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राजनीति का एजेंडा तय कर रहा बिहार, जेपी आंदोलन के बाद ‘जाति गणना’ बना राष्ट्रीय मुद्दा

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caste census survey जाति गणना ने नब्बे के दशक में मंडल कमंडल की राजनीति ने जातियों को नया राजनीतिक ठिकाना मुहैया करा दिया है. यही कारण है कि देश की राजनीति का बिहार एजेंडा अब तय कर रहा है.

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अजय कुमार

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इसे इत्तेफाक कहिए या समय का चक्र कि बिहार फिर देश की राजनीतिक का एजेंडा तय कर रहा है. बिहार की धरती से फूटे बिहार आंदोलन ने देश को अपनी जद में ले लिया था. महंगाई, बेरोजगारी और छात्रों के मुद्दों से शुरू हुआ आंदोलन आपातकाल के काले अध्याय तक पहुंच गया था. उस आंदोलन को जयप्रकाश नारायण ने लीड किया था. इसलिए वह बिहार आंदोलन या जेपी आंदोलन के नाम से इतिहास में दर्ज हो गया.

राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जाति गणना के मुद्दे को ऐसे स्थापित कर दिया कि अब उससे किसी भी दल को पीछा छुड़ाना आसान नहीं होगा. कई राज्यों से उठनेवाली मांग और आइएनडीए के एजेंडे में इसे शामिल करने का मतलब तो यही है. एक ही राजनीतिक विरासत से निकले नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के इस कदम से शिथिल पड़े सामाजिक न्याय के दायरे में आनेवाली जातियों के बीच हलचल सी पैदा हो गयी है. यह हलचल इस दायरे से बाहर की जातियों के बीच भी है. कर्पूरी ठाकुर और उसके बाद मंडल कमीशन के आधार पर आरक्षण लागू हुआ तो सामाजिक स्तर पर भारी उद्वेलन पैदा हो गया था. आरक्षण संबंधी मौजूदा सीमाओं को जाति गणना की रिपोर्ट विस्तार की ओर ले जाती है. जाति गणना कराने और उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक करने के मामले में बिहार पहला राज्य बन गया है. 1974 के बिहार आंदोलन के बाद जाति गणना के मुद्दे ने फिर राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत एजेंडा सेट कर दिया है.

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कांग्रेस की कार्यसमिति ने जाति गणना के प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए आरक्षण की सीमा बढ़ाये जाने की वकालत की है. कांग्रेस की राजनीति के लिहाज से इसे बड़ा बदलाव माना जायेगा. आजादी के पहले और उसके बाद के सालों तक कांग्रेस इन मुद्दों को नजरअंदाज करती रही या पार्टीगत सामाजिक आधार के दबाव के कारण वह राजनीतिक हिस्सेदारी के सवाल को देख-समझ नहीं पा रही थी. इसी बेरुखी से आहत होकर पिछड़ों ने बिहार के शाहाबाद इलाके में त्रिवेणी संघ बना डाला था. नब्बे के दशक में मंडल कमंडल की राजनीति ने जातियों को नया राजनीतिक ठिकाना मुहैया करा दिया.

पिछड़ों के हक-अधिकार के मुद्दों को आमतौर पर समाजवादी और वाम पार्टियां ही उठाती रही हैं. पर पिछड़े, अति पिछड़े, दलित और पसमांदा मुसलमानों की वोट की ताकत ने अमूमन तमाम पार्टियों को उनके समर्थन में ला खड़ा किया है. भाजपा ने भी अपने भीतर व्यापक बदलाव करते हुए पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों को अपने साथ जोड़ा है. मगर जहां तक जाति गणना की रिपोर्ट का प्रश्न है, तो इसके तकनीकी पहलुओं पर कई राजनीतिक दलों ने एतराज जताया है. यह एतराज उस पेच की गुत्थी है, जिसका सुलझना अभी बाकी है.

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