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पहली बार कोईलवर में मनी थी भिखारी ठाकुर की पुण्यतिथि

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तब लोहा सिंह नाटक के सूत्रधार रामेश्वर सिंह कश्यप पहुंचे थे कार्यक्रम में, बीबीसी से हुआ था प्रसारण

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दीपक गुप्ता, कोईलवर.

आज भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जानेवाले लोक कलाकार भिखारी ठाकुर की पुण्यतिथि है. उन्हें इस दुनिया से रुखसत हुए 53 साल हो गये. 53 सालों के बाद भी उनकी रचनाएं, नाटक व गीत आज भी प्रासंगिक हैं. देश दुनिया में उनकी विरासत को संभालने का क्रेडिट लेनेवाले उनके जन्मदिवस और पुण्यतिथि पर उनकी याद में खूब कार्यक्रम और सभाएं करते हैं. हालांकि मलिक जी के नाम से मशहूर भिखारी ठाकुर की पहली पुण्यतिथि पर हुआ कार्यक्रम प्रासंगिक हो जाता है. मल्लिक जी की पहली पुण्यतिथि देश दुनिया में सबसे पहले जिले के कोईलवर नगर के आजाद कला मंदिर के रंगमंच पर आयोजित की गयी थी. पहली पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम में बतौर अतिथि तब के मशहूर रेडियो कलाकार और लोहा सिंह नाटक के सूत्रधार रामेश्वर सिंह कश्यप पहुंचे थे. इस कार्यक्रम का जीवंत प्रसारण रेडियो पर बीबीसी हिंदी से भी किया गया था. पुण्यतिथि समारोह का आयोजन कोईलवर के साहित्यकार रचनाकार कवि स्व0 अयोध्या प्रसाद ””पागल शाहाबादी”” ने अपने साथी रामप्रसाद ””बिस्मिल”” के साथ मिलकर कराया था. कोईलवर के बड़े बुजुर्ग और उस कार्यक्रम को अपनी आंखों से देखनेवाले लोग बताते हैं कि मल्लिक जी की पहली पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम में दूर-दूर से लोग आये थे. कार्यक्रम में लोहा सिंह नाटक की एकांकी प्रस्तुति भी रामेश्वर सिंह कश्यप ने की थी. मंच का संचालन तब बिहार के पहले रेडियो कमेंटेटर बद्री प्रसाद यादव ने किया था. आयोजन समिति में आजाद कला मंदिर के मुनि प्रसाद सिंह, रामधार राम, रामेश्वर सिंह अबोध, रामप्रवेश राम, राजबल्लम सिंह, बिंदेश्वरी सिंह और तालिब हाशिमी जैसे लोग थे, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं. तब कार्यक्रम के आयोजक मंडल में रहे संस्था के संरक्षक 85 वर्षीय शिवशंकर प्रसाद बताते हैं कि भिखारी ठाकुर की पहली पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम में मंच पर रामेश्वर सिंह कश्यप और बद्री प्रसाद यादव समेत उस जमाने की कई नामचीन हस्तियां मौजूद थीं. तब दूसरी कक्षा में पढ़ रहे रंगकर्मी नरेंद्र स्वामी कहते हैं कि बचपन की धुंधली, लेकिन मधुर यादें अब भी जीवंत हैं. भिखारी ठाकुर की पहली पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम की भीड़ में मैं भी था. मंच पर उपस्थित अतिथियों ने उन्हें और उनकी रचनाओं को याद कर उन्हें प्रासंगिक बताया था. वहीं, भिखारी ठाकुर के रिश्तेदार और भिखारी ठाकुर से जुड़े संस्मरणों को कई किताबों में लिपिबद्ध करनेवाले रामदास राही कहते हैं कि एक समय पूरा भोजपुरी भाषी क्षेत्र भिखारी ठाकुर की नाट्य क्रांति से अभिभूत था. वे कहते हैं कि कोईलवर को भिखारी ठाकुर अपने गांव से अलग नहीं मानते थे. भिखारी की नाट्य यात्रा में कोईलवर का भी योगदान है. भिखारी ठाकुर का रहा है कोईलवर से नाता : भिखारी ठाकुर के जन्म स्थान और जन्म तिथि को लेकर विवाद उनके जीवन में ही शुरू हो गया था. जन्म स्थान कुतुबपुर है यह तो भिखारी ठाकुर की रचना से ही स्पष्ट है मगर गंगा, सोन और सरयू के संगम पर बसा यह दियारा क्षेत्र नदियों को बदलती धार और कटाव के चलते विवादित रहा है. पहिल बास रहल भोजपुर में, मौजे अरथू अवारी : भिखारी ठाकुर के पूर्वज तत्कालीन शाहाबाद के डुमरांव के अरथू अवारी से आकर बड़हरा के बबुरा गांव जो उस वक्त सात टोलों में विभक्त था उसकी एक पट्टी शंकरपुर महाल में आकर बस गये. 16वीं शताब्दी में कुतुबुद्दीन जमींदार के द्वारा कुतुबपुर बसाया गया. शंकरपुर के गंगा कटाव में विलुप्त हो जाने के बाद बबुरा के दक्षिण बगीचे में आ गये. गंगा के कटाव और लगातार बदलती धार से बस्ती और बाशिंदों का लगातार विस्थापन होता रहा. कभी गंगा बस्ती के दक्षिण बहती थी जिसे भिखारी ठाकुर ने लिखा है.””दक्षिणी बहे गंगा की धार, नाई वंश में जन्म हमारा”” : आज गंगा कुतुबपुर के उत्तर में है. पहले छपरा के डोरीगंज घाट से नाव से गंगा पारकर फिर थोड़ी दूर पैदल चलकर उनके गांव जाना पड़ता था या आरा से पटना के बीच स्थित कोईलवर उतरकर बबुरा होते हुए जाने का मार्ग था. बीच में गंगा का एक भागड़ भी है जिसे पार करना दुष्कर था. मगर आज नया सड़क पुल बन जाने से आवागमन सरल हो गया है. मरने से 20 दिन पहले आये थे कोईलवर : गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि उस जमाने में भिखारी ठाकुर के कला की तूती बोलती थी. बड़े और धनाढ्य लोग अपने शादी विवाह से लेकर अन्य प्रयोजनों में भी उन्हें अपने नाटकों की प्रस्तुति के लिए ससम्मान बुलाते थे. अपने कला जीवन के शुरुआत से ही वे कोईलवर आते रहे हैं. कोईलवर वार्ड 03 के संजीत सिंह बताते हैं कि 20 जून, 1971 को उनके बाबा स्व बिंदेश्वरी सिंह की बहन प्रभा सिंह की शादी में जिले के छोटका लौहर से बरात आयी थी, तब बरात में मरजाद का चलन था. भिखारी ठाकुर उस बरात में असवारी पर चढ़ कर आये थे और अपनी मंडली के साथ दो दिनों तक 800 बरातियों के बीच अपने नाटकों की प्रस्तुति दी थी.

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