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पितरों से सुख-समृद्धि का आशीष लेने का सुअवसर है पितृपक्ष

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पितरों के निमित्त पिंडदान करने की परंपरा वैदिक काल से चली आ रही है. सनातन मान्यता है कि पितृपक्ष में श्रद्धापूर्वक अपने पितरों का तर्पण करने से वे प्रसन्न होते हैं तथा अपनी संतानों को आशीर्वाद देकर उसी ब्रह्मांडीय ऊर्जा के साथ अपने लोक को वापस चले जाते हैं

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पितरों के निमित्त पिंडदान करने की परंपरा वैदिक काल से चली आ रही है. सनातन मान्यता है कि पितृपक्ष में श्रद्धापूर्वक अपने पितरों का तर्पण करने से वे प्रसन्न होते हैं तथा अपनी संतानों को आशीर्वाद देकर उसी ब्रह्मांडीय ऊर्जा के साथ अपने लोक को वापस चले जाते हैं. इस कर्म से पितृ ऋण भी उतरता है. अत: यह एक सुअवसर है कि हम इस काल में अपने पितरों का विधिपूर्वक श्राद्ध कर उनसे अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगे.

राणों के अनुसार, वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है, प्रेत होती है. प्रिय के अतिरेक की अवस्था “प्रेत” है, क्योंकि आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अंदर मोह, माया, भूख और प्यास का अतिरेक होता है. सपिंडन के बाद वह प्रेत, पितरों में सम्मिलित हो जाता है. पितृपक्ष में तर्पण करने से वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है.

पुत्र या उसके नाम से परिवार जन जो यव (जौ) तथा चावल का पिंड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अंभप्राण का ऋण चुका देता है. ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है. इन दिनों अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर अपनी संतानों को आशीर्वाद देकर उसी ब्रह्मांडीय ऊर्जा के साथ वापस चले जाते हैं.

वायु पुराण में कहा गया है- ‘‘मेरे वे पितर जो प्रेतरूप हैं, तिलयुक्त जौं के पिंडों से तृप्त हों. साथ ही सृष्टि में हर वस्तु ब्रह्मा से लेकर तिनके तक, चर हो या अचर, मेरे द्वारा दिये जल से तृप्त हों.’’

शास्त्रों में मनुष्य के लिए तीन ऋण बताये गये हैं- देव ऋण, ऋषि ऋण व पितृ ऋण. इनमें से पितृ ऋण को श्राद्ध करके उतारना आवश्यक है, क्योंकि जिन माता-पिता ने हमारी आयु, आरोग्यता तथा सुख-सौभाग्य की अभिवृद्धि के लिए अनेक प्रयास किये, उनके ऋण से मुक्त न होने पर हमारा जन्म लेना निरर्थक है.

वेदों के अनुसार, सावन की पूर्णिमा से ही पितर मृत्यु लोक में आ जाते हैं और कुशा की नोकों पर विराजमान हो जाते हैं. पितृपक्ष में हम जो भी पितरों के नाम का निकालते हैं, उसे वह सूक्ष्म रूप में आकर ग्रहण करते हैं. अत: पितृपक्ष मनुष्यों के पास एक सुअवसर होता है कि यदि उनसे अपने पूर्वजों के प्रति कोई गलती हुई हो, तो वह इस दौरान उसके लिए क्षमा मांग ले. पितर भी इस दौरान अपने बच्चों की सभी गलतियों को माफ कर देते हैं और उन्हें सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं.

हिंदू धर्म शास्त्रों में उल्लेख मिलता है- ‘श्रद्धया इदं श्राद्धम’ अर्थात् पितरों की आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो कुछ अर्पित किया जाये, वह श्राद्ध है. कह सकते हैं कि श्रद्धा से श्राद्ध शब्द की उत्पत्ति हुई है. आम भाषा में कहें, तो श्राद्ध पितरों को आहार पहुंचाने का अहम माध्यम है.

वहीं ब्रह्मपुराण के अनुसार, जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों की संतुष्टि के लिए श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है. वसु, रुद्र और आदित्य श्राद्ध के देवता माने गये हैं. ये देवता श्राद्ध से संतुष्ट होकर व्यक्ति के पितरों को संतुष्टि प्रदान करते हैं. मनु की एक उक्ति के अनुसार, मनुष्य के तीन पूर्वज, यथा–पिता, पितामह एवं प्रपितामह क्रम से पितृ-देवों, अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्य के समान हैं और श्राद्ध करते समय उनकों पूर्वजों का प्रतिनिधि मानना चाहिए.

एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्।

यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति॥

अर्थात्- जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियां प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है.

आज से पितृपक्ष का आरंभ

हिंदू पंचांग के अनुसार, पितृपक्ष का आरंभ भाद्रपद मास की पूर्णिमा से होता है और समापन आश्विन मास की अमावस्या पर होता है, जो इस बार 10 सितंबर से 25 सितंबर (महालया) तक रहेगा. आश्विन अमावस्या को सर्वपितृ अमावस्या भी कहते हैं.

शनिवार, 10 सितंबर : आज भाद्र शुक्ल पूर्णिमा को ऋषि तर्पण (पार्वण मातामह श्राद्ध) होगा. यह पूर्णिमा अमावस्या तुल्य मानी गयी है. इसमें त्रिपुरुषों का सपिंडन श्राद्ध करना चाहिए. यह नांदी श्राद्ध कहलाता है. आज ही पूर्वाह्न में लोकपाल पूजा होगी.

रविवार, 11 सितंबर : आज प्रतिपदा से श्राद्ध कर्म, तर्पणादि आरंभ होगा. सर्वपितृ अमावस्या के अगले दिन 26 सितंबर से नवरात्र आरंभ होगा.

पितृपक्ष में ब्रह्मभोज के साथ पितरों के निमित्त यथासंभव दान-पुण्य करना अति पुण्यदायी है

अगर किसी को अपने पूर्वजों के निधन की तिथि ज्ञात नहीं है, तब हिंदू धर्म शास्त्रों में कुछ विशेष तिथियां बतायी गयी हैं, जिस दिन पितरों के लिए श्राद्ध करना उत्तम माना गया है.

प्रतिपदा श्राद्ध

अगर आपको अपने नाना-नानी या उनके परिवार के किसी मृत व्यक्ति की मृत्यु तिथि याद नहीं है, तो आप प्रतिपदा तिथि पर उनके लिए श्राद्ध कर सकते हैं.

एकादशी और द्वादशी श्राद्ध

संन्यास ले चुके मृत व्यक्ति के श्राद्ध के लिए एकादशी और द्वादशी श्राद्ध शुभ माने गये हैं. इन तिथियों पर उनका श्राद्ध करने से आशीर्वाद प्राप्त होता है.

पंचमी श्राद्ध

अविवाहित मृत व्यक्ति के श्राद्ध के लिए पंचमी तिथि उत्तम मानी गयी है. पंचमी श्राद्ध को कुंवारा पंचमी भी कहते हैं.

नवमी श्राद्ध

माता का श्राद्ध नवमी श्राद्ध पर करें. मान्यताओं के अनुसार, इस दिन श्राद्ध से कुल की सभी दिवंगत महिलाओं का श्राद्ध होता है. इसे मातृ नवमी भी कहते हैं.

त्रयोदशी और चतुर्दशी श्राद्ध

जिनके परिवार में किसी व्यक्ति की अकाल मृत्यु हुई हो, उनके श्राद्ध के लिए त्रयोदशी (केवल मृत बच्चों) और चतुर्दशी तिथि उत्तम मानी गयी है.

सदगुरु ज्ञान

‘श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌’ अर्थात् अपने पूर्वजों की आत्मिक संतुष्टि व शांति और मृत्यु के बाद उनकी निर्बाध अनंत यात्रा के लिए पूर्ण श्रद्धा से अर्पित कामना, प्रार्थना, कर्म और प्रयास को हम श्राद्ध कहते हैं. अध्यात्म के नजरिये से पितृपक्ष आत्मा और आत्मिक उत्कर्ष का वह पुण्यकाल है, जिसमें कम-से-कम प्रयास से अधिकाधिक फलों की प्राप्ति संभव है. अध्यात्म इस काल को जीवात्मा के कल्याण यानी मोक्ष के लिए सर्वश्रेष्ठ मानता है. जीवन और मरण के चक्र से परे हो जाने की अवधारणा को मोक्ष कहते हैं.

उपाय, जो जीवन बदले

पीपल के पत्ते पर काजल रखकर भूमि प्रवाह करने से शनि जनित कष्ट कम होते हैं, ऐसी मान्यता है, पर अपने सकारात्मक कर्मों का कोई विकल्प नहीं है.

प्रेरक संदेश

मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना कुंडे कुंडे नवं पयः । जातौ जातौ नवाचाराः नवा वाणी मुखे मुखे ।।

जितने मनुष्य हैं, उतने विचार हैं; एक ही गांव के अंदर अलग-अलग कुंए के पानी का स्वाद अलग-अलग होता है, एक ही संस्कार के लिए अलग-अलग जातियों में अलग-अलग रिवाज होता है तथा एक ही घटना का बयान हर व्यक्ति अपने-अपने तरीके से करता है. इसमें आश्चर्य करने या बुरा मानने की जरूरत नहीं है.

– वायु पुराण

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