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आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी : अल्लूरी सीताराम राजू

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अपने अभियान में अल्लूरी सीताराम राजू ने आदिवासियों के बीच उनके अधिकारों के बारे में राजनीतिक चेतना पैदा करने और बाहरी प्रभावों के प्रति प्रतिरोधी बनाने की कोशिश की.

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रम्पा विद्रोह के नायक अल्लूरी सीताराम राजू की 126वीं जयंती चार जुलाई को मनायी गयी. उनके जन्मस्थान को लेकर विवाद है, पर अधिकतर विद्वानों ने आंध्र प्रदेश के विजयनगरम जिले के पंडारंगी गांव को उनका जन्मस्थान माना है. राजू अपने पिता वेंकट राम राजू से बहुत प्रेरित थे, जो लाला लाजपत राय, कोडी राम मूर्ति जैसे अनेक स्वतंत्रता सेनानियों और विशेष रूप से राजमुंदरी सेंट्रल जेल में बंद स्वतंत्रता सेनानियों के फोटोग्राफर थे.

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साल 1895 में आठ साल की उम्र में उन्होंने अपने पिता को खो दिया. उनकी संरक्षकता उनके चाचा के पास चली गयी, जो तहसीलदार थे. उन्हें शिक्षा में कोई रुचि नहीं थी, जो उनके अनुसार अंग्रेजी ढांचे पर आधारित थी और जिसका उद्देश्य सरकार के लिए नौकर तैयार करना था. वे 18 वर्ष की आयु में रम्पा पहाड़ियों के जंगल में चले गये और एक संन्यासी की तरह रहने लगे. उन्होंने छोटे-मोटे विद्रोह भी किये, जो 1882 के मद्रास वन अधिनियम की शुरुआत के साथ भड़क उठे थे.

वन संरक्षण के नाम पर जंगल पर कब्जा कर आदिवासियों को उनकी बस्तियों से बेदखल कर दिया गया और उनके जंगल में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया. उस समय आदिवासी विद्रोह को अंग्रेजों ने ‘फितूरी’ नाम दिया था.
साल 1921 में वे नासिक गये और गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित होकर उन्होंने खादी पहनना शुरू कर दिया. उन्होंने रम्पा विद्रोह में अपने सैनिकों के लिए खादी का ड्रेस कोड भी तय किया.

साल 1938 तक उनके विद्रोह कई क्षेत्रों में दर्ज किये गये थे. अल्लूरी सीताराम राजू का विद्रोह मुख्य रूप से गुरिल्ला तकनीक पर आधारित था. इस विद्रोह में कई ऐसे नायक हैं, जो इतिहास के पन्नों में आज गुमनाम हैं. ऐसा ही एक नाम है मोट्टादम वीरय्या डोरा का, जो 1916 लगराई फितूरी के माध्यम से पूर्वी घाटों में विद्रोह करने वाले पहले विद्रोहियों में से एक था. भास्करुडु ने भूमि और श्रम के अधिकारों के बारे में जनता के बीच क्रांति पैदा कर राजू को मदद की थी. चिंतपल्ली तालुक में गुडेम के तहसीलदार बास्टियन भी एक क्रांतिकारी थे, जो सनातनम पिल्लई के साथ रम्पा विद्रोह से जुड़ गये थे.

मल्लू डोरा, अप्पाला स्वामी, मड्डी रेड्डी जैसे अल्लूरी सीताराम राजू के कुछ सहयोगी हैं, जिन्होंने देशी बंदूकों और पारंपरिक हथियारों से लड़ाई लड़ी. गाम बंधु- येंदु पडालू और गोकिरी येरेसु- भी रम्पा विद्रोह के पराक्रमी नायक थे. एक नाम गंतम डोरा का भी है. ये सभी विद्रोही उस अत्याचार के खिलाफ लड़ रहे थे, जिसके तहत विकास कार्यों के नाम पर आदिवासियों को लगातार विस्थापित किया जा रहा था. भूमि राजस्व में वृद्धि के लिए मुत्तादारों के अत्याचार भी बढ़ रहे थे.

अपने अभियान में अल्लूरी सीताराम राजू ने आदिवासियों के बीच उनके अधिकारों के बारे में राजनीतिक चेतना पैदा करने और बाहरी प्रभावों के प्रति प्रतिरोधी बनाने की कोशिश की. उनकी अदम्य बहादुरी के कारण उन्हें ‘मान्यम वीरुडु’ कहकर सम्मानित किया जाता है, जिसका अर्थ है ‘जंगल का नायक’. शायद वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली के खिलाफ आवाज उठायी थी. सीताराम राजू का ध्यान आम लोगों को अपने सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़े रहने और अपनी पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों का जश्न मनाने के लिए प्रेरित करने पर था.

उन्होंने लोगों को कौशल विकसित करने का आह्वान भी किया. भारतीय सांस्कृतिक पहलुओं और आध्यात्मिक ज्ञान को प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने बद्रीनाथ, केदारनाथ, हरिद्वार और काशी आदि तीर्थ स्थलों पर साधुओं और योगियों से भी मुलाकात की. उन स्थानों की यात्रा करते हुए उन्होंने घुड़सवारी, हाथी को काबू में करना, वास्तु और ज्योतिष, कीमिया, तलवारबाजी और रत्नों के उपयोग आदि की कला में भी खुद को निपुण बनाया. वे लोगों को शारीरिक गतिविधियों में रुचि विकसित करने के लिए भी प्रेरित करते थे. वे अनुशासन और आचार संहिता के सख्त अनुयायी थे.

अल्लूरी सीताराम राजू के विद्रोह में टुकड़ियों की अपनी-अपनी जिम्मेदारी थी. एक टुकड़ी को हथियार हासिल करने के लिए रखा गया था, तो दूसरी को फायरिंग का प्रशिक्षण दिया गया था. कुछ लोग अंग्रेजों की हरकतों के बारे में सचेत करने के लिए ढोल बजाने में लगे हुए थे. इस प्रकार राजू के नेतृत्व में आदिवासी लोगों को युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया. इस प्रकार, अपने जीवन में उन्होंने विभिन्न कौशल पर ध्यान केंद्रित किया और अपने अनुयायियों को जीवन जीने के तरीके के रूप में सांस्कृतिक संरक्षण और बलिदान का मार्ग अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया. अपने देश और लोगों के प्रति उनके अपार प्रेम ने उन्हें एक सच्चा नायक बना दिया.

भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में कई अध्याय हैं, जो उपेक्षित रहे हैं. अब समय आ गया है कि ऐसी वास्तविकताओं और संघर्षों के पन्नों को उजागर किया जाए, जहां कई भूले-बिसरे नायकों ने स्थानीय लोगों के अधिकारों के लिए खुद को बलिदान कर दिया. उचित दस्तावेजीकरण के माध्यम से आदिवासी इतिहास को संरक्षित करने का काम हो सकता है. अल्लूरी सीताराम राजू की जयंती जैसे अवसर हमें साहस की कहानियों को याद करने के साथ-साथ युवा पीढ़ी को पूर्वजों के इतिहास से परिचित कराते हैं. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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