पहल पत्रिका डॉट कॉम में मशहूर कथाकार उदय प्रकाश की एक कहानी प्रकाशित हुई है ‘अंधा.’पहल सम्मान से विभूषित उनकी यह कहानी लगभग एक दशक बाद पढ़ने को उपलब्ध हो सकी है. उदय प्रकाश की रचनाएं देश और विदेश की अनेक भाषाओं में उपलब्ध हैं. पढ़ें कहानी का अंश:-
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मशहूर कथाकार उदय प्रकाश की कहानी ‘अंधा’ के कुछ अंश
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पहल पत्रिका डॉट कॉम में मशहूर कथाकार उदय प्रकाश की एक कहानी प्रकाशित हुई है ‘अंधा.’पहल सम्मान से विभूषित उनकी यह कहानी लगभग एक दशक बाद पढ़ने को उपलब्ध हो सकी है. उदय प्रकाश की रचनाएं देश और विदेश की अनेक भाषाओं में उपलब्ध हैं. पढ़ें कहानी का अंश:- किस्सा (कहानी) अंधा -उदय प्रकाश- कौन […]
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किस्सा (कहानी)
अंधा
-उदय प्रकाश-
कौन कहता है कि सोचने से कुछ नहीं होता?
कुछ घटनाएं ऐसी हैं और कुछ किस्से ऐसे हैं, जिनसे पता चलता है कि सोचना या विचार करना अकर्मण्य या निठल्ला हो जाना नहीं होता. सोचने से कुछ न कुछ तो होता है.
जब मैं स्कूल में पढ़ता था, तब मेरे दोस्त ने एक किस्सा सुनाया था. किस्सा यों है:
‘एक अंधा था. उसका जन्म ही अंधेपन के साथ हुआ था. जन्मांध. वह कुछ देखता नहीं था, बस ध्वनियों को सुना करता था, चीज़ों को छूता-टटोलता था.
और उसे सारी दुनिया तरह-तरह के गंध-सुगंध, खुशबू-बदबू से भरी हुई लगती थी. चारों और फैली हवाओं को वह अपनी सांस और अपनी त्वचा से जानता था. सांस से गंध और त्वचा से उनका ताप.
जितनी ही उस अंधे की उम्र बढ़ती गयी, उतना ही वह अकेला होता चला गया.
जो उसकी उम्र के लोग थे, वे धीरे-धीरे कहीं और चले गए. वे दूसरे शहरों में बस गए. और जो उससे बड़ी उम्र के थे, जिनमें माता-पिता, दादा-दादी, मौसी-बुआ, चाचा-ताऊ, ताई-चाची जैसे कई संबंधी शामिल थे, धीरे-धीरे वे सब मरते गये.
अपने अंधेपन के साथ वह बूढ़ा होता चला गया.
अब वह अकेला, घर के पिछवाड़े एक बहुत पुराने, सूखे हुए पेड़ के तने पर अपनी पीठ टिकाये दिन-रात बैठा रहता और कुछ सोचता रहता. रात में जब सोता तो उसे कई तरह के सपने आते. ये सपने उन लोगों के सपनों से बिलकुल अलग होते थे, जिनकी आंखें थीं और जो देखी गयी चीज़ों के सपने ही देखा करते थे.
वह जो सोचता या छूता या सूंघता, वही अनुभव उसके सपनों को बनाया करते. यही कारण था कि वह अधिक सपने देखने के लिए बड़ी व्यग्रता के साथ हर उस चीज़ को छूता, टटोलता, जो उसके आसपास हो जाती. बार-बार गहरी सांसें लेकर वह हवा को सूंघने की कोशिश करता. उसकी ये हरकतें दूसरे लोगों ने उसे अलग और अस्वाभाविक बनातीं. लोग उसे आश्चर्य, उदासीनता और गुस्से से देखते. वे लोग यह न समझ पाते कि वह ऐसा अपने सपनों को तरह-तरह की चीज़ों से और अधिक भरने के लिए करता है.
वह शहर भी अब पहले से जितना बड़ा होता गया, उतना ही लोगों के पास काम बढ़ते गये और उसके पास समय कम होता गया.
उस अंधे के पास भला कौन आता और उसकी अजीबोगरीब बातें सुनता? इतनी फुर्सत ही किसके पास थी? अगर लोगों को फुर्सत भी कभी मिलती, तो उसे वे अपने मनोरंजन के लिए खर्च करते. यह उनका अपना समय था, उसे अंधे के पास बरबाद करने की बात कौन सोचता.
वह अकेले से ज़्यादा अकेला, अलग से ज्यादा अलग होता चला गया,
शहर के लोगों के लिए वह अब सिर्फ ‘अंधा’ भर नहीं रह गया था क्योंकि शहर में कुछ और भी अंधे थे. उनमें से कुछ ऐसे थे जिनकी आंखों की रोशनी उम्र के कारण, किसी रोग के कारण या किसी दुर्घटना के कारण चली गयी थी। वह इनसे अलग था इसीलिए सिर्फ ‘अंधा’ कहने से उसे अलग से नहीं पहचाना जा सकता था.
यही वजह थी कि लोग अब ‘मनहूस अंधा’ या ‘खड्डूस अंधा’ के नाम से उसका ज़िक्र करते थे, इसी के ज़रिये उसकी खास पहचान बनती थी.
लेकिन वह कभी-कभी रात में कुछ गाया करता था. गाने की आवाज़ कभी धीमी ज़िक्र करते थे. इसी के ज़रिये उसकी खास पहचान बनती थी….
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