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देश की आजादी व उसके पहले देश विभाजन के 77 साल गुजर गये. इन वर्षों में देखते-देखते एक पीढ़ी वृद्ध, एक पीढ़ी अधेड़, एक पीढ़ी जवान हो गयी. चौथी पीढ़ी बचपन के रूप में चहलकदमी कर रही है. बावजूद इसके बस्ती के लोगों के सीने में दफन दर्द कम नहीं हो रहा.

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संजीव झा, पूर्णिया
देश की आजादी व उसके पहले देश विभाजन के 77 साल गुजर गये. इन वर्षों में देखते-देखते एक पीढ़ी वृद्ध, एक पीढ़ी अधेड़, एक पीढ़ी जवान हो गयी. चौथी पीढ़ी बचपन के रूप में चहलकदमी कर रही है. बावजूद इसके बस्ती के लोगों के सीने में दफन दर्द कम नहीं हो रहा. यह दर्द उस वक्त और ज्यादा पीड़ादायी हो जाता है, जब बस्ती के लोग घनी अंधेरी रात में प्रसव वेदना में किसी गर्भवती महिला की कराह सुनते हैं. बरसात आने से पहले अपने ग्राम देवता से मन्नत मांगते हैं कि इस मौसम में कोई बीमार न पड़े. पढ़ाई-लिखाई की गुंजाईश ही नहीं है, तो इसकी उन्हें कोई चिंता भी नहीं रहती. बस, किसी तरह जिंदा रह लेने का जतन करते रहते हैं. खेतों में पसीने बहाना, उससे हुई थोड़ी-बहुत कमाई से सुबह-शाम पेट भरने का जुगाड़ कर लेना ही जीवन का मूल उद्देश्य है. हम बात कर रहे हैं पूर्णिया जिले के पाकिस्तान टोला की. यह बस्ती श्रीनगर प्रखंड मुख्यालय से तकरीबन 10-12 किलोमीटर दूर सिंघिया पंचायत में अवस्थित है. आदिवासी बाहुल्य इस पाकिस्तान टोला के आसपास मुस्लिम आबादी भी है. ऐसे में यहां दीपावली के साथ-साथ ईद की भी धूम रहती है. आदिवासी समाज करमा, सरहुल, टुसु के साथ-साथ अन्य हिंदू त्योहार धूमधाम के साथ मनाते हैं. खास तौर से श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर बड़ा आयोजन होता है.

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पाकिस्तान टोला
पाकिस्तान टोला

समस्याओं का दंश

15 अगस्त, 1947 को देश ने आजादी की खुशी के साथ बंटवारे का दर्द भी झेला था. उसी समय पाकिस्तान के क्षेत्र में बसे लोग बड़ी संख्या में भारत आ गये थे और जिन्हें जहां आश्रय मिला, बस गये. ऐसे ही कुछ लोग सिंघिया पंचायत के बगल से बहनेवाली कारी कोसी नदी के तट पर आकर बस गये. उस समय इस इलाके के पुराने बाशिंदे उनलोगों की बस्ती को पाकिस्तान टोला के नाम से पुकारने लगे और बस्ती में बसे लोगों को पाकिस्तानी. इसका उन्हें कभी बुरा भी नहीं लगा. इस कारण उनका पाकिस्तानी होने या उस बस्ती को पाकिस्तान कहे जाने का कभी किसी तरह का विवाद भी नहीं हुआ. विवाद आज भी नहीं है. लेकिन समस्या मूलभूत सुविधा और अतिनिम्न जीवन स्तर को लेकर है. इस बाबत पाकिस्तान टोला के लोग कहते हैं कि अब यहां कोई पाकिस्तानी तो रहे नहीं. अब उनलोगों का ही परिवार और समाज के लोग रहते हैं, जो पूर्ण रूप से भारत के हिस्से में रहे और आज भी रह रहे हैं. लेकिन समस्याओं से वे आज भी जूझ रहे हैं.

पाकिस्तान टोला के बगल में स्थित कारी कोसी नदी पर बना पुल
पाकिस्तान टोला

बस्ती : एक नजर में

  • नल-जल योजना : नहीं है
  • आंगनबाड़ी केंद्र : नहीं है
  • पक्की सड़क : नहीं है
  • कच्ची सड़क : उपलब्ध है
  • कैसी है सड़क : सिंगल लेन
  • बिजली : उपलब्ध है
  • नाला : नहीं है
  • स्कूल : तीन किमी दूर
  • अस्पताल : 10 किमी दूर
  • हाट-बाजार : तीन किमी दूर
  • जॉब कार्ड : सभी के पास नहीं

हम चाहते हैं, बस्ती का नाम बिरसा नगर हो : जद्दू

पाकिस्तान टोला निवासी जद्दू टुड्डू बताते हैं कि आजादी के समय पाकिस्तान से कुछ रिफ्यूजी आकर यहां बसे थे. इसी कारण इस बस्ती को लोग पाकिस्तान टोला कहते हैं. यह बात उन्होंने अपने दादा से सुनी थी. बाद के दिनों में वह सारे रिफ्यूजी तो यहां से चले गये, लेकिन बस्ती का नाम नहीं बदला. फिर यहां आकर उनके दादा बस गये. तब से उनका समाज यहां बसा हुआ है. यह पूरी बस्ती आदिवासियों की है. अब तो हमें लगने लगा है कि बस्ती का यह नाम होना ही एकमात्र वजह है यहां मूलभूत सुविधा बहाल नहीं होने की. लगभग 25 घरों की यह बस्ती है. सभी मजदूर वर्ग के हैं, लेकिन सभी के पास जॉब कार्ड नहीं है. बीमारी या प्रसव की स्थिति में किसी को अस्पताल की जरूरत हो, तो टेंपो मंगा कर या खटिया पर लेकर श्रीनगर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र लेकर जाना पड़ता है. बस्ती का नाम जमीन, आधार कार्ड, राशन कार्ड और अन्य कागजात पर पाकिस्तान टोला ही है. अब वेलोग चाहते हैं कि इसका नाम बिरसा नगर हो जाये. इसकी मांग उनलोगों ने हर स्तर पर की. नाम बदलवाने में बाहर के कुछ लोगों ने भी मदद की. लेकिन हुआ कुछ नहीं. आज भी वे जहां थे, वहीं हैं. विकास के नाम पर यहां सिर्फ कुछ वर्ष पहले आयी बिजली और पुल निर्माण को छोड़ कुछ नहीं है.

कालेशर ही मैट्रिक पास, बाकी सबके हाथ में हल-कुदाल : गणेश

पाकिस्तान टोला निवासी गणेश बेसरा कहते हैं-‘हमलोग पढ़े-लिखे नहीं हैं. पढ़ते कैसे, यहां तो स्कूल भी नहीं है. गांव में ऐसा कोई था भी नहीं, जो हमें पढ़ाते. गांव के ही कालेशर बेसरा हैं, जिनके अंदर पढ़ने-लिखने का लगन था और वह किसी तरह मैट्रिक पास कर पाया. बाकी सभी लोग हल-बैल और कुदाल के भरोसे जीवन काट रहे हैं. बरसात के दिनों में हमलोगों को ज्यादा तकलीफ हो जाती है. सड़क और खेत एक समान हो जाती हैं. लेकिन किसी प्रकार की तकलीफ होने पर बाहर निकलना ही पड़ता है.’

गणेश बेसरा
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अपने ही नाम ने इस बस्ती को उपेक्षित कर दिया : राजू

सिंघिया पंचायत के सिंघिया निवासी समाजसेवी राजेश कुमार मंडल उर्फ राजू मंडल बताते हैं कि पाकिस्तान टोला में आजादी के 77 साल बाद भी विकास की रोशनी नहीं पहुंच पायी है. इस टोले की 100 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जाति एवं जनजाति की है. वहां जाने के लिए न अच्छी सड़क है न बच्चों के लिए स्कूल. टोले से स्कूल व प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की दूरी ढाई किलोमीटर से अधिक है. पंचायत मुख्यालय में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र सिर्फ नाम का है, जहां न डाक्टर हैं न दवा. सिर्फ एक नर्स के भरोसे चलता है. रोजमर्रा के समान के लिए भी दो किलोमीटर सिंघिया हाट जाना पड़ता है. बरसात में गांव से निकलना मुश्किल हो जाता है. बरसात के दिनों में लोग डोका, घोंघा, सत्तू खाकर महीनों बिताते हैं. प्रखंड के कोई अधिकारी वहां नहीं जाते हैं. ऐसा लगता है पाकिस्तान टोला आज भी अपने नाम का दंश झेल रहा है.

राजू मंडल
इस पाकिस्तान में दीपावली और ईद की धूम, 'एलओसी' पर महकती है सौहार्द की खुशबू 6

इस ‘एलओसी’ पर महकती है सौहार्द की खुशबू

एक वो श्रीनगर और पाकिस्तान के बीच लाइन ऑफ कंट्रोल (देश का बॉर्डर) है, जहां से बम-बारूद और मौत की ही खबर सुनने को मिलती है. प्रेरणा तो इस श्रीनगर और पाकिस्तान के बीच बसा रणगाह मैदान से लेने की जरूरत है, जहां सौहार्द की खुशबू भी महकती है. इसका नाम भले ही रणगाह यानी ‘युद्ध का स्थल’ है, पर यहां आज तक जो भी गतिविधि हुई वह मुहब्बत का पैगाम देने का काम ही करती रही. गतिविधियां भी इतनी रोचक, जिन्हें हर कोई जानना चाहे. तिकोने रणगाह मैदान में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर हर साल एक दिन का भव्य ग्रामीण मेला का आयोजन होता है. इस अवसर पर स्थानीय कलाकार यहां नाटक का रात भर आयोजन करते हैं. अगले दिन विसर्जन यात्रा निकलती है. इसी तरह मोहर्रम का पहलाम यहां पर होता है, जहां श्रीनगर, फरियानी, बलुवाही, उफरैल आदि गांव के लोग ताजिया लेकर पहुंचते हैं. इस दिन भी मेला का आयोजन होता है. खास बात यह कि प्राय: सारे ताजिया का चुमाउन (दूब-धान आदि से महिलाओं द्वारा) हिंदू समाज के घर-घर के दरवाजों पर होता है, इसके बाद ही ताजिया रणगाह की ओर प्रस्थान करता है. उफरैल के ग्रामीण देवानंद सिंह बताते हैं कि इस मैदान पर कब से जन्माष्टमी और पहलाम का आयोजन हो रहा है, यह जानकारी नहीं है. लेकिन कहीं न कहीं इस मैदान की ही देन है, जो हमारे समाज में सभी एक साथ मिल कर हर आयोजन को करते हैं. उनलोगों को हमारे इस मैदान से सीख लेनी चाहिए, जो वैमनस्यता की सोच रखते हैं.

मैदान के एक तरफ हिंदू, दूसरी ओर मुसलमानों की कब्रगाह

रणगाह मैदान के एक कोने पर हिंदुओं की कब्रगाह है. यहां हिंदुओं की एक जाति विशेष के शव को दफनाया जाता है. हालांकि हाल में यहां दाह-संस्कार भी होने लगा है. वहीं मैदान के पश्चिम में थोड़ी ही दूरी पर मुस्लिम धर्मावलंबियों की कब्रगाह है. मैदान के एक कोने पर भगवान श्रीकृष्ण का मंदिर है, तो दूसरी तरफ ईदगाह है. ईदगाह में बच्चे पढ़ते हैं और विविध आयोजन होते रहते हैं.

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