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पहले शादीशुदा बेटी की तरह मिथिला में आती थी बाढ़, यहीं बस जाने से अब नहीं रहा वो सम्मान

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मिथिला में कहावत है कि बाढ़ शादीशुदा बेटी की तरह होती है. वह अपने नैहर यानी मिथिला आती है. कुछ दिन रहती है. मायके में बेटियों को जैसा मान मिलता है, वही भाव बाढ़ के प्रति भी था. लेकिन, अब उसके यहीं बस जाने से उसका मान घट गया है.

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मिथिला में कहावत है कि बाढ़ शादीशुदा बेटी की तरह होती है. वह अपने नैहर यानी मिथिला आती है. कुछ दिन रहती है. मायके में बेटियों को जैसा मान मिलता है, वही भाव बाढ़ के प्रति भी था. लेकिन, अब उसके यहीं बस जाने से उसका मान घट गया है. बाढ़ के बदलते ट्रेंड की वजह से धान और आम की कई किस्में लुप्त प्राय हो चुकी हैं. कई क्षेत्रों में बाढ़ का पानी पांच से छह महीने तक ठहर रहा है. पढिए दरभंगा से लौट कर राजदेव पांडेय की खास रपट.

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हिरनी गांव के पास करेह नदी की मंद काली धार पर एक डेंगी (एक तरह की मछली पकड़ने वाली नाव) धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी. डेंगी में नाविक की करीब तीन-चार साल की बिटिया रुआंसी और उदास, लेकिन तनी-सी बैठी हुई थी. उसकी जिद थी कि उसे अभी मां के पास जाना है. नदी में अटी पड़ी जलकुंभी के बीच बांस के सहारे उसका पिता किसी तरह अपनी डेंगी को आगे बढ़ा रहा था. सिर पर बादल मंडरा रहे थे.

हल्का-सा अंधेरा छा गया था. नदी का काला पानी, बादलों की छांव से और स्याह लग रहा था. बेटी की निगाह एकदम सीधी थी. जबकि बांस के सहारे नाव को धकेल रहे उसके पिता की आंखें कभी आसमान, तो कभी अपने बांस में लगने वाले पांक पर टिकी हुई थीं.

उसकी इच्छा थी कि वह किसी तरह सांझ ढलने से पहले अपनी ससुराल और बेटी को उसके मामा के घर छोड़ दे, जहां पहले से उसकी मां बाढ़ की वजह से फंसी थी. दरअसल, उसे छह-आठ किमी दूर जाना था. उसी गांव के निवासी बुजुर्ग अफजल ने बताया कि जलकुंभी से भरी करेह नदी में एक किमी जाने में 30 से 40 मिनट से कम नहीं लगता है. नदी इससे पहले काली कभी नहीं दिखी थी.

दरभंगा जिला अभी बाढ़ झेल रहा है. दो साल पहले बारिश नहीं होने से यह इलाका भीषण जल संकट झेल रहा था. शहर और गांव सभी जगह टैंकर से पानी भेजा गया था. सुखाड़ और बाढ़ का यह ट्रेंड जलवायु परिवर्तन से जुड़ा है. बनौली निवासी बिपिन बिहारी बताते हैं कि पहले बाढ़ साल में दो बार कुल मिला कर 10 से 12 दिनों के लिए आती थी. जितनी तेजी से आती, उतनी तेजी से वापस हो जाती थी. पिछले दो साल से यह बाढ़ महीनों बनी रहती है. लिहाजा लोग इसके वापस जाने की मिन्नतें कर रहे हैं.

बाढ़ रुकने लगी, तो धान की स्थानीय किस्में हो गयीं बर्बाद

दरभंगा सिंगवारा पंचायत के किसान महेंद्र भगत बताते हैं कि हमारे यहां बाढ़ पहले भी विभीषिका थी, लेकिन विभीषिका वाली बाढ़ वर्ष 2000 से पहले तक चार- छह साल में एक बार आती थी, जो अधिकतम 30 दिनों के लिए होती थी़ अब यह ट्रेंड कमोबेश सालाना हो गया है़ पिछले एक दशक में बाढ़ के रुके रहने का ट्रेंड 30 से 50 दिन और अब दो साल से पूरी बरसात भर रहने का ट्रेंड बन गया है़

यूं कहें कि पहले बाढ़ जून-जुलाई और अंत में सितंबर के अंत या अक्तूबर के प्रथम सप्ताह तक आती थी़ अब दोनों बाढ़ की समयावधि मिल गयी है़ यह बड़ा संकट है़ वह कहते हैं कि पिछले 10-15 सालों में हमने धान की कई बेहतर स्थानीय किस्में खो दी हैं. वह बताते हैं कि धान की स्थानीय किस्में मसलन सिलहट, दुधी, देसरिया, कुसुम साय, बिरौगर आदि पूरी तरह खत्म हो गयी हैं.

पहले का धान पानी के संग-संग बढ़ता था

माधौपुर के मल्लाह रघुनाथ बताते हैं कि पहले जो बाढ़ आती थी, उसमें धान को नाव पर बैठ कर काटा जाता था. जितना पानी आता था, धान की स्थानीय किस्में उतनी ही ऊपर आती जाती थीं. वह धान घरों में धन मंडल कर देता था. अब नयी किस्मों का धान पानी में डूब जाता था. यही वजह है कि हर साल धान की फसल बर्बाद हो रही है. पहले फसल वर्तमान की तुलना में 10 फीसदी भी बर्बाद नहीं होती थी़

ऐसे कई किसानों का कहना था कि बाढ़ खेती के लिहाज से कभी इतनी खतरनाक नहीं थी. इस तरह की बाढ़ ने दरभंगा की धान की किस्मों को ही नहीं, आम की कुछ बेहतर किस्मों, मसलन किशन भोग, दरभंगिया मालदह और कलकतिया को नष्ट कर दिया. किशन भोग आम के विलुप्त होने की कगार पर पहुंच जाना मामूली बात नहीं है़

फिलहाल बाढ़ के इस ट्रेंड ने मिथिला में कई तरह के पर्यावरणीय और मानवीय संकट खड़े कर दिये हैं. इस बार की बाढ़ की वजह से कुछ खास कीट ऐसे देखे गये, जिन्होंने कोमल और चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों और पौधों को छलनी कर दिया. स्थानीय लोगों का कहना था कि ऐसा पहली बार देखा गया है.

नदी-तालब में जलकुंभी खतरे की आहट

दरभंगा सहित मिथिला की उर्वर भूमि पर जलकुंभी ने बेतहाशा पैठ बना ली है. मुजफ्फरपुर से दरभंगा और वहां से सौराठ और उसके ठीक विपरीत कुशेश्वरस्थान तक सड़क किनारे या तालाब में नजर डालेंगे, तो सिर्फ जुलकुंभी ही देखने को मिलेगी. दरभंगा के डुमरी गांव के रामप्रवेश यादव ने बताया कि इस बार पानी काला है.

नदी में जलकुंभी है. इसे साफ करने में हमें एक एकड़ में 10 हजार रुपये तक खर्च करने पड़ रहे हैं, आखिर इसे निकालकर कहां फेकें? मल्लाह जाति के किसानों का कहना है कि जलकुंभी की वजह से मछली पालन पर संकट है. वैज्ञानिकों के मुताबिक जलकुंभी की वजह से सूर्य की रोशनी पानी या उसकी सतह तक नहीं पहुंच पा रहा है. यह मछलियों के लिए ठीक नहीं है. ललित नारायण मिश्रा मिथिला विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रो विद्यानाथ झा ने बताया कि जलकुंभी बड़ी समस्या है, लेकिन निदान नहीं है. हमें इसके वैकल्पिक उपयोगों को अपनाना पड़ेगा़

क्लाइमेट चेंज का सीधा असर

प्रो विद्यानाथ झा बताते हैं कि यहां के तालाबों में भूजल रीचार्जिंग क्षमता ही नहीं बची. उनमें गाद भरा है़ कुल मिला कर क्लाइमेट चेंज अब साफ तौर पर देखा जा रहा है. फिलहाल कुछ प्राकृतिक आपदा तो कुछ मानवीय भूलों से उपजे संकट से मिथिलांचल परेशान है. हालांकि, इसके बाद भी मक्का और दूसरी फसलों के प्रयोग यहां सफल हुए हैं.

बाढ़ स्थायी हुई, तो बढ़ गयी नावों की मांग

बेनीपुर से कुशेश्वरस्थान की ओर बढ़ेंगे तो जयंतीपुरा, डुमरी, बिरौल आदि गांवों की तरफ नाव बनाने के करीब एक दर्जन से अधिक कारखाने हैं. वहां बताया गया कि बाढ़ के स्थायी संकट की वजह से नावों की मांग बढ़ गयी है. जीरोना गांव के नाविक सरोज सहनी ने बताया कि अब बाढ़ की प्रकृति स्थायी जैसी हो गयी है. इसलिए अब नावों की मांग बढ़ी है.

इसकी पूर्ति करने में भी दिक्कत आ रही है. मुगराइन, नरपा, जीरोना, भागवारा,भुईदर आदि गांवों में लोग महीनों से नाव से यात्रा करते हैं. कुशेश्वरस्थान से समस्तीपुर के गांवों के लिए नावों पर 20 से 25 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ रही है. वह भी जलकुंभियों के बीच से.

Posted by Ashish Jha

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