जो मैथिल अपनी कुलदेवी दुर्गा की आराधना अपनी मातृभाषा छोड़कर दूसरी भाषा में करते हों वह मातृभाषा का क्या सम्मान करेगा? वह क्या देवी की आराधना करेंगें? जिस भूमि के लोगों की अपनी कुलदेवी को पंजाबी, छपरिया भाषी बना दिया हो वह क्या अपने संस्कृति, भाषा और अलग पहचान की लड़ाई लड़ेगा. मैं किसी भाषा के विरोध में नहीं हूं मैं भाषा और संगीत के नाम पर अपशिष्ट उपसर्जन के खिलाफ हूं जिसे आप प्रसाद मान सेवन कर रहे हैं. और अगर मेरी मातृभूमि से मेरी ही मातृभाषा गायब होने लगे वहां पर मुझे अपना विरोध दर्ज कराने का अधिकार है.
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खट्टर काका की डायरी से
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-विजय देव झा- मैथिली भाषा की उपेक्षा पर एक मैथिल का दर्द मेरे प्यारे मैथिल ब्रदर्स, सिस्टर्स एंड ऑल. हरेक वर्ष की भांति आप इस साल भी दुर्गा पूजा के अवसर पर लाउडस्पीकर पर लखबीर सिंह लक्खा, दुर्गा रंगीला, देवी, खेसारीलाल, दबंग बिहारी जैसे ट्रक छाप पंजाबी और भोजपुरी गायकों के तथाकथित भजन बजा कर […]
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-विजय देव झा-
मैथिली भाषा की उपेक्षा पर एक मैथिल का दर्द
मेरे प्यारे मैथिल ब्रदर्स, सिस्टर्स एंड ऑल. हरेक वर्ष की भांति आप इस साल भी दुर्गा पूजा के अवसर पर लाउडस्पीकर पर लखबीर सिंह लक्खा, दुर्गा रंगीला, देवी, खेसारीलाल, दबंग बिहारी जैसे ट्रक छाप पंजाबी और भोजपुरी गायकों के तथाकथित भजन बजा कर अपने भक्ति का आसुरी नमूना पेश कर रहे होंगे. आपके भक्ति से नहीं आपके शोर से देवी दुर्गा आक्रान्त हो रही होंगी. मुझे आप मूढ़मति मासूम मैथिल द्वारा फैलाये जा रहे ध्वनि प्रदूषण की उतनी चिंता नहीं है जितनी की इस बात से की आप अनजाने में या जानबूझकर सांस्कृतिक प्रदूषण फैला रहे हैं.
तकलीफ इसलिए है की आपको देवी की आराधना करने के लिए अपनी संस्कृति और मातृभाषा में कोई गीत संगीत नहीं मिलता है. आप तर्क देंगें की भक्त की भक्ति देखिये भाषा पर मत जाइये. ईश्वर को किसी भाषा और बोली में मत बांटिये यूं न नफरत फैलाइए. आपकी बातों से शत प्रतिशत सहमत हूं.
लेकिन जो तर्क आप प्रस्तुत कर रहे हैं वह हमें तब शिरोधार्य होता जब आप परमपद प्राप्त सिद्ध होते परमहंस होते जिसके ‘मां गो मां गो’ कहने भर से मां दुर्गा आ जाती. जिस मिथिला भूमि के बारे किंवदंती है की यहां ईश्वर खुद अपने भक्तों का मधुर संगीत सुनने के लिए आते थे, आज उस भूमि के लोग फूहड़ गायकों के कर्णभेदी पंजाबी, छपरिया बोली के रॉक और रिमिक्स बजा कर भगवती का आवाहन कर रहे हैं , जो संगीत कम कोहराम अधिक है. आपकी भक्ति मैथिली में नहीं जगती है भोजपुरी पंजाबी में ही जगती है. जबकि आप मैथिल हैं लेकिन आपकी भक्ति किसी और भाषा में जगती है.
इस आलोच्य शताब्दी में मिथिला के मंगरौनी और हरिनगर तंत्रविद्या के प्रसिद्द केंद्र थे. मंगरौनी के फन्नेवार-खनाम मूल के ब्राह्मणगण तांत्रिक साधना में शिखर पर थे. फन्नेवार वंश के महामहोपाध्याय गोकुलनाथ, जग्गनाथ, रघुनाथ, लक्ष्मीनाथ, भवानीनाथ यह सब के सब तंत्र शास्त्र के मान्य विद्वान थे. कहा जाता है की इस वंश का विद्या बैभव भगवती के तंत्र उपासना के ही चरम उत्कर्ष का फल था. गोकुलनाथ के चचेरे भाई मदन उपाध्याय की तांत्रिक सिद्धि से संबंद्ध अनेक किंवदंती आज भी जन मानस में है. किंवदंती यह है की देवी दुर्गा मदन उपाध्याय के एक आवाहन पर चली आती थीं और दिन के कुछ ख़ास प्रहार में देवी उनके ऊपर विराजमान रहती थी.
सो आज उस मदन उपाध्याय के संतति को भगवती को बुलाने के लिए आज लाउडस्पीकर पर एक चवन्नी छाप सिंगर का गाया "बेट्टा बुलाये झट दौड़ी चली आयी मां" का कोहराम करना पड़ता है. जिन महाकवि विद्यापति ने भगवती आराधना के लिए "कनक भूधर शिखर वासिनी" "जय जय भैरवि असुर भयावनी" जैसे बीजमंत्र युक्त गीत की रचना की उन्हें आज अपनी ही भूमि और लोककंठ से निर्वासित होना पर रहा है.
चूंकि आप जोतावाली, लाटा वालिये, सहारावालिये, मेहरावाली, भैरोजी के दिदिया, सातो रे बहिनिया, जै मातादी को भक्ति का हिस्सा कह उद्दात तर्क देने वाले लोग हैं आपको शायद इल्म नहीं है की इसके दूरगामी परिणाम क्या सब हो सकते हैं.
बड़े अजीब अजीब से गाने सुनने को मिलते हैं जैसे "मैया तेरा बेटा करेगा तेरा श्रृंगार" बेटा अपने मां का श्रृंगार करे मुझे पता नहीं किस संस्कृति में होता है मिथिला में तो बिलकुल नहीं होता. मिथिला में लंबे समय तक रामायण की रचना नहीं की गयी क्योंकि सीता मिथिला की पुत्री हैं और जो रामायण लिखते तो श्रृंगार भी लिखना पड़ता. और जो लिखा भी तो श्रृंगार वाले विषय को गौण कर दिया गया. किस संस्कृति में बेटा अपनी मां को चूड़ी पहनाता है?
मिथिला में भगवती की आराधना और गुहार होती है.
और यह फूहड़पन और अपसंस्कृति मैथिली के नए नवेले गायकों में भी आ गयी है. उन्होंने पंजाबी, छपरिया के फूहड़पन के रिमिक्स को मैथिली में परोसना शुरू कर दिया है. अधिकतर मामलों में उनके ऑडियो कैसेट के कवर से लेकर कैसेट के रील पर उनका फूहड़पन दिखता है और बजता है.
यह बात भी सही है की जिस टेंट हाउस वाले से आप लाउडस्पीकर और कैसेट भाड़े पर लाते हैं वह प्रयाग संगीत समिति से शिक्षा प्राप्त संगीत विशारद नहीं है न ही समाज का एक मान्य प्रबुद्ध. वह सिर्फ वॉल्यूम तेज करना जानता है. उसे संगीत और शोर के बीच फर्क का पता नहीं है. आप क्या हैं?
आजकल मैथिली में गवैये ऐसे पैदा हो रहे हैं जैसे की पंजाब में अच्छी फसल के बाद एक धनी किसान का नकारा बेटा हनी सिंह रातों रातों रात दर्जनों म्यूजिक एल्बम बाजार में उतार कर सदी का महानतम गायक होने का दावा ठोंक देता है. सो बोलो तारारारा. हनी सिंह हनिये सिंह रहेगा सुर की उसकी समझ उसके औकात से ऊपर नहीं जा पायेगी. वह संगीत के सात सुरों के साथ ऐसे ही बलात्कार करेगा "सा रे ग म प ध नी सा लोटा ल के हगनीसा" सो हनी सिंह और मन्ना डे के बीच तुलना ऐसा ही है जैसे कोई विद्यापति के साहित्य पर बहस कर रहा हो, यह स्थिति भोजपुरियों में भी है.
तंत्र, मंत्र, अध्यात्म और संगीत की उर्वर भूमि मिथिला के लिए इससे अधिक दुखद बात और क्या हो सकती है की वह अपने उद्दात संस्कृति को दूसरे संस्कृति के अपशिष्ट पदार्थों से ढंक रहा है. ऐसे ही और भी चीजें गायब होंगीं. दुर्गा पूजा से जुड़े आपके लोकनृत्य झिझिया को सांस्कृतिक पिछड़ापन का चिन्ह कह कर खत्म कर दिया गया उसकी जगह पर डांडिया आ गया. आपकी भगवती कब मातारानी हो गयीं कब पंजाबी और भोजपुरी बोलने लगीं आपको पता भी नहीं चला.
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