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जब मकान मालिक ने पीछा छुड़ा लिया, कंपनी ने मुंह मोड़ लिया तो घर की याद सताने लगी. मजदूरों की पुकार सरकार तक पहुंची और इंतजाम नहीं हो सका तो पैदल, साइकिल, ट्राइ साइकिल, इ-रिक्शा, जुगाड़ गाड़ी से घर का राह पकड़ लिये

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संजय कुमार अभय, बलथरी(गोपालगंज) : जब मकान मालिक ने पीछा छुड़ा लिया, कंपनी ने मुंह मोड़ लिया तो घर की याद सताने लगी. मजदूरों की पुकार सरकार तक पहुंची और इंतजाम नहीं हो सका तो पैदल, साइकिल, ट्राइ साइकिल, इ-रिक्शा, जुगाड़ गाड़ी से घर का राह पकड़ लिये. पैदल चलने वालों पर ट्रक चालकों ने मेहरबानी दिखायी तो ट्रक पर लदे सामान के उपर बैठकर बलथरी चेक पोस्ट पहुंचे. चेक पोस्ट पर आते ही बिहार की धरती को नमन किया. मधुबनी के रामनरेश साह, राकेश बीन, अशोक पटेल, दीपक शर्मा अपने परिवार के साथ अहमदाबाद से सात दिनों में आगरा तक पैदल पहुंचे थे. तभी यूपी सरकार की बस वाले देवदूत बनकर आये और उनको गोरखपुर पहुंचा दिया.

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गोराखुर डेढ़ घंटे का इंतजार करने के बाद एक बस बिहार के लिए आयी जो बलथरी चेक पोस्ट पर पहुंचा दिया. इनको इस बात का राहत है कि आज हम अपनी माटी पर खड़े हैं. अहमदाबाद से आया पैदल, बरेली में ट्रक का मिला सहारासमस्तीपुर के मनोहर सोनकर ने कहा कि मैंने संकल्प ले लिया है कि अब वापस नहीं जाउंगा. कंपनी के मालिक ने सड़क पर छोड़ दिया. दो दिनों तक अपने बच्चों को बिस्किट खिलाकर रखा. जब कोई उपाय नहीं बचा तो अपने साथियों से राय कर अहमदाबाद से पैदल चल दिया. बरेली के पास पहुंचा तो एक ट्रक वाले ने हमें सहयोग किया और छतों पर बैठा लिया. सोमवार को जब चेक पोस्ट पर पहुंचा तो ट्रक वालें ने बताया कि यहां से बस मिलेगा.

जब बस नहीं मिला तो फिर ट्रक वाले ने उनको मुजफ्फरपुर तक छोड़ने के लिए ट्रक पर जगह दे दिया. अपनी रोजी-रोटी को लेकर चिंतित यह दर्द रोजाना हजारों की संख्या में बलथरी चेक पोस्ट पहुंचने वाले उन बेरोजगारों के हैं, जो यहां आने के बाद अपनी रोजी-रोटी को लेकर चिंतित हैं. कोई स्नातक है तो कोई परा स्नातक. कुछ हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की पढ़ाई कर रोजगार की तलाश में परदेस पहुंच गये हैं तो कुछ तकनीकी शिक्षा लेने के बाद भी धक्के खा रहे हैं.

सूरत के साड़ी मिल में काम करने वाले सहरसा के राम आशीष यादव व उनके साथी जितेंद्र कुमार सिंह ने कहा कि स्थिति सामान्य होने पर कंपनी के बुलाने पर हम फिर चले जायेंगे. आखिर, यहां हम क्या करेंगे? पर्याप्त खेती योग्य भूमि भी तो नहीं है. घर से जाना अच्छा नहीं लगता लेकिन मजबूरी है. बाढ़ के कटाव से हमारी तबाही हुई. रोटी के लिए तो फिर यहीं दर्द जीवन भर लगा रहेगा. समस्या यह है कि यहां कब तक और कितने दिन खायेंगे. अपना खून-पसीना कहां बहायेंगे. सरकार को इस पर भी सोचना होगा.

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