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विदेश नीति में राजनीतिक दृष्टि भी हो

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प्रधानमंत्री कार्यालय अमेरिका की घटना से भी क्षुब्ध है. खालिस्तानी अतिवादियों के लिए अमेरिका लंबे समय से सुरक्षित शरणस्थली है. पर हालिया घटनाओं की आक्रामकता के चलते सरकार को भारतीय डिप्लोमैटों की समीक्षा करनी पड़ रही है.

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भारत के लोकप्रिय पर्यटक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए दुनिया एक सीप है और विदेश मंत्रालय दूसरा प्रमुख रसोइया है. पर कुछ समय से उनके विरोधी पश्चिमी देशों की सड़कों पर उपद्रव पका रहे हैं. दुनिया के नेताओं के प्रिय मोदी प्रेरित भारत की वैश्विक छवि को उकसाऊ खालिस्तानी निशाना बना रहे हैं. हमने देखा है कि प्रधानमंत्री मोदी को अनिवासी भारतीय बड़ी संख्या में हर हवाई अड्डे और सभाओं में कितने उत्साह से स्वागत करते रहे हैं.

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घरेलू मोर्चे पर प्रधानमंत्री अपनी तीसरी राजनीतिक लड़ाई के लिए तैयार हो रहे हैं, पर अपने प्रभाव को मजबूत करने के लिए उनकी विदेशी यात्राएं भी होंगी. मई में वे जापान, पापुआ न्यू गिनी और ऑस्ट्रेलिया जायेंगे. हिरोशिमा में जी-7 समूह की बैठक है. इसमें यह उनकी पांचवीं शिरकत होगी. उसके बाद सिडनी में क्वाड का शिखर सम्मेलन है. जून में वे अमेरिका जायेंगे.

चूंकि भारत में जी-20 समूह की बैठकों की समाप्ति के बाद मोदी विदेश यात्रा नहीं कर सकेंगे, इसलिए उनकी टीम की योजना विदेश में उनकी छवि को फिर से रेखांकित करने के लिए उनकी कूटनीतिक यात्राओं का उपयोग करने की है. आधिकारिक आयोजनों के साथ-साथ उनकी टीम बड़ी सभाएं आयोजित करने की संभावनाएं भी तलाश रही है.

मार्च, 2023 तक मोदी ने 69 विदेश दौरे किये हैं और वे सभी महादेशों में गये हैं. वे लगभग 80 देशों की यात्रा के क्रम में पांच लाख मील से अधिक का हवाई सफर कर चुके हैं. उन्होंने नौ वर्षों में सात बार अमेरिका, छह बार जापान, पांच बार चीन, चार बार रूस और तीन बार ब्रिटेन की यात्रा की है. आगामी यात्राओं से पहले ही अधिकारी और भाजपा नेता उन देशों में पहुंच चुके हैं.

प्रक्षेपित विश्व गुरु की विश्व यात्रा में अलगाववादी उपद्रवों से खलल पड़ सकता है. खालिस्तानी उपद्रवियों ने भारतीय खुफिया क्षमता के काम को नापने का प्रयास किया है. भारतीय दूतावासों और विभिन्न ऑस्ट्रेलियाई शहरों में हिंदू मंदिरों पर हुए हिंसक हमलों ने उनके काम को दागदार किया है. स्थानीय सरकार भी अलगाववादियों को दंडित नहीं कर पायी है. अमेरिका में खालिस्तानी समर्थकों ने सैन फ्रांसिस्को में भारतीय वाणिज्य दूतावास में आगजनी की कोशिश की.

उन्होंने पूरे अमेरिका में विरोध रैलियां निकालने की धमकी दी है. कनाडा में उच्चायुक्त समेत भारतीय डिप्लोमैट बेफिक्र होकर नहीं घूम सकते क्योंकि उन्हें हमले की आशंका है. खुफिया रिपोर्टों में कहा गया है कि ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में मोदी के दौरे के समय बड़े प्रदर्शन करेंगे. पर इससे चिंतित हुए बिना शासन ने संघ परिवार और सिखों समेत अन्य राष्ट्रवादी तत्वों को लामबंद कर प्रधानमंत्री के स्वागत में बड़ी संख्या में लोगों को जुटाने का निर्णय लिया है.

भारत विरोधी गतिविधियों में अचानक आयी तेजी से प्रधानमंत्री कार्यालय और गृह मंत्रालय चकित हैं. उनकी मुख्य चिंता यह है कि एजेंसियां और स्थानीय दूतावास अराजकता का पूर्वानुमान करने, बचाव के उपाय करने और मेजबान देश पर दबाव बनाने के लिए केंद्र को आगाह करने में विफल रहे.

स्थानीय स्तर पर भारत के पक्ष में माहौल बनाने के लिए ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया में भारत के उच्चायुक्तों के कामकाज की समीक्षा हो रही है. लंदन में भारतीय उच्चायोग की इमारत से तिरंगे को अलगाववादियों द्वारा हटाने से प्रधानमंत्री कार्यालय और गृह मंत्रालय बहुत खफा हैं. यह इस तरह की पहली वारदात है. ब्रिटेन में भारतीय मूल के स्थानीय नेताओं का मानना है कि सिखों और हिंदुओं को जोड़ने के लिए उच्चायोग ने ठीक से पहल नहीं की है.

वर्तमान उच्चायुक्त विक्रम दोरैस्वामी भारतीय समुदायों में निकटता बढ़ाने के बजाय लंदन के अभिजात्य समाज से जुड़े रहने के लिए अधिक जाने जाते हैं. चाहे कोई भी पार्टी सत्ता में हो, उन्हें बड़े पद मिलते रहे हैं. तीस साल में उन्हें 15 कार्य सौंपे गये हैं. इससे पहले वे कुछ समय के लिए बांग्लादेश में उच्चायुक्त रहे थे, जब दोनों देशों के संबंध अच्छे नहीं थे. प्रधानमंत्री शेख हसीना ने उन्हें महीनों टरकाने के बाद मिलने का समय दिया था.

ऑस्ट्रेलिया में बसे भारतीयों को भी अपने डिप्लोमैटों से यही शिकायत है. मिशन के साथ लगातार संपर्क में रहने वाले प्रमुख भारतीयों के अनुसार, उच्चायुक्त मनप्रीत वोहरा को जातीय संघर्षों और स्थानीय सिविल सोसायटी समूहों के साथ संबंध का आवश्यक अनुभव नहीं है. ढाई दशक के सेवा काल में वे किसी भी ऐसे देश में पदस्थापित नहीं रहे हैं, जहां बड़ी संख्या में सिख और भारतीय मूल के अन्य लोग रहते हों. ऐसे में ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री से संपर्क का मामला प्रधानमंत्री मोदी पर छोड़ दिया गया.

प्रधानमंत्री कार्यालय अमेरिका की घटना से भी क्षुब्ध है. खालिस्तानी अतिवादियों के लिए अमेरिका लंबे समय से सुरक्षित शरणस्थली है. पर हालिया घटनाओं की आक्रामकता के चलते सरकार को भारतीय डिप्लोमैटों की समीक्षा करनी पड़ रही है. सेवा विस्तार पर चल रहे तरनजीत संधु अमेरिका में हमारे राजदूत हैं. जनवरी, 2020 में राजदूत बनने से पहले 11 साल अमेरिका में रह चुके थे. फिर भी वे मोदी के धनी और सफल भारतीय प्रशंसकों पर अपने असर का इस्तेमाल कर खालिस्तानी भावनाओं को रोकने और खत्म करने में असफल रहे. वैश्विक स्तर पर प्रभावी होने के लिए किसी नेता और उसके देश का मान घर में ही होना पर्याप्त नहीं है.

सरकार द्वारा नियुक्त राजनयिकों के गुण से विदेश में उसकी सफलता की मात्रा निर्धारित होती है. विदेश मंत्रालय और 193 भारतीय मिशनों में लगभग भारतीय विदेश सेवा के लगभग 900 अधिकारी कार्यरत हैं. कई संवेदनशील मिशनों के प्रमुख अपने डिप्लोमैटिक कौशल के कहीं अधिक अपनी स्वामिभक्ति के कारण चुने गये हैं. नटवर सिंह के अलावा विदेश मंत्रालय का नेतृत्व हमेशा अनुभवी राजनेता ने किया था, जो कूटनीति की राजनीति को समझते थे. मोदी ने विदेश सेवा के एक सेवानिवृत्त अधिकारी को विदेश मंत्री के रूप में चुना, जिनके पास राजनीतिक अनुभव नहीं है.

दुर्भाग्य से, एस जयशंकर एक अहंकारी कूटनीतिक प्रतिभाशाली के रूप में प्रतीत होते हैं, जिसकी विशेषज्ञता गैर-कूटनीतिक आक्रामकता है. उनकी निगरानी में लगभग पांच साल से भारतीय कूटनीति ने खुद का नुकसान किया है और अतिवादियों को रोक पाने में नाकाम रहे. जब मोदी भारत का परचम दुनिया में लहरा रहे हैं, संवेदनशील देशों में भारतीय मिशन अपनी कमतर क्षमता का प्रदर्शन कर रहे हैं. विदेश नीति में मोदी मंत्र को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है कि कूटनीति में राजनीतिक दृष्टि लानी होगी तथा बाहर रह रहे अपने घरेलू दुश्मनों को मिटाना होगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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