहीं अपना ठिकाना बना लेते हैं और स्थानीय स्तर पर कबाड़ की दुकानों से लोहा खरीद कर आग में तपा कर और पीट कर विभिन्न प्रकार के कृषि यंत्र, औजार व दैनिक उपयोग की वस्तुएं बना कर बेचते हैं. 50 से 60 रुपये प्रति किलो की दर से कबाड़ दुकानों से लोहा की खरीद की जाती है और उसका औजार बना कर ढाई सौ रुपये किलो की दर से बाजार में बेचा जाता है. अगर किसी दिन बाजार की स्थिति अच्छी नहीं रही, तो इससे कम कीमत पर भी औजार बेचना इनकी मजबूरी हो जाती है. पुरुष व महिलाएं एक साथ मिल कर काम करते हैं. देश में बहुत कुछ बदल गया है, लेकिन अगर नहीं बदला है, तो वह है इन लोहारों की जिंदगी. इन्हें लोहगड़िया लोहार भी कहा जाता है.

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बेकार लोहे से उपकरण बनाने में हैं दक्ष

जिस लोहे के टुकड़े को आमतौर पर बेकार समझकर कबाड़ा में बेच दिया जाता है, उसी लोहे को कबाड़ा से खरीद कर और आग में तपा कर इन लोगों के द्वारा कृषि औजार व दैनिक उपयोग की अन्य सामग्रियां बनायी जाती है. इनकी कार्य कुशलता को देखकर लोग आश्चर्यचकित हो जाते हैं. इन्हें देखकर यही कहा जा सकता है कि वर्तमान परिस्थिति में ये लोग उपेक्षा का शिकार हैं. साथ ही इन्हें रोजगार और रोजगार के साधन व प्रशिक्षण दिये जाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है.

हर मौसम में खुले आसमान का सहारा

राजस्थान के कोटा जिला के साकोली निवासी फोकर लाल, गीता, कोटा निवासी राम सिंह, जगदीश आदि पिछले पांच-छह दिनों से दाउदनगर में यह कार्य कर रहे हैं. इनका कहना है कि पूरी जिंदगी सफर में करती है. आज यहां तो कल वहां जाकर ये लोग सड़क किनारे ही अपना अस्थाई ठिकाना बना लेते हैं. रात में कर्म स्थल के पास ही खुले आसमान के नीचे उन्हें रात गुजारना पड़ता है. इनके पास रहने के लिए घर, तो दूर मौसम से जूझने के लिए अच्छा टेंट तक नहीं है. मौसम की मार झेलते हुए टेंट के सहारे इन बंजारों की जिंदगी गुजर रही है.

नहीं दिख रही सार्थक पहल

डिजिटल इंडिया की ओर कदम बढ़ा रहे इस देश में इन बंजारों की स्थिति सुधारने के लिए कोई सार्थक पहल नहीं देखी जा रही है. गरीबी और अभाव से जूझ रहे इनके काफिले में बच्चे भी शामिल हैं. इन बच्चों ने स्कूल का चेहरा तक नहीं देखा होगा. इन लोगों के साथ इनके बच्चे भी रहते हैं. इनके बच्चे पढ़ना भी चाहते हैं पर इनका कोई स्थाई ठिकाना नहीं होना आड़े आ जाता है. कहीं भी ठंड में आसमान को घर मानकर रहते हैं. कई पीढ़ियां गुजरने के बाद भी सरकार ने उन्हें किसी प्रकार की कोई सुविधा नहीं दी है. न तो रहने के लिए इनके पास घर है न ही खेती करने करने के लिए. जमीन रोजगार की तलाश में यहां-वहां भटकना इनकी मजबूरी बन चुकी है.

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