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ज्ञान और कर्म के संतुलन का काल है पुरुषोत्तम मास

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मलमास को पुरुषोत्तम इसीलिए कहा गया न कि जीवोत्तम. भारतीय कालणना में सूर्य और चंद्र की महती भूमिका है, जिसे सौर मास और चांद्रमास कहा गया है.

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सलिल पांडेय

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अध्यात्म लेखक, मिर्जापुर

भारतीय ऋषियों ने समय को संतुलित करने के लिए हर तीसरे वर्ष एक विशेष महीने का विधान किया है. इस महीने को मलमास, अधिकमास या पुरुषोत्तम मास कहा गया है. इसका सिर्फ आध्यात्मिक ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक महत्व भी है. अध्यात्म की दृष्टि से इसके तीनों नामों पर गौर किया जाये तो यह ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ मंत्र की ओर संकेत करता है और श्रीमद्भगवतगीता में भगवान कृष्ण के तामस, राजस और सात्विक गुणों को परिभाषित करता है. पुरुषोत्तम मास के 30 दिन तप, जप, साधना से भगवान की कृपा का आशय साधक में किसी उपलब्धि के लिए निरंतर प्रयास के रूप में लिया जाना चाहिए.

तपोभूमि भारत के ऋषि-मुनियों ने देव-योनि से ज्यादा मनुष्य-योनि को श्रेष्ठ कहा है. ‘पंच रचित यह अधम शरीरा’ को ‘बड़े भाग मानुष तन पावा’ में बदलने के लिए मनुष्य को खुद उपक्रम करना पड़ता है. जन्म के बाद ज्ञानार्जन, धनार्जन एवं पुण्यार्जन के जरिये कोई भी पुरुष पुरुषोत्तम बन सकता है. जिस प्रकार मलमास भगवान की अनुकंपा से पुरुषोत्तममास में प्रतिष्ठापित होता है, उसी प्रकार समय को साध कर सिर्फ मनुष्य ही श्रेष्ठता अर्जित करता है.

मलमास को पुरुषोत्तम इसीलिए कहा गया न कि जीवोत्तम. भारतीय कालणना में सूर्य और चंद्र की महती भूमिका है, जिसे सौर मास और चांद्रमास कहा गया है. सौरमास के अनुसार वर्ष में 12 माह होते हैं. सूर्य की गति 60 दंड और चंद्रमा की गति 58 दंड की होती है. एक तिथि में चंद्रमा के 2 दंड कम होने से 12 महीने में 12 दिन का अंतर आ जाता है, जिसका तालमेल मिलाने के लिए तीन वर्ष में एक मास अधिक हो जाता है. चंद्रगणना के अनुसार, एक वर्ष में 13 महीने हर तीसरे साल होते हैं.

इस अधिक मास को प्रथमत: मलमास इसलिए कहा गया, क्योंकि जिस महीने में संक्रांति नहीं होती, उसे हेय एवं निकृष्ट महीना माना जाता है, क्योंकि इस महीने का कोई ईष्टदेव नहीं होता जिसके चलते मनुष्य इसमें पूजा पाठ, तप-साधना, दान आदि नहीं करते. इस उपेक्षा से मलमास अनाथ एवं दयनीय स्थिति में हो गया था और अपनी पीड़ा लेकर वह भगवान विष्णु की शरण में गया. उसकी हालत देख विष्णु जी खुद उसको लेकर पुरुषोत्तम स्वरूप योगेश्वर श्रीकृष्ण के पास ले गये, जिस पर दया करके श्रीकृष्ण ने उसे अपना पुरुषोत्तम स्वरूप प्रदान किया तथा यहां तक वरदान दिया कि जो इस मास को साध लेगा, वह जीवन में असंभव को संभव कर सकता है.

वृहन्नारदीय पुराण के 31 अध्यायों में सूत जी, नारदजी, भगवान विष्णु आदि के उद्बोधनों से स्पष्ट प्रतीत होता है कि समय को साध लेने से ही उच्च उपलब्धि हासिल हो सकती है. इसे आधुनिक जीवनशैली में समय-प्रबंधन के रूप में लिया जा सकता है. सामान्य जीवन में समय की महत्ता पर अनेकानेक मुहावरे एवं लोकोक्तियां प्रचलित हैं.

प्रायः जीवन के कीमती समय को गंवाने के बाद जब हताशा हाथ लगती है तो उसके लिए ‘समय चूंकि पुनि का पछिताने’ का प्रयोग किया जाता है. मलमास में एक माह की अधिकता को नकारात्मकता से सकारात्मकता की यात्रा के रूप में भी लिया जा सकता है. जीवन में उपेक्षा, दीनता की स्थिति आने पर व्यक्ति को अपने शरीर में विद्यमान ऊर्जा को सघनीभूत करके पुरुषोत्तम जैसी विशिष्टता हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए. यह समय ज्ञान एवं कर्म के बीच संतुलन बनाने का संदेश देता है.

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के मल-तत्व विषाद को अपने उपदेशों से परिष्कृत किया है. गीता में ही भगवान श्रीकृष्ण के लिए विभिन्न अध्यायों में पुरुषोत्तम का प्रयोग इसीलिए किया गया है, क्योंकि श्रीकृष्ण ज्ञान एवं कर्म के समन्वयक हैं. जीवन में सिर्फ ज्ञान ही हो या सिर्फ कर्म हो, तो समुचित उपब्धियां हासिल नहीं हो सकतीं. इसे शास्त्र और शस्त्र के बीच समन्वय भी कहा जा सकता है.

पुरुषोत्तम महात्म्य के विभिन्न अध्यायों में दृढ़धन्वा नाम एक राजा के पूर्व जन्म की रोचक कथाओं में उल्लेखित है कि किस प्रकार उसने सात जन्मों तक पुत्र प्राप्त न होने के अभिशाप को पुरुषोत्तम भगवान की अनजाने में भक्ति करके हासिल करता है. यह कथा संदेश देती है कि लक्ष्य उच्च हो और उसके लिए साधना-तपस्या की अभियांत्रिकी प्रयास हो, तो वह एक न एक दिन जरूर फलवती होती है.

भौतिक विज्ञान की भी दृष्टि से देखा जा सकता है कि लंबे प्रयास से कठिन से कठिन अनुसंधान को विशेषज्ञ मूर्त रूप देता है. वृहन्नारदीय पुराण की कथाओं के निहितार्थ को ग्रहण करना चाहिए कि परिश्रम और प्रयास निरंतरता एवं दीर्घकालिकता की अपेक्षा करता है. पुरुषोत्तम मास के 30 दिन तप, जप, साधना से भगवान की कृपा का आशय साधक में किसी उपलब्धि के लिए निरंतर प्रयास के रूप में लिया जाना चाहिए.

वैज्ञानिक युग में तेजी से बढ़ती आबादी के चलते चारों तरफ मलमास की तरह मल (कचड़ों) से सिर्फ धरती ही नहीं, जल, वायु, आकाश दूषित होकर आसुरी भाव में होता जा रहा है. ये कचड़े सिर्फ मेडिकल, इलेक्ट्रॉनिक, कारखानों के कचड़े तक सीमित नहीं, बल्कि अन्य विविध क्षेत्रों में एकत्र हो रहे मल हैं,

जिनका प्रबंधन पुरुषोत्तम स्वरूप ज्ञानी-विज्ञानी ही कर सकता है, वरना यह कचड़ा केवल मनुष्य के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी धरती के लिए महिषासुर, चंड-मुंड, कालिया नाग बन जायेगा. द्वापर में अभिमन्यु पुत्र परीक्षित की नजर जब मलमास रूपी कलियुग पर पड़ी, जो परीक्षित के सात्विक राज्य में घुसना चाहता था तो परीक्षित ने उसे नियंत्रित करने का उपक्रम किया.

पुरुषोत्तम मास में भगवान कृष्ण की पूजा

पुरुषोत्तम मास में भगवान कृष्ण की पूजा के विशेष प्रावधान के पीछे प्रकृति रूपी राधा और पुरुष रूपी चैतन्य भगवान कृष्ण बीच तालमेल बनाने का संदेश भी परिलक्षित होता है. इस अवधि में मीठे मालपुए के दान का भी उद्देश्य है कि जब मनुष्य का आचरण मृदुल होगा तो उसका पूरा परिवेश मिठासयुक्त होकर पुरुषोत्तम स्वरुप का स्वत: हो जायेगा.

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