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विचार, क्रिया और कर्म

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अगर आप क्रोध में हैं, तो उस क्षण में न तो अनुभवकर्ता है न अनुभव, केवल अनुभूति है, बस अनुभव करना है. लेकिन जैसे ही उस क्षण से आप बाहर आते हैं, अर्थात् अनुभव करने के तुरंत बाद, तो अनुभवकर्ता भी होता है और अनुभव भी, यानी कर्ता भी होता है और फल की अभिलाषा […]

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अगर आप क्रोध में हैं, तो उस क्षण में न तो अनुभवकर्ता है न अनुभव, केवल अनुभूति है, बस अनुभव करना है. लेकिन जैसे ही उस क्षण से आप बाहर आते हैं, अर्थात् अनुभव करने के तुरंत बाद, तो अनुभवकर्ता भी होता है और अनुभव भी, यानी कर्ता भी होता है और फल की अभिलाषा से किया गया कर्म भी.

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इसका मतलब है, क्रोध को आप दबाना चाहेंगे या उससे छुटकारा पाना चाहेंगे. हम इस अवस्था में, अनुभूति की इस स्थिति में बारंबार लौटते हैं, लेकिन हर बार उससे बाहर चले आते हैं, और उसे कोई शब्द, कोई नाम देकर स्मृति में बिठा लेते हैं, और इस प्रकार कुछ बनना जारी रखते हैं. यदि हम कर्म को उस शब्द के मूलभूत अर्थ में समझ पायें, तो यह गहरी समझ हमारी सतही क्रियाओं को भी प्रभावित करेगी, लेकिन पहले हमारे लिए कर्म की मूलभूत प्रकृति को समझना जरूरी है.

तो क्या कर्म किसी मत या अवधारणा के द्वारा, विचार के द्वारा पैदा होता है? क्या आपको विचार पहले आता है और तब क्रिया होती है; अथवा कर्म पहले होता है और चूंकि वह द्वंद्व ले आता है, आप उसके इर्द-गिर्द एक विचार बना लेते हैं? यह समझना आवश्यक है कि इनमें से कौन पहले आता है. यदि विचार पहले होता है, तो कर्म उस विचार का अनुसरण भर होता है और इसीलिए वह कर्म नहीं होता, बल्कि अनुकरण, विचार का प्रभाव होता है. चूंकि हमारा समाज मुख्यत: बौद्धिक या शाब्दिक स्तर पर रचित है, हम सभी में विचार ही पहले आता है और तब कर्म उसका अनुगमन करता है.

जे कृष्णमूर्ति

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