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मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण डॉ उत्तम पीयूष की दो कविताएं

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डॉ उत्तम पीयूष मधुपूर दर्पण के चीफ एडिटर हैं. इनकी किताब ‘चीख सकते तो पहले पेड़ चीखते’ बहुत चर्चित है. हंस पत्रिका ने इन्हें देश के सर्वश्रेष्ठ उभरते हुए कवियों की सूची में स्थान दिया था. इन्हें कई साहित्य सम्मान भी मिल चुका है, जिनमें साहित्य श्री सम्मान, फणीश्वरनाथ रेणु पुस्कार और सतीश स्मृति साहित्य […]

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डॉ उत्तम पीयूष मधुपूर दर्पण के चीफ एडिटर हैं. इनकी किताब ‘चीख सकते तो पहले पेड़ चीखते’ बहुत चर्चित है. हंस पत्रिका ने इन्हें देश के सर्वश्रेष्ठ उभरते हुए कवियों की सूची में स्थान दिया था. इन्हें कई साहित्य सम्मान भी मिल चुका है, जिनमें साहित्य श्री सम्मान, फणीश्वरनाथ रेणु पुस्कार और सतीश स्मृति साहित्य सम्मान प्रमुख है. इन्होंने ‘आरोह’ पत्रिका का संपादन भी किया है. इनकी कविताओं में मानवीय संवेदना का स्वर प्रस्फुटित होता है. प्रस्तुत है इनकी दो कविताएं :- संपर्क :9006836464

एकांत इतना ख़तरनाक नहीं होता
कभी कभी
ख़बरों की दुनिया
हमें अपनी ही दुनिया से
बेख़बर कर देती है
हमेशा एकांत या सुनसान
भयानक नहीं होता
हमेशा जंगल रातों में
डराता नहीं
हमेशा चुपचाप बैठा आदमी
साजिशें ही नहीं रचता
एक नदी जो चुपचाप बहती है
हमेशा उसकी आवाज तेज नहीं होती
हमेशा एक स्त्री
अपने बेहद एकांत में
डरी हुई नहीं होती – हमेशा
ख़बरों ने चांद को कब से
आकाश पर कैलेंडर की तरह
टांग दिया है
पर वह है कि पाहुन की तरह
देर रात दरवाजे पर आ जाता है
खिड़कियों से मुस्कुराकर झांकता है
और कहता है -‘ लो, मैं आ गया !’
( मानो वह कहना चाहता हो कि वह अब और आसमान में
टंगा नहीं रहना चाहता. )
हमने/ हमसब ने
अलग अलग तरह से
अपने अपने एकांत को
मार डाला है
शोर कमबख़्त इतना जालिम
पहले कभी नहीं रहा
कि हम अपनी ही आवाज़
फुसफुसाहटों में भी
सुन नहीं पाए
कि अपने ही देखे गए ख्वाब को
हौले से संजो नहीं पाएं
गुड़ियों और खिलौनों को
संजो कर भी
मासूम पल बचा नहीं पाए
उस आदमी के थैले में
ज़रूरी नहीं कि बम बंदूक ही मिले
हो सकता है उसमें
बच्चे के दूध का डब्बा
पत्नी के लिए फूलों का गजरा
और मां के लिए चप्पल हो
हर आदमी
हर जंगल
हर स्त्री
अपने वजूद में, एकांत में
और ख़ामोशियों में
ख़तरनाक नहीं है
जरा क़रीब तो आइए !!
टूटते हैं जब
टूटते हैं जब
सारे वहम
सारे अहम
हमीं बनने लगते हैं
अविरल नदी
स्वयं को कर विसर्जित
निराशा के कठिन समय में
जब सारे मानक
ध्वस्त हो गये से
लगते हैं
जब सब फंस गये लगते हैं
जो दे सकेगा स्वयं को उलीच कर
जन को
मन को
वही रचेगा सृष्टि
बनाएगा इस धरा को पुनर्नवा

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