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कमला हैरिस पर इतना उत्साह क्यों

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अमेरिकी चुनाव में किसी भी मूल का अमेरिकी नागरिक जीते, हमें इस बात से फर्क नहीं पड़ना चाहिए. यदि भारत के हितों के साथ अमेरिकी हित मिलते हैं, तो इसमें हमारा फायदा है.

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सुशांत सरीन, वरिष्ठ टिप्पणीकार

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sushantsareen@gmail.com

कमला हैरिस के चुनाव को लेकर भारत में जो उत्साह है, वह बेमतलब है, क्योंकि कमला हैरिस भारत के लिए चुनाव नहीं लड़ रही हैं. वह अपने लिए और अमेरिका के लिए चुनाव लड़ रही हैं. वह तो अपने भारतीय मूल को लेकर भी चुनाव नहीं लड़ रही हैं. उन्होंने कभी भी पूरी तरह से अपनी भारतीय पहचान को उभारा नहीं है. वह खुद को काला मानती हैं और काले अमेरिकियों के साथ ही अपना तादात्म्य स्थापित करती हैं. हमें उन्हें बस इस रूप में देखना चाहिए कि वह एक अमेरिकी हैं और अमेरिका के लिए चुनाव लड़ रही हैं.

जब भी कोई भारतीय मूल का अमेरिकी चुनाव में खड़ा होता है, तो हम यह मान लेते हैं कि वह भारत के पक्ष में होगा. यह मूर्खतापूर्ण सोच है. सच तो यह है कि वह अमेरिकी हैं. यदि भारत के प्रति उनका रवैया अच्छा है, तो इसलिए नहीं है कि वह भारतीय मूल के हैं, बल्कि इसलिए कि उनको लगता है कि भारत के साथ अच्छे संबंध अमेरिका के लिए बेहतर सािबत होंगे. अमेरिका के चुनाव में किसी भी मूल का अमेरिकी नागरिक जीते, हमें इस बात से फर्क नहीं पड़ना चाहिए. यदि भारत के हितों के साथ अमेरिकी हित मिलते हैं, तो इसमें हमारा फायदा है और यदि ऐसा नहीं है, तो हमारा कोई फायदा नहीं है.

इन चुनावों का हमारे लिए इतना ही महत्व होना चाहिए. दूसरी बात, कमला हैरिस पहले भी उच्च पदों पर रह चुकी हैं. यदि आप उनकी तुलना निकी हेली या अन्य भारतीय मूल के लोगों से करें, तो कमला हैरिस ने अपनी ओर से कभी ऐसी कोई बात नहीं कही है, जिसके लिए हमें उत्साहित होने की जरूरत है. हमें यह बात समझनी होगी कि अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते यदि बेहतर होते हैं, तो इसलिए नहीं कि कोई भारतीय मूल का व्यक्ति वहां उच्च पद पर आसीन है, बल्कि इसलिए कि भारत और अमेरिका के हित आपस में मिलते हैं.

कमला हैरिस की उम्मीदवारी को लेकर हमें यह देखना पड़ेगा कि उनकी नीतियां क्या हैं? बहुत से लोग यह मान रहे हैं कि भारत और अमेरिका के संबंध एक ऐसे पड़ाव पर आ चुके हैं, जहां से उन्हें बेहतरी की तरफ ही जाना चाहिए, लेकिन कमला हैरिस जिस पार्टी का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिस सोच को प्रदर्शित करती हैं और भारत से जुड़े कई मुद्दों पर उनकी पार्टी की जो राय है, वह शायद भारत को गवारा नहीं होगा, क्योंकि वह भारत के हित में नहीं है. कश्मीर, सीएए समेत तमाम ऐसे मुद्दे हैं, जहां इनकी और भारत की सोच बिल्कुल अलग है.

इन मुद्दों को लेकर दोनों के बीच समस्या पैदा होगी. हालांकि चीन और व्यापार समेत आपसी हित से जुड़े मामलों को लेकर दोनों के बीच संबंध बेहतर हो सकते हैं. यहां हमारे आपसी हित, हमारे मतभेदों पर इतने हावी हो जायेंगे कि मतभेदों को ज्यादा तवज्जो नहीं दी जायेगी. यदि ऐसा होता है, तो दोनों देशों के रिश्ते आगे बढ़ते रहेंगे, परंतु यदि इन्होंने हमारे अत्यधिक संवेदनशील मामलों में हस्तक्षेप करने या दबाव बनाने की कोशिश की, तो दोनों देशों के संबंध में खटास जरूर आ सकती है.

हालांकि यह भी सच है कि कोई व्यक्ति या पार्टी जब चुनाव लड़ रहा होता है या विपक्ष में हो है, तो वे बहुत-सी बातें बोलता हैं, लेकिन सत्ता में आने के बाद वह उसे बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं देता. यदि ऐसा होता है, तब तो भारत और अमेरिका के रिश्ते बेहतरी की तरफ जायेंगे. हमारे लिए ज्यादा चिंता का विषय वहां की राजनीति में शामिल वामपंथी हैं. बिल क्लिंटन के पहले कार्यकाल में, उनके प्रशासन में राॅबिन राफेल जैसे कुछ ऐसे लोग शामिल हुए थे, जिन्होंने भारत और अमेरिका के रिश्तों में केवल खटास ही पैदा की थी. उन दिनों कश्मीर में आतंकवाद चरम पर था और वह पाकिस्तान के पक्ष में थे. उस समय हमारे ऊपर काफी दबाव बना था, लेकिन उस समय से आज तक लगभग 30 वर्ष गुजर चुके हैं.

चीन के साथ भारत की जो समस्या है, उसे भारत को अपने बलबूते ही सुलझाना होगा, चीन के सामने डट कर खड़ा रहना होगा. हमें समझना होगा कि कोई भी देश, दूसरे देश की लड़ाई नहीं लड़ता. इसके अतिरिक्त, चीन को लेकर बहुत-से ऐसे मुद्दे हैं, जहां भारत और अमेरिका के आपसी हित जुड़े हैं, वहां यदि को-ऑर्डिनेशन और को-ऑपरेशन होता है, तो भारत के लिए बेहतर रहेगा. अमेरिका के अंदर चीन को लेकर जो राय बनी है, वह सरकार बदलने के बाद भी शायद नहीं बदलेगी. अमेरिका और चीन के बीच के संबंध दुबारा वैसे नहीं होंगे, जैसे आज से पांच-सात वर्ष पहले थे.

दूसरी बात, अमेरिका और चीन के बीच में तनाव का बढ़ना तय है, लेकिन देखना पड़ेगा कि सरकार बदलने पर नयी सरकार इस तनाव को किस हद तक लेकर जायेगी. हो सकता है कि वह इस तनाव को ज्यादा बढ़ावा न दे. यदि ऐसा होता है, तो यह चीन के लिए फायदेवाली बात होगी, क्योंकि यदि अमेरिका चीन को कोने में नहीं धकेलता है, तो चीन अपनी ताकत बढ़ाता रहेगा, जो शायद हमारे हित में नहीं होगा, लेकिन अगर अमेरिका उसको एक नये शीत युद्ध में ले जाता है और आर्थिक, सैन्य समेत तमाम तरह के दबाव चीन के ऊपर बनाता है, तो वह हमारे हित में होगा.

माना जा रहा है कि कोरोना के बाद की दुनिया में काफी उथल-पुथल होगी. पुरानी दुनिया से उलट बिल्कुल नयी तरीके की दुनिया उभर कर आ रही है. चाहे वह कूटनीति हो, राजनीति हो या आर्थिक नीतियां हों, उनमें जमीन-आसमान का अंतर देखने में आ रहा है. चीन जिस तरह से धौंस जमा रहा है और जिस तरीके से वह शक्तिशाली होकर उभरा है, जाहिर है कि उसने अंतरराष्ट्रीय सिस्टम में उथल-पुथल पैदा कर दी है. आगे चल कर दुनिया शायद दो खेमों में बंट जाए.

एक ओर चीन, दूसरी ओर अमेरिका. यदि चीन के साथ हमारे मधुर रिश्ते होते, तो हम बीच का रास्ता निकाल कर अपने हितों का संरक्षण करते, लेकिन चीन ने भारत के साथ जो हरकतें की हैं, उसे देखते हुए चीन हमारे लिए एक बड़े खतरे के रूप में उभर कर आ रहा है. ऐसे में संतुलन बैठाने के लिए हमें कहीं-न-कहीं अमेरिका के साथ अपने संबंधों को और बेहतर और मजबूत करना होगा.

(बातचीत पर आधारित)

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