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सामाजिक विद्रुपताओं के मार्मिक चित्र उकेरती है नीरज नीर की ”दर्द न जाने कोई” कहानी, पढ़ें रोंगटे खड़े करने वाली रचना…

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रांची : हमारा समाज अच्छे-बुरे लोगों से भरा पड़ा है. कहीं अच्छे लोगों का बोलबाला है, तो कहीं बुरे लोगों की भी कमी नहीं है. आम तौर पर समाज के भले मानुष विपत्तिकाल में एक-दूजे का सहारा बनते हैं, मगर समाज के मतलब परस्त और खुर्राट लोग मौके की ताक में लगे रहते हैं. समाज […]

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रांची : हमारा समाज अच्छे-बुरे लोगों से भरा पड़ा है. कहीं अच्छे लोगों का बोलबाला है, तो कहीं बुरे लोगों की भी कमी नहीं है. आम तौर पर समाज के भले मानुष विपत्तिकाल में एक-दूजे का सहारा बनते हैं, मगर समाज के मतलब परस्त और खुर्राट लोग मौके की ताक में लगे रहते हैं. समाज में घटित होने वाली घटनाएं समाचार जगत के लिए जितना महत्वपूर्ण हो जाती हैं, उससे कहीं अधिक समाज के दर्पण साहित्य के लिए उपयोगी हो जाती हैं. साहित्य समाज की विद्रुपताओं पर अपनी पैनी नजर रखता है और फिर उसका सही विश्लेषण कर पाता है. झारखंड की राजधानी रांची के कहानीकार ‘नीरज नीर’ ने सामाजिक विद्रुपताओं के चित्र को उकेरते हुए ‘दर्द न जाने कोई’ कहानी गढ़ी है. पढ़ें पूरी कहानी…

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बरसात के बाद नदी जब अपना पानी समेटती है, तो कुछ पानी किनारे के गड्ढों में छोड़ती चली जाती है. मुख्य धारा से पीछे छूट गया पानी भी बहना चाहता है. वह तड़पता है सागर से मिलन के लिए, पर सभी की किस्मत में सागर की नमकीन लहरों पर खेलना नहीं होता है. कुछ की किस्मत में गरम धूप की सीढ़ियां चढ़ते हुए ऊपर बादलों में गुम हो जाना लिखा रहता है, लेकिन यह सब भूल कर गड्ढों में फंसा पानी मछलियों के लिए घर बनाता है. मछलियों की अठखेलियां देखकर वह अपनी लाचारी भूल जाता है. वह इस दर्द को भूल जाता है कि उसके साथ का पानी बहकर आगे जा चुका है. पानी का स्वभाव स्त्री सा होता है; तरल और जीवनदायी. जीवन देने की लालसा में स्त्रियां कभी अपने दुख दर्द की परवाह नहीं करती है. सुनीता का जीवन भी इन्हीं गड्ढों के पानी की तरह था.

मीरपुर गांव में चारों तरफ हरियाली थी. खेतों के पार एक तरफ नदी बहती थी और दूसरी तरफ एक पहाड़ी थी. नदी और पहाड़ी के बीच की समतल भूमि में ताड़ के वृक्षों की बहुलता थी. बैशाख लगते ही इनसे ताड़ी निकालने का काम शुरू हो जाता था. ताड़ी निकालने का काम बंटाई पर होता था. जिनके ताड़ के वृक्ष थे, उन्हें बांटकर आधी ताड़ी मिल जाती थी. ताड़ी पीने वाले ताड़ी पीकर मस्त हो कहीं आम वृक्ष के नीचे बेसुध पड़े रहते थे.

इन्हीं बेसुध पड़े रहने वालों में से एक नाम था सुनीता के पति रमेशर सिंह का. रमेशर सिंह एक छोटा किसान था. किसान इसलिए कि उसके पास खेत थे, पर रमेशर सिंह को किसानी का काम कभी नहीं सुहाया. इसलिए वह खेतों को बेचकर खाने लगा. वह दिनभर खाली बैठा रहता. ताड़ी, शराब पीता एवं जब पैसों की कमी होती, खेत का एक टुकड़ा बेच देता. रमेशर सिंह अपने घर में अकेला था. मां-बाप उसके गुजर चुके थे एवं भाइयों ने उसे अलग कर दिया था. काम नहीं करने वाले आदमी को भला कौन बिठा कर खिलाता? भौजाइयों के रोज-रोज के तानों से तंग आये रमेशर सिंह को भी लगा कि बंटवारा करके अलग हो जाना ही उचित है. आख़िरकार रमेशर सिंह भाइयों से अलग होकर अपनी रोटियां खुद सेंकने लगा. जब रमेशर सिंह भाइयों से अलग हुआ था, तब तक उसकी शादी नहीं हुई थी.

स्वयं से रोटियां सेंकने का सिलसिला जो एक बार शुरू हुआ, तो वह लंबा चलता रहा. रमेशर सिंह की शादी नहीं हुई. भाइयों ने उसकी शादी करवाने में कोई रुचि नहीं दिखाई. उनके मन में यह बात शायद चलती रही कि अगर रमेशर सिंह की शादी नहीं होगी, तो आखिरकार उसके हिस्से की जमीन भी उन्हीं की हो जायेगी. जिस पुरुष की काफी उम्र बीत जाने पर भी जब शादी नहीं होती, तो उसे बंडा कहा जाता है. शादी की उम्र रमेशर सिंह की कब की गुजर चुकी थी एवं गांव में वह बंडों की श्रेणी में आ गया था. लोग पीठ पीछे उसे बंडा कहने लगे थे.

रमेशर सिंह सुबह में रोटियां सेंककर दिनभर खाट पर पड़ा रहता. उसने अपने हिस्से की जमीन को बंटाई पर उठा दिया था एवं बांटकर जो मिल जाता था, उससे गुजारा करता एवं जरूरत होने पर खेत का एक टुकड़ा बेच देता था. गर्मी के दिनों में जो लोग ताड़ी उतारने का काम करते थे, वही लोग महुआ चुआने का भी काम करते थे. रमेशर सिंह की शाम महुआ की मस्ती में गुजरती. एक दिन दारू की झोंक में रोटी सेंकते वक्त उसका हाथ बुरी तरह जल गया. उस दिन उसे घर में एक अदद औरत की बड़ी कमी महसूस हुई. ‘अगर औरत होती, तो उसे अपना हाथ तो इस तरह नहीं जलाना पड़ता’ उसने सोचा. उसी पल उसने निश्चय कर लिया कि वह कहीं से भी एक औरत का जुगाड़ करेगा.

वैसे तो वह गाहे-बेगाहे एक औरत के पास जाया करता था, लेकिन उसके बारे में सोचकर उसका मन खराब हो गया. उसे वह कैसे अपने घर पर लाकर बिठा सकता है? उसके पास तो न जाने कितने लोग जाते हैं. वह तो एक ऐसी औरत लेकर आयेगा, जो सिर्फ उसकी होगी. भाइयों एवं भाभियों से तो उसे कोई उम्मीद थी नहीं.

रमेशर सिंह जिस इलाक़े का था, उस इलाके में जिनकी शादी नहीं हुई थी वैसे कई लोग लड़कियां खरीद कर लाये थे एवं शादी कर ली थी. रमेशर सिंह ने निश्चय किया कि वह भी अपने लिए लड़की खरीद कर लायेगा. रमेशर ने इस दिशा में कोशिश शुरू कर दी. उसकी कोशिश रंग लायी एवं वह एक औरत को खरीद कर लाने में सफल हो गया, लेकिन इस उपक्रम में उसे अपनी बहुत सारी जमीन बेच देनी पड़ी. फिर भी वह खुश था कि उसके घर में कोई रोटी बनाने वाली तो आ गयी.

वह एक गोरे रंग, तीखे नैन-नक्श वाली खूबसूरत सी औरत थी. साड़ी को उल्टा पल्लू कर के पहनती थी. जैसे आम बंगालन औरतें पहनती है. रमेशर सिंह और उसकी उम्र में बहुत अंतर था. गांव वाले कहते थे कि वह उसे कहीं किसी कोठे से खरीद कर लाया था, परंतु रमेशर सिंह इस बारे में किसी से कुछ भी बात नहीं करता था. वह सुनीता पर जान छिड़कता था. उसकी सभी फरमाइशें पूरी करता था.

रमेशर सिंह दिन में घर के बाहर खटिया पर उघारे देह सोया रहता. सुनीता जब घर में अकेली परेशान हो जाती, तो दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती थी.

सुनीता अपने घर के पुराने दरवाजे की चौखट से ओट लगाए सर पर पल्लू डाले एवं पल्लू का एक सिरा अपने दांतो से दबाये उधर से गुजरते लोगों को अक्सर दिख जाती थी. वह लोगों से बात करना चाहती थी, लेकिन उसे बांग्ला के सिवा कुछ नहीं आता था और गांव के लोगों को बांगला का “ब” भी नहीं पता था.

गांव की औरतें जब कभी रमेशर सिंह के घर गली बुलने जाती, तो वह दौड़कर मचिया लेकर आती और औरतों को कहती “बोसो… बोसो”. औरतें उसके इस बोसो पर ठठाकर हंस देती. हालांकि, धीरे-धीरे उसने गांव की भाषा सीख ली थी.

रमेशर सिंह के घर में सुनीता के आने के बाद खर्चे बढ़ गए. इसी दौरान उसने दो बच्चों को भी जन्म दिया. रमेशर सिंह के पास पहले से ही छोटी सी खेती थी, उन्हीं खेतो को बेच-बेच कर खाता रहा था, लेकिन बेचकर खाने से तो सोने का पहाड़ भी कम पड़े, फिर रमेशर सिंह के खेतों की बात ही क्या थी? एक दिन ऐसा आया, जब रमेशर सिंह के पास बेचने के लिए कुछ नहीं बचा. रमेशर सिंह साठ बसंत पार कर चुका था. उससे अब नया कोई काम होने वाला नहीं था और सच तो यह है कि गांव में नया काम करने की कोई सम्भावना भी नहीं थी. जिंदगी भर बैठकर खाने वाला आदमी शारीरिक परिश्रम वाला काम भी नहीं कर सकता था कि मजदूरी करके अपने लिए दो रोटी कमा ले.

कुछ दिनों तक तो ऊधार-पैंचा लेकर काम चला, पर जब भूखों मरने की नौबत आ गयी, तो एक दिन रमेशर सिंह घर छोड़कर भाग गया.

सुनीता अब उस गांव में अकेली एवं बिना किसी सहारे के हो गयी थी, पर उसे तो अपने दो नन्हें बच्चों का सहारा बनना था.

भूख किसी की सगी नहीं होती है. जब सुनीता के बच्चे भूख से बिलबिलाने लगे, तो मां का ममतामयी दिल बिलख पड़ा. पड़ोसियों से दो रोटी की भीख मांगकर लायी, पर रोटी के साथ रमेशर सिंह के हिजड़ा होने का ताना भी साथ में मिला, जो अपने बीबी बच्चे को अनाथ छोड़ कर भाग गया. सुनीता को अपने पति के बारे में ऐसा सुनना यद्यपि अच्छा नहीं लगा, पर उसके पास सुनने के सिवा विकल्प ही क्या था?

जिसका पति घर छोड़ कर भाग जाए, उसके पड़ोसी भी दिलदार नहीं होते हैं. पड़ोसियों ने शीघ्र ही दुरदुराना शुरू कर दिया.

सुनीता ‘अब क्या करें’ सोचती. कभी विचार करती कि कुएं में कूद कर जान दे दे, लेकिन बच्चों का ख्याल उसके पैर रोक लेता. कभी विचारती कि बच्चों समेत कुएं में कूद जाए. फिर सोचती आखिर बच्चों की जान लेने का अधिकार उसे कैसे है. तो फिर वह क्या करे? वह खरीद कर लायी गयी थी. इसलिए मां-बाप और मायके से संबंध तो कब का विच्छेदित हो गया था. वह एक ऐसे वृक्ष की भांति थी, जिसे जड़ से उखाड़कर छोड़ दिया गया हो. वह हवा के झोंकों के साथ दूर कहीं पहाड़ों के उस पार उड़ जाना चाहती थी, जहां उसकी जड़ें जमीन में गड़ी हो. जहां बच्चे भूख से तड़पते न हों, जहां लड़कियाँ बेची न जाती हों.

एक दिन रिश्ते का भतीजा संजय थोड़ा सा चावल लेकर आया. सुनीता को जीवन की थोड़ी आशा बंधी, परंतु एक हाथ से चावल देते हुए दूसरे हाथ से उसने सुनीता का हाथ पकड़ लिया.

“ये क्या करते हैं बाबू? मैं आपकी मां जैसी हूँ”. सुनीता ने हड़बड़ा कर रहा.

“तो चावल मुफ्त में आता है क्या?” संजय ने बेहयाई पूर्वक हँसते हुए कहा.

“तो ले जाइए अपना चावल. मैं आपसे चावल मांगने गयी थी क्या?” कई दिनों से भूखी व कमजोर सुनीता ने मिमियाते हुए कहा. उसके चेहरे पर बेचारगी से जायदा चिढ़ और परेशानी के भाव थे.

संजय घबरा गया. उसे लगा कहीं सुनीता शोर न मचाने लगे. वह वहां से चला गया. सुनीता की एक शाम के भात की आस भी साथ ही चली गयी.
क्या हुआ बाबू, इतना घबराए हुए क्यों लग रहे हो? संजय को घबराए हुए देखकर, उसकी मां ने पूछा.
“कुछ नहीं मां, बस ऐसे ही” संजय ने कहा.

ऐसे ही कोई घबराता है क्या? कोई परेशानी है क्या? संजय की मां ने कहा.

नहीं ऐसी कोई बात नहीं. आज चाची पर दया करके थोड़ा सा चावल देने चला गया था, तो चाची बदले में मेरा हाथ पकड़ कर मुझे कमरे में ले जा रही थी.

उस रंडी की ये हिम्मत. भतार छोड़ के भाग गया है, तो नया नया भतार खोज रही है. संजय की मां ज़ोर-ज़ोर से सुनीता को गाली देते हुए चिल्लाने लगी. उसे अपने बेटे के कहे पर पूरा यकीन था. उसने एक पल के लिए भी नहीं सोचा कि उसका बेटा भी गलत हो सकता है और सुनीता सही. सुनीता को स्पष्टीकरण देने का कोई मौका भी नहीं दिया गया.

शीघ्र ही भीड़ जुट गयी. सारे गांव ने इस बात पर यकीन कर लिया कि सुनीता चावल के बदले एक आदमी को हाथ पकड़ कर कमरे में ले जा रही थी.

हे भगवान! घोर कलयुग आ गया है. बेटा-भतीजा की भी मर्यादा नहीं रह गयी है. गांव में जिसने इस घटना के बारे में सुना सुनीता के नाम पर थू-थू किया.

फिर तो अकेले में कई लोगों ने सुनीता को चावल देने की कोशिश की.

समाज के सारे रिश्ते कितनी पतली एवं कमजोर डोर के बल पर टिके हुए थे, जो स्त्री के कमजोर एवं लाचार होते ही छिन्न-भिन्न होकर बिखरने लगे थे? सुनीता को गांव के हर आदमी की शक्ल से ही अब उबकाई आने लगी थी. उसे लगता था कि गांव का हर आदमी एक बड़ी से जीभ में बदल गया है, जो उसकी ओर बढ़ता चला आ रहा है.

एक दिन गोधूलि बेला में जब अंधेरा पिछवाड़े के नीम से उतरकर धीमे-धीमे आंगन में पांव पसारने लगा था एवं उसकी भूख अपने चरम बिंदु पर पहुंचने लगी थी, उसे लगा कि उसका प्राण गले में आकर अटक गया है. बेटे भूख से बेसुध खटिया पर पड़े थे. सुबह से उन्हें पानी पिलाकर फुसला रही थी, पर पानी पिलाकर बच्चे तो फुसल जाते हैं, भूख को फुसलाना संभव नहीं, वह फिर आकर खड़ी हो जाती है. शाम के धुंधलके में सुनीता बच्चों को साथ लिये घर छोड़ कर यह सोचकर निकल पड़ी कि या तो बाहर निकल कर रोटी का इंतजाम करेगी या बच्चे के साथ ही कहीं जान दे देगी. कई दिनों से भूखों रहने के बाबजूद वह दिन में यह सोचकर नहीं निकल सकी थी कि कहीं समाज के लोगों को उसके घर से बाहर जाने का पता नहीं चल जाए, जिससे रमेशर सिंह की प्रतिष्ठा धूमिल न हो.

रास्ते में उसके बड़े बेटे ने बड़े ही भोलेपन से पूछा “मां तुम जादू से रोटी नहीं बना सकती?” इस बात पर सुनीता की आंखें भर आयीं. “काश, बेटे मैं बना पाती! अगर मैं जादू से कुछ बना पाती, तो तुम्हें भूखा नहीं रहने देती मेरे बच्चे. मैं जादू से एक ऐसी दुनियां बनाती, जहां कोई बच्चा भूख से नहीं तड़पे.” सुनीता ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा.

सुनीता के गांव से निकटवर्ती कस्बे की दूरी चार किलोमीटर थी. भूख से बेहाल सुनीता कस्बे के बस स्टैंड तक पहुंचते-पहुंचते निढाल हो गयी. सड़क किनारे गड़े चापाकल से पानी पीकर वह वहीं एक झोपड़ीनुमा होटल के बाहर कटे वृक्ष की भांति गिर गयी. मानसिक रूप से बटोरी गयी सारी शक्तियां मानो टूटकर बिखर गयीं. घास जब तक जमीन में अपनी जड़ से जुड़ी रहती है, तब तक बड़ी से बड़ी आंधियां भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाती, लेकिन जड़ से उखड़ते ही घास तिनके में तब्दील होकर उड़ जाती है.

रात का धुंधलका गहराने लगा था. छोटे से कस्बे से इस समय किसी भी सवारी गाड़ी के खुलने की अब कोई सम्भावना नहीं थी.

थोड़ी देर में जब उसने जरा होश संभाला, तो देखा कि बच्चे भूख से बिलख रहे हैं. छोटा वाला तो एक दम अधमरा सा हो गया है. वह रो भी नहीं पा रहा था एवं उसकी आंखें उलटने लगी थीं.

सुनीता ने साहस करके होटल वाले से कहा, “भैया एक रोटी दे दो, बच्चे को खिलाना है.”

“पैसे हैं?” होटल वाले ने पूछा.

“पैसे तो नहीं है भैया” उसने कहा.

“पैसे नहीं हैं, तो रोटी क्या मुफ्त में मिलती है? चल भाग यहां से” होटल वाला घुड़का.

“बच्चा मर जायेगा भैया, रोटी दे दो. बदले में तुम जो कहोगे, मैं तुम्हारा काम कर दूंगी.” उसने कहा.

“अच्छा! तो पहले काम कर दे, फिर रोटी ले लेना” होटल वाले ने उसकी ओर देखते हुए कहा.

“क्या काम है भैया, बोलो.” उसने मुंह से मरियल सी आवाज निकाली.

बच्चे को इधर चौकी पर रखो और अंदर आओ.

होटल वाला उसे होटल के पीछे बने कमरे में ले गया, जिसमें आटे की बोरियां और होटल में काम आने वाले अन्य सामान रखे थे. उसने उसे धकेल कर बोरे पर गिरा दिया. कई दिनों की भूखी सुनीता लाश की तरह बोरे से लुढ़क कर नीचे गिर गयी.

होटल वाले ने उसे उठाकर फिर से बोरे पर रखा. “ठीक से बैठ ससुरी…” होटल वाला घुड़का.

“क्या करना है भैया?” उसने मिमियाते हुए पूछा.

“आरती उतारनी है तेरी. टाइम मत खराब कर. रोटी चाहिए, तो जल्दी कर नहीं तो भाग यहां से.”

“ऐसा न करो भैया, कोई और काम करवा लो. मैं जूठे बर्तन धो दूंगी.” सुनीता ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

“जूठे बर्तन धोने के लिए बहुत पड़े है यहां. देख अभी दुकानदारी का टाइम है. टाइम खराब मत कर. आती है तो बोल, नहीं तो भाग यहां से.”

सुनीता का बड़ा बच्चा जोर-जोर से रोने लगा था, जिसकी आवाज उसे सुनायी दे रही थी. वह विचलित हो उठी.

कोई मां अपने बच्चों को भूखा मरने कैसे दे सकती है? चाहे इसके लिए उसे स्वयं कितनी भी बार मरना पड़े.

उसने आंखें बंद कर ली और अपना शरीर ढीला छोड़ दिया.

होटल वाला अपने काम में लग गया. वह उसके मुंह को बुरी तरह भम्भोड़ने लगा. उसके मुंह से तंबाखू की भयानक बदबू आ रही थी. वह तेजी से कुत्ते की भांति हिल रहा था और शीघ्र ही ठंडा हो गया. कमरे में कोई दरवाजा या परदे का कोई इंतजाम नहीं था.

सुनीता की आंखों में आंसू आ गए, लेकिन उसे इस बात की ख़ुशी थी कि उसके बच्चों के लिए एक रोटी का इंतजाम तो हो गया.

…लेकिन भूखे को रोटी मिलना इतना आसान होता, तो कोई बच्चा भूख से नहीं मरता.

अभी होटल वाला निबट ही रहा था कि कमरे में एक आदमी और आकर खड़ा हो गया. वह किसी बस का खलासी था.

सुनीता ने अपने आंख के आंसू पोछे और कपड़े संभालने लगी. तभी खलासी ने आकर फिर से आटे की बोरी पर उसे पटक दिया.

“जाती कहां है साली, हम भी हैं” खलासी ने विद्रूप हंसी हंसते हुए कहा.

“भैया हमको जाने दो, हमारा बच्चा मर जायेगा.”

सुनीता ने चिल्लाने की कोशिश की, लेकिन उसकी आवाज गले में ही अटक गयी.

“भैया आपने तो कहा था कि आप रोटी दोगे, आपने जो कहा मैंने किया. भैया अब रोटी दे दो… भैया… मेरा बच्चा भूख से मर जायेगा… आपका पैर पकड़ते हैं भैया… इतना निर्दयी मत बनो भैया…” उसने होटल वाले से दया की भीख मांगते हुए कहा.

उसकी आंखों के आगे धुंधलका छाने लगा था. उसका गला सूख रहा था.

“चुप साली.” होटल वाले ने हंसते हुए कहा और खलासी को इशारा कर दिया.

खलासी भूखे कुत्ते की तरह उस पर टूट पड़ा. सुनीता मृत देह की तरह पड़ी रही. उसके देह से संवेदना ख़त्म हो गयी थी. उसे कुछ भी अब महसूस नहीं हो रहा था.

शीघ्र ही यह खबर पूरे बस स्टैंड में फैल गयी कि होटल में माल आया हुआ है.

रात गहराने के साथ बस स्टैंड में रात बिताने वाले ड्राइवर, खलासी और दलाल होटल के उस कमरे में आते रहे और निकलते रहे. कुल मिलकर पंद्रह जानवरों ने उस रात उस लाश के साथ अपनी हवश पूरी की. उधर, बाहर दो निरीह बच्चे भूख से तड़प कर मर गए.

परिचय :

नीरज नीर

जन्म तिथि : 14.02.1973

Mob 8797777598

Email –neerajcex@gmail.com

पता :

“आशीर्वाद”
बुद्ध विहार, डाकघर- अशोक नगर
राँची – 834002, झारखण्ड

राँची विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातक.

वागर्थ, हंस, परिकथा, निकट, इंद्रप्रस्थ भारती, कथादेश, सोच विचार, आजकल, दोआबा, अक्षरपर्व, कथाक्रम, युद्धरत आम आदमी, आधुनिक साहित्य, साहित्यअमृत, वाक्, प्राची, वीणा, नंदन, ककसाड, कवि कुंभ, विभोम स्वर, परिंदे, समहुत , सरस्वती सुमन, यथावत, अहा! ज़िंदगी, अट्टाहास, रेवान्त, प्रभातखबर, जनसत्ता, दैनिक भास्कर, आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर कवितायें एवं कहानियाँ प्रकाशित.
काव्यसंग्रह "जंगल में पागल हाथी और ढोल" के लिए प्रथम महेंद्र स्वर्ण साहित्य सम्मान प्राप्त.

प्रतिलिपि लघुकथा सम्मान.

अखिल भारतीय कुमुद टिक्कु कहानी प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ कहानी के लिए पुरस्कार.

आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से नियमित कहानियों एवं कविताओं का प्रसारण.

सम्प्रति केन्द्रीय वस्तु एवं सेवा कर में अधीक्षक एवं झारखण्ड के रामगढ़ में पदस्थापित.

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